गिरावट पर मौज ही मौज, दे ताली!

चीजें पल-पल बदलती रहती हैं। शेयर बाजार के ट्रेडरों तक को यह बात ध्यान में रखनी पड़ती है। लेकिन जिन्हें निवेश करना है उनके लिए हमारा बाजार अभी कतई ऐसी दशा में नहीं पहुंचा है कि यहां एक-एक पल या एक-एक दिन का हिसाब रखना पड़े। बेफिक्र रहिए क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की विकासगाथा अभी कम से कम आजादी की 75वीं सालगिरह साल 2022 तक चलनी है। इस बीच दुनिया की पुरानी स्थापित अर्थव्यवस्थाएं डोलमडोल होती रहेंगी। लेकिन याद रखें कि दुनिया में जब भी कहीं कोई संकट पैदा हुआ है, भारतीय बाजार ने हमें निचले स्तरों पर खरीदने की मौका दिया है। उसके बाद बाजार या तो U आकार या V आकार में ऊपर चढ़ा है।

दुबई का संकट आया तो बाजार खटाक से गिर गया, लेकिन हमें खरीदने का अच्छा मौका दे गया। उसके बाद आइसलैंड और दूसरे यूरोपीय देशों का ऋण संकट आया, तब भी ऐसा ही हुआ। अब आयरलैंड के डिफॉल्ट का मसला है। लेकिन जानते हैं यह डिफॉल्ट कितने का है? मात्र 7000 करोड़ डॉलर या 3,12,480 करोड़ रुपए का। इससे ज्यादा तो बीएसई सेंसेक्स में शामिल केवल एक कंपनी, रिलायंस इंडस्ट्रीज का बाजार पूंजीकरण (3,47,459 करोड़ रुपए) है। एसबीआई तक का बाजार पूंजीकरण 1,92,429 करोड़ रुपए है। क्या इतने डिफॉल्ट पर चीन और भारत को इतना सिहर जाने की जरूरत है कि दो दिनों में शेयर बाजार 5 फीसदी तक लुढ़क जाएं?

एकदम नहीं। कतई नहीं। भारतीय बाजार की बात करें तो यहां खरीद ज्यादा हो चुकी थी और इस खरीद के पीछे उधारी ज्यादा थी। वैसे भी ऐसा करेक्शन तो हर दो महीने पर आता ही रहता है जो बाजार के अच्छा है क्योंकि इससे बाजार में संतुलन दुरुस्त होताहै। जिस तरह प्रकृति बाढ़ या विभीषिकाओं के जरिए संतुलन हासिल करती हैं, उसी तरह बाजार में बढ़ने-गिरने का नियम चलता है। भारत की विकासगाथा अटूट है, अनवरत प्रवहमान है। सरकार ने विकास का एक अच्छा मॉडल अपना रखा है। उसे बाजार से ज्यादा से ज्यादा वित्तीय संसाधन जुटाने हैं जिसके लिए बाजार का अच्छी हालत में रहना जरूरी है।

चीन कामयाब हुआ क्योंकि उसे पिछले एक दशक में विदेशी मुद्रा प्रवाह के रूप में 3 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा रकम मिली है और इसलिए वह खर्च करने की स्थिति में है। भारत सरकार भी इसी राह पर है, लेकिन वह रकम का इंतजाम सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश से कर रही है। पिछले साल उसने 25,000 करोड़ रुपए जुटाए। इस साल 40,000 करोड़ रुपए जुटा रही है और अगले साल का लक्ष्य 75,000 करोड़ रुपए का है। सरकारी कंपनियां इस तरह से जुटाया गया धन बिजली संयंत्रों, ग्रामीण क्षेत्रों तक विस्तार, सड़क, तेल व बंदरगाह जैसी राष्ट्रीय महत्व की परियोजनाओं पर खर्च करेंगी। इसके अलावा टेलिकॉम, एयरपोर्ट, बैंकिंग, ऑटोमोबाइल, मेटल व अन्य मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के विकास का काम निजी क्षेत्र के जिम्मे कर दिया गया है जिनमें सरकार की सहयोगी भूमिका है।

इस मॉडल पर अमल से भारत बहुत आसानी से 9 फीसदी से ज्यादा आर्थिक विकास दर हासिल कर लेगा। इसलिए बाजार में अभी जैसे करेक्शन को खरीदने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यहां पर हम टेक्निकल विशेषज्ञों की भी मदद ले सकते हैं। बाजार (निफ्टी) 6357 के ऊपर नहीं गया, इसलिए करेक्शन का आना लाजिमी था। करेक्शन हमेशा बांध के टूटने जैसी सूरत लेकर आता है जब बहाव को रोकना असंभव लगने लगता है। कोरिया 3 फीसदी गिरा, फिर चीन 5 फीसदी से ज्यादा लुढ़क गया। ओवरबॉट बाजार में आयरलैंड के डिफॉल्ट को आसानी से गिरावट का ट्रिगर बना लिया गया। लेकिन सारी समस्या की जड़ है ओवर-लीवरेजिंग या ज्यादा उधार से की गई खरीद, न कि बाजार की कोई कमजोरी।

करेक्शन की शुरुआत वहां से होती है जब मार्जिन भरने की मजबूरी आ जाती है और सौदों को हर हाल में निपटाना होता है। ऐसा ही शुक्रवार को अपने यहां हुआ। यह सच है कि सितंबर में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में मात्र 4.4 वृद्धि हुई जो बीते 16 महीनों का न्यूनतम स्तर है। लेकिन बाजार को इसकी उम्मीद पहले से थी। इसलिए अफरातफरी में की गई बिकवाली की वजह ये आंकड़े नहीं थे। सेंसेक्स में 800-1000 अंकों की गिरावट के दौरान एफआईआई बिकवाली के बजाय अपने पोर्टफोलियो को फेटते रहे।

इधर बाजार में अफवाहों की मशीनरी फुलस्पीड पर चल रही है और यह सिलसिला निफ्टी के 5600 पर पहुंचने से ही शुरू हो गया है। टेक्निकल एनालिस्टों का मानना है कि अगर निफ्टी 5500 का स्तर तोड़कर नीचे चला जाता है तब बाजार में टिके रहने का कोई तुक नहीं है क्योंकि तब यह 200 डीएमए (डेली मूविंग एवरेज) से नीचे चला जाएगा जहां से और भी ज्यादा रफ्तार से बिकवाली शुरू हो सकती है। वैसे, यह सारा कुछ तेजड़ियों और मंदड़ियों की बाजार रणनीति का हिस्सा होता है। इसलिए हमें इस पर बहुत मगजमारी करने की जरूरत नहीं है।

हकीकत हमारे सामने है। 2008 से लेकर अब तमाम भूत खड़े किए हैं। पी-नोट का मसला, दुबई का संकट, खराब मानसून से उपजा सूखा, यूरोप का ऋण संकट और अमेरिका का धीमा आर्थिक विकास। लेकिन हर संकट के बाद भारत पहले से ज्यादा मजबूत व आकर्षक बनकर उभरा है और भारतीय शेयर बाजार तेजी के नई मुकाम हासिल करता गया है। इसकी विशेष वजह भारत सरकार और उसकी व्यावहारिक नीतियां हैं।

लोग कुछ भी कहें, हमारा मानना है कि निफ्टी के 8000 अंक तक पहुंचने की राह खुल चुकी है। इसलिए घबराकर बिकवाली करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन इसके साथ-साथ हमें बैंकिंग व ऑटो सेक्टर को लेकर सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि इन सेक्टरों के शेयर अपने शिखर के करीब तक पहुंच चुके हैं और अगली एक या दो तिमाहियों तक अपनी ऊर्जा को टिकाए नहीं रख पाएंगे। तब तक बजट आ जाएगा जिसमें प्रोत्साहन के उपायों का अंत हो सकता है जिसका असर इन सेक्टरों पर पड़ सकता है। रीयल्टी, हेल्थकेयर, घरेलू उपभोग से जुड़े उद्योग, फर्टिलाइजर, चीनी, माइनिंग और छोटी आईटी कंपनियां निवेश का अच्छा मौका दे रही हैं। इनमें तलहटी पर खरीद बढ़ाते जाने की रणनीति अपनाई जानी चाहिए।

सरकारी कंपनियों के आईपीओ मार्च 2011 और उसके बाद भी आते रहेंगे। इसलिए बाजार पर तेजी का सुरूर कायम रहेगा। इस बीच करेक्शन आते रहेंगे। खासकर दुनिया की ऐसी घटनाएं बाजार के गिरावट की वजह बन सकती हैं, जिनका हमारी अर्थव्यवस्था से कोई खास लेना-देना नहीं है। इसलिए ऐसी हर गिरावट को खरीद के नए अवसर के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

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