हर तरफ उजाला हो। सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में पारदर्शिता हो। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का आगाज़ हो चुका है। क्या चुनावों के धन में पारदर्शिता है? क्या राजनीति में जवाबदेही है? इन सवालों का शेयर बाज़ार से सीधा तो नहीं, लेकिन घुमा-फिराकर रिश्ता बनता है। राजनीतिक चंदों में जब तक पारदर्शिता नहीं होगी, जब तक वहां कालाधन आता रहेगा, तब तक शेयर बाज़ार में भावों के साथ खेल व धोखा चलता रहेगा और बाज़ार निष्पक्ष नहीं हो सकता। फरवरी 2017 में बजट पेश करते हुए तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि जब तक राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता नहीं आती, तब तक स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव असंभव हैं। बात सही है। लेकिन यह कहने के बाद उन्होंने चुनावी बांड की जो व्यवस्था शुरू की, उसने राजनीति में मनी-लॉड्रिंग, कालेधन और देशी-विदेशी रिश्वतखोरी का रास्ता खोल दिया है। पहले 20,000 रुपए से ज्यादा चंदा देने पर हर किसी को नाम-पता ठिकाना घोषित करना पड़ता था। लेकिन अब कोई 20 करोड़ रुपए या 200 करोड़ रुपए भी दे तो उसका पता सरकार के अलावा किसी को नहीं चल सकता। पहले चंदा देनेवाली कंपनियों के मुनाफे में रहने की शर्त थी। अब तो घाटे में चल रही फर्जी या शेल कंपनियां भी चंदा दे सकती हैं। अब बुधवार की बुद्धि…
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