सरकार देश की सबसे बड़ी कर्जदार है और उसके कर्ज के इंतजाम का सारा ज़िम्मा रिजर्व बैंक का है। यह भारत सरकार और रिजर्व बैंक के बीच हितों का सबसे बड़ा टकराव है। इसे दूर करने के लिए तब के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्त वर्ष 2015-16 के बजट में सरकार के ऋण प्रबंधन के लिए एक स्वतंत्र पब्लिक डेट मैनेजमेंट एजेंसी (पीडीएमए) बनाने का प्रस्ताव रखा था। लेकिन अप्रैल 2023 तक आते-आते पीडीएमए की यह योजना ठंडे बस्ते में डाल दी गई। यह काम फिलहाल रिजर्व बैंक और वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का एक प्रकोष्ठ कर रहा है। कहने को सरकार के ऋण पर अंकुश रखने के लिए साल 2003 में राजकोषीय उत्तरदायित्व व बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) एक्ट बनाया गया था। 2017 में इसके तहत बनी समिति ने सुझाव दिया था कि केंद्र और राज्य सरकारों का सम्मिलित ऋण जीडीपी के 60% (केंद्र का 40% और राज्यों का 20%) से ज्यादा नहीं होना चाहिए। लेकिन व्यवहार में इसका पालन नहीं हो रहा। रिजर्व बैंक की स्वायत्तता खतरे में है। ऐसे में देश को अक्टूबर 2018 में दी गई रिजर्व बैंक के तब के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य की यह चेतावनी याद रखनी होगी, “जो सरकारें केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करतीं, उन्हें देर-सबेर वित्तीय बाज़ार के गुस्से और आर्थिक विक्षोभ का सामना करना पड़ेगा।” अब शुक्रवार का अभ्यास…
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