आसान है मार्जिन व लीवरेज का फंडा

ऑप्शंस की चर्चा सोमवार को। उससे पहले हम फ्यूचर्स के कुछ खास-खास पहलू जान लें। कैश सेगमेंट में हम कोई स्टॉक जितने का खरीदते हैं, उतना मूल्य सौदा पूरा होते ही हमारे पास आ जाता है। लेकिन जब हम किसी फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट खरीदते हैं, तब उसकी कोई वैल्यू नहीं होती। उसमें वैल्यू या मूल्य तब आता है, तब उसका भाव सौदे के भाव से इधर-उधर होता है। मसलन, हमने कोई फ्यूचर्स सौदा 100 रुपए का खरीदा तो उस वक्त हमें कोई मूल्य नहीं देना होता। हमें केवल मार्जिन ही अदा करना होता है।

मान लीजिए कि हमें फ्यूचर्स में कोई लॉन्ग सौदा किया तो सौदे के परिपक्व होने पर मूल आस्ति का जितना भाव है, वह अगर हमारे सौदे के भाव से कम है तो हमें उतना अंतर अदा करना पड़ता है और हमें घाटा होता है, जबकि ज्यादा तो हमें अंतर की रकम मिल जाती है और हमें फायदा होता है। शॉर्ट पोजिशन में इसका उल्टा होता है। अंतिम भाव के कम रहने पर हमें फायदा होता है, जबकि ज्यादा रहने पर घाटा।

जब फ्यूचर्स में कोई लॉन्ग सौदा करते हैं तो हमारा करार होता है कि भविष्य की नियत तारीख पर हम उससे जुड़ी आस्ति खरीद लेंगे। मान लें कि आस्ति का भाव नियत तारीख पर करार के भाव से ज्यादा रहा तो सामनेवाला हमें अंतर का मूल्य देकर सौदा सेटल कर लेता है जो हमारा फायदा होता है। वहीं, अगर नियत तारीख पर भाव कम रहा तो हमें सामनेवाले को अपनी जेब से अंतर का मूल्य देना पड़ता है और तब हमें घाटा होता है।

वहीं, फ्यूचर्स के शॉर्ट सौदे में हम नियत तारीख पर तय भाव में संबंधित आस्ति बेचने का करार करते हैं। अब उस तारीख को आस्ति का भाव करार के भाव से ज्यादा हुआ तो हमें उसका अंतर सामनेवाले को देना पड़ता है और हमें घाटा होता है। वहीं, आस्ति का भाव करार के भाव से कम रहा तो सामने वाला हमें दोनों भावों का अंतर अदा करता है और हमें फायदा होता है।

फ्यूचर्स सौदे में मार्जिन की बहुत अहम भूमिका होती है। जैसा कि हमने शुरू में ही बताया कि जब हम फ्यूचर्स सौदे में प्रवेश करते हैं तो उसका मूल्य शून्य होता है और हम एक्सचेंज को कोई दाम नहीं देते। लेकिन हमें शुरुआती मार्जिन देना पड़ता है। यह मार्जिन कॉन्ट्रैक्ट मूल्य का निश्चित प्रतिशत होता है। यह रकम हम ब्रोकर के जरिए एक्सचेंज को देते हैं। इसका मकसद यह है कि अगर सौदे में हमारी कोई देयता बनती है तो उसे देने के लिए ब्रोकर के पास पर्याप्त धन रहे। हर दिन कॉन्ट्रैक्ट के बाज़ार मूल्य का अंतर एक्सचेंज हमारे खाते में डालता या निकालता है। इस तरह फ्यूचर्स सौदे में फायदा या नुकसान रोज का रोज़ सेटल हो जाता है। इसलिए हमें मार्जिन को घाटे के बजाय एक तरह की बंधक रकम समझना चाहिए, जिससे हमारा संभावित घाटा कवर किया जाता है।

फ्यूचर्स सौदे में एक और ज़रूरी अवधारणा है लीवरेज की। इसका सीधा संबंध मार्जिन से है। हम फ्यूचर्स सौदों में कॉन्ट्रैक्ट मूल्य का निश्चित प्रतिशत हिस्सा ही अदा करते हैं। हम अगर 1 को किसी सौदे में जितना प्रतिशत मार्जिन देना है, उससे भाग दे दें तो निकले अनुपात को लीवरेज अनुपात कहते हैं। मान लीजिए कि किसी सौदे में हमें कॉन्ट्रैक्ट के मूल्य का 10 प्रतिशत मार्जिन देना है तो उसका लीवरेज अनुपात 10 का हुआ क्योंकि 1 को 10/100 से भाग देने पर 10 ही निकलता है। इसका व्यावहारिक मतलब यह हुआ कि हम जितनी रकम दे रहे हैं, उसकी दस गुनी पोजिशन ले सकते हैं। इस हिसाब से अगर भाव 2 प्रतिशत बढ़ता या घटता है तो हमें फ्यूचर्स सौदे में अपने निवेश पर 20 प्रतिशत फायदा या घाटा होगा।

हम लीवरेज और मार्जिन को कमोडिटी एक्सचेंज के एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए कि हम एमसीएक्स में गोल्ड मिनी का फ्यूचर्स का सौदा करते हैं और इसमें शुरुआती मार्जिन 4 प्रतिशत का है तो लीवरेज अनुपात 1/0.04 = 25 का हुआ। इसमें एक लॉट 100 ग्राम का है और हम एक गोल्ड मिनी लेते हैं। अभी गोल्ड का दाम 46,250 रुपए प्रति 10 ग्राम है तो एक लॉट या 100 ग्राम गोल्ड मिनी का दाम 4,62,500 रुपए हुआ। चूंकि मार्जिन 4 प्रतिशत का है तो हम 18,500 रुपए देकर हम उससे 25 गुना मूल्य यानी 4,62,500 करोड़ रुपए का कॉन्ट्रैक्ट कर सकते हैं। मान लें कि सोने का दाम 2 प्रतिशत बढ़कर 47,175 रुपए प्रति 10 ग्राम हो गया। ऐसी स्थिति में गोल्ड मिनी के एक लॉट के लॉन्ग फ्यूचर्स कॉन्ट्रैक्ट पर हमारा रिटर्न हुआ 4,71,750 – 4,62,500 / 18,500 = 50 प्रतिशत। इस तरह मात्र 2 प्रतिशत दाम बढ़ने पर उसका 25 गुना या 50 प्रतिशत रिटर्न। यह है लीवरेज का कमाल। लेकिन याद रखें कि यही दाम अगर 2 प्रतिशत घट गया होता तो हमारी 50 प्रतिशत ट्रेडिंग पूंजी एक लॉट के एक ही सौदे में स्वाहा हो गई होती।

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