शेयर बाजार में सर्किट का खेला हर दिन चलता है। जैसे बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) में 7 अप्रैल को 356 शेयरों पर सर्किट ब्रेकर लगा था, जिसमें से 274 पर अपर सर्किट और 82 पर लोअर सर्किट लगा हुआ था। सोमवार को शिवालिक बाईमेटल पर अपर सर्किट लगा तो बुधवार को कावेरी टेलिकॉम पर। शेयर कहीं ज्यादा उछल-कूद न मचाएं, इसके लिए हमारी पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी ने सर्किट लगाने का नियम बना रखा है। यह सर्किट ऊपर के भाव पर भी लगता है और नीचे के भाव पर भी। इसे ही अपर सर्किट और लोअर सर्किट करते हैं।
पहली बात कि ए ग्रुप के शेयरों समेत किसी भी ऐसे शेयर पर कोई सर्किट ब्रेकर नहीं लगता जो बीएसई या एनएसई के किसी सूचकांक में शामिल हैं और जिनमें डेरिवेटिव (फ्यूचर्स व ऑप्शंस) सौदे होते हैं। इन पर मूल्य की कोई ऊपरी या निचली सीमा नहीं लागू होती। लेकिन किसी तरह की गलत ऑर्डर एंट्री को रोकने के लिए इंडेक्स फ्यूचर में आधार मूल्य के 10 फीसदी और अलग-अलग शेयरों में 20 फीसदी उतार-चढ़ाव की सीमा बनाकर रख छोड़ी गई है। एनएसई के मुताबिक वहां 190 शेयरों में डेरिवेटिव सौदे होते हैं। इसमें बीएसई के ए ग्रुप के 98 शेयर भी शामिल हैं।
मतलब साफ है कि ए ग्रुप के किसी शेयर में कितना भी उतार-चढ़ाव हो सकता है। लेकिन बी या उससे नीचे के किसी ग्रुप के शेयर में नहीं। जैसे ए ग्रुप में शामिल होने के कारण इस्पात इंडस्ट्रीज का भाव कितना भी ऊपर-नीचे हो जाए, उस पर सर्किट ब्रेकर नहीं लगेगा। लेकिन बी ग्रुप के शिवालिक बाईमेटल में 10 फीसदी और टीएस ग्रुप के कावेरी टेलिकॉम में 5 फीसदी तक घटबढ़ होते ही सर्किट ब्रेकर लग जाएगा। यह भी नियम है कि लिस्टिंग के दिन कोई सर्किट ब्रेकर नहीं लगता। यानी, आईपीओ लाने के बाद जिस दिन कंपनी के शेयर स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध होंगे, उस दिन उसका भाव कितना भी ऊपर-नीचे जा सकता है। लेकिन अगले ही कारोबारी दिन से उस पर सर्किट ब्रेकर का नियम लागू हो जाता है।
सर्किट ब्रेकर डेरिवेटिव सौदों से बाहर के शेयरों के अलावा पूरे बाजार यानी उसके सूचकांक बीएसई सेंसेक्स और एनएसई निफ्टी पर भी लगता है। बाजार की उछलकूद को रोकने के लिए सर्किट ब्रेकर की तीन सीमाएं 10, 15 और 20 फीसदी रखी गई हैं। अगर दोपहर एक बजे के पहले सूचकांक में 10 फीसदी की घट-बढ़ होती है तो ट्रेडिंग एक घंटे के लिए रोक दी जाती है। अगर ऐसा एक बजे से ढाई बजे के बीच होता है तो ट्रेडिंग आधे घंटे के लिए रोकी जाती है। लेकिन अगर ढाई बजे के बाद सूचकांक 10 फीसदी उठता या गिरता है तो ट्रेडिंग नहीं रोकी जाती। 15 फीसदी अंतर अगर एक बजे से पहले आता है तो 2 घंटे और एक से दो बजे के बीच आता है तो एक घंटे कारोबार रोकने का नियम है। दो बजे के बाद 15 फीसदी का फर्क आने पर ट्रेडिंग बाकी दिन के लिए रोक दी जाती है। जब भी सूचकांकों में 20 फीसदी उतार या चढ़ाव आता है तो ट्रेडिंग पूरे दिन के लिए रोक दी जाती है। सूचकांक में यह अंतर ठीक पिछली तिमाही के आखिरी स्तर से गिना जाता है।
जैसे 18 मई 2009 को यूपीए सरकार की जीत के माहौल में बाजार सुबह 9 बजकर 55 मिनट पर जैसे ही खुला, चंद सेकंडों में सेंसेक्स 1305.97 अंक उछल गया। चूंकि यह जबरदस्त उछाल पिछली तिमाही के आखिरी कारोबारी सत्र यानी 31 मार्च 2009 को दर्ज सेंसेक्स के 9708.50 अंक के बंद स्तर से लगभग 15 फीसदी ज्यादा था, इसलिए सेबी के नियम के अनुरूप फौरन सर्किट ब्रेकर लगा दिया गया और दो घंटे के लिए ट्रेडिंग रोक दी गई। इसके बाद जब 11 बजकर 55 मिनट पर दोबारा ट्रेडिंग शुरू हुई तो सेंसेक्स 804.82 अंक और चढ़ गया। नतीजतन फिर सर्किट ब्रेकर लगाना पड़ा और ट्रेडिंग बाकी पूर दिन के लिए रोक दी गई। उस दिन जहां बीएसई में दो बार सर्किट ब्रेकर लगाना पड़ा, वहीं एनएसई में तीन बार ऐसी स्थिति आई। 31 मार्च 2009 को दर्ज निफ्टी के बंद स्तर के मुकाबले उसमें क्रमश: 10, 15 और 20 फीसदी की जोरदार बढ़त दर्ज किए जाने के कारण ही तीन बार सर्किट ब्रेकर लगाना पड़ा।
ए ग्रुप, सूचकांकों और डेरिवेटिव सौदों से बाहर के शेयरों पर एनएसई और बीएसई ने सर्किट ब्रेकर के चार स्तर तय कर रखे हैं। 2, 5, 10 और 20 फीसदी। भावों में अंतर की गणना पिछले दिन के बंद भाव को आधार मानकर की जाती है। अब चूंकि बीएसई और एनएसई (नेशनल स्टॉक एक्सचेंज) मे किसी एक शेयर के बंद भाव अलग-अलग हो सकते हैं, इसलिए दोनों एक्सचेंजों में इनकी सर्किट सीमा अलग हो सकती है।
किसी शेयर पर सर्किट ब्रेकर की सीमा तय करने का पूरा अधिकार एक्सचेजों के प्रशासन को मिला हुआ है। इसलिए वे इस अधिकार के दम पर मनमानी भी करते हैं। जैसे, बीएसई में गुरुवार 1 अप्रैल को शिवालिक बाईमेटल पर अपर सर्किट 20 फीसदी पर लगा तो सोमवार 5 अप्रैल को इसे 10 फीसदी कर दिया गया। कहने को मकसद बड़ा पाक-साफ होता है कि शेयर भावों में असामान्य उतार-चढ़ाव को रोककर आम निवेशकों व बाजार को बचाना है। लेकिन जरा-सा गहरे जाएं तो पता चलता है कि कुछ शेयरों को बेरोकटोक बढ़ने दिया जाता है तो कुछ को चूं-चपड़ करते हुए सर्किट ब्रेकर लगाकर बैठा दिया जाता है। इससे भी काम नहीं बना तो उन्हें ट्रेड टू ट्रेड श्रेणी में डाल दिया जाता है। इस श्रेणी में डालने पर ऐसी शर्तें लग जाती हैं कि व्यवहार में उनमें ट्रेडिंग ही रुक जाती है, लिक्विडिटी शून्य हो जाती है।
दुनिया में शेयरों पर सर्किट ब्रेकर लगाने की शुरूआत 1987 के काले सोमवार के बाद हुई जब पूरे अमेरिकी बाजार का पटरा हो गया था। भारत में इस व्यवस्था को पूरी तरह 2005 से अपनाया गया। इस दौरान इसकी खूबियों के साथ तमाम खामियां भी उजागर हुई हैं जिनकी समीक्षा की जा रही है। सेबी का कहना है कि आम निवेशकों व बाजार के विकास के हित में जो भी जरूरी होगा, वह करने के लिए हमेशा तैयार है।