तितली रानी, नहीं सयानी!

यही कोई दोपहर बाद की बेला थी। तितली रानी दो घंटे से कमरे में फंसी हुई थी। लंबी-लंबी कांच की खिड़कियों से उसे रोशनी नजर आती तो बाहर निकलने के लिए वहीं से भागने की कोशिश करती। उसमें नरम, मुलायम, नाजुक पंख पारदर्शी कांच से टकराते और वो नहीं निकल पाती। पूरी मेहनत करती। पंख पूरे ज़ोर से चलाती। लेकिन हर बार वही हश्र क्योंकि जिसे वह खुला द्वार समझ रही थी, बाहर छिटकी हरियाली तक पहुंचने का सीधा-सरपट रास्ता समझ रही थी, वह तो कठोर कांच का बड़ा-सा ऊपर से नीचे तक फैला एक पारदर्शी टुकड़ा था।

इस बीच थक जाती तो कहीं नीचे कोने में थिर होकर आराम करती। अपने पंखों को धीरे-धीरे खोलती बंद करती। तितली हर तितली की तरह बेहद खूबसूरत थी। शुक्र है कि घर में बच्चे नहीं थे। नहीं तो उसे पकड़कर कब का अपना खिलौना बना चुके होते। बाहर निकलने की उसकी कोशिश जारी रही। लेकिन नीचे कोने में थिर होकर आराम करने और उठकर फिर से संघर्ष करने के बीच अंतराल बढ़ता गया। शाम नजदीक आने लगी। सूरज का ताप मद्धिम पड़ने लगा।

कमरे से बाहर निकलने को व्याकुल तितली की ज़िंदगी की घुटन बढ़ने लगी। छोटा दिमाग, छोटी-सी ज़िंदगी। हां, तितली का दिमाग बड़ा ही छोटा होता है। इतना छोटा कि दूसरे मस्तिष्कों की तुलना में नगण्य। लगता है, जैसे प्रकृति ने इतनी खूबसूरत तितली को बगैर कुछ जाने-समझे मूर्खों की तरह छोटी-सी ज़िंदगी ही जी पाने का शाप दे रखा हो। लेकिन उसी प्रकृति ने तितली को ऐसी आंखें दे रखी हैं कि वो एक साथ हर दिशा में देख सकती हैं। असल में उसकी आंखों में षट्भुज के आकार की हज़ारों संरचनाएं होती हैं, जिनकी बदौलत वो किसी भी वक्त अपने इर्दगिर्द मौजूद तकरीबन सारी चीजें देख सकती है।

सी आंखों और उनमें मौजूदा हज़ारों षट्कोणी संरचनाओं के बावजूद हमारी बेहद खूबसूरत तितली रानी को कांच की खिड़कियों को बीच में सरका देने के बाद दोनों किनारों पर मौजूद खुला रास्ता नहीं दिखा। उसे कमरे का खुला दरवाज़ा भी नहीं दिखा। ठीक कांच की खिड़कियों के पीछे बालकनी में खिले गुलहड़, सोनटक्का, गुलाब और सदाफूली के फूल उसे बुलाते रहे, रिझाते रहे। लेकिन वह कांच की बमुश्किल आधा इंच मोटी दीवार से टकराकर गिरती रही। सुस्त पड़ी। शांत हुई। मर गई। सुबह घर की मालकिन से झाड़ू से उठाकर उसे डस्टबिन में डाल दिया। कोई दया नहीं। कोई माया नहीं। कोई सहानुभूति नहीं। आखिर तितली न तो चहक रही थी, न उड़ रही थी। अब तो उसके पंखों के रंग भी गिरकर फर्श पर चिपक गए थे जिसे पोछे से साफ करना पड़ा।

बालकनी और उसके बाहर तमाम फूल पहले की तरह खिलते रहे। गणेश बेल जैसी मॉर्निंग ग्लोरी के फूल हमिंग बर्ड जैसी चिड़िया को खींचते रहे। गेंदा मंहकता रहा। जवाकुसुम/गुड़हल के गुच्छे दहकते रहे। फूल खिलते रहे। शहद की बूंदे सजाते रहे। खुशबू बिखेर सबको आने का न्यौता भेजते रहे। लेकिन वो तितली आई कि नहीं, इसका उन्हें पता भी नहीं चला क्योंकि वे तो किसी एक नहीं, हज़ारों तितलियों व पक्षियों के लिए रस सजोते हैं। उस घर की मालकिन और बाकी दुनिया को भी तितली की याद फिर नहीं आई। लेकिन मुझे याद आ रही है। काश! हज़ारों षट्कोणी संचरनाओं से भरी चमत्कारिक आंखों के साथ प्रकृति ने हमारी बेहद खूबसूरत तितली को कायदे का दिमाग भी दे दिया होता। लेकिन क्या कीजिएगा? यही तो लीला है प्रकृति की!!

आधार: मुकुल शर्मा का लेख

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