बजट का शोर थम चुका है। विदेशी निवेशकों को जो सफाई वित्त मंत्री से चाहिए थी, वे उसे पा चुके हैं। अब शांत हैं। निश्चिंत हैं। बाकी, अर्थशास्त्रियों का ढोल-मजीरा तो बजता ही रहेगा। वे संदेह करते रहेंगे और चालू खाते का घाटा, राजकोषीय घाटा, सब्सिडी, सरकार की उधारी, ब्याज दर, मुद्रास्फीति जैसे शब्दों को बार-बार फेटते रहेंगे। उनकी खास परेशानी यह है कि धीमे आर्थिक विकास के दौर में वित्त मंत्री जीडीपी के आंकड़े को 13.4 फीसदी (मुद्रास्फीति समेत) कैसे बढ़ा पाएंगे और टैक्स व गैर-टैक्स स्रोतों से कैसे इतना धन हासिल कर पाएंगे कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4.8 फीसदी लक्ष्य के भीतर समा जाएगा।
खैर, यह सब गणित है उन लोगों का, जो किसी न किसी रूप में सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा हैं। इन तबकों का हित सधता रहे, इसके लिए परजीवियों का बड़ा तबका अटक से कटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैला है। ये परजीवी जो अवाम के बीच घुसकर उन्हें सरकार के आका होने के भाव का अहसास कराते रहते हैं। इस तबके में राजनीति पार्टियों से जुड़े लोग और सत्ता के दलाल शामिल हैं। दिल्ली में इनकी भारी जमात है। लेकिन ये लोग गांव-गिरांव और स्कूल-कॉलेजों तक फैले हैं। पांच से दस फीसदी कट पर काम करते हैं। कभी-कभी तो पूरी स्कीम ही डकार जाते हैं। सरकार अब लाभार्थियों के खाते में सीधे नकद रकम ट्रांसफर करने की बात कर रही है। लेकिन इसका आधार सारे नागरिकों को अलग पहचान देनेवाला कार्यक्रम ‘आधार’ बनेगा और उसका ही विरोध हो रहा है।
वित्त मंत्री बड़े आनंद से हर बजट में इस परजीवी या दलाल तबके के फलने-फूलने का इंतज़ाम कर देते हैं। ग्रामीण विकास, जल, सिंचाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुधार, अल्पसंख्यक, महिलाएं, बच्चे, किसान, अनूसूचित जाति, जनजाति के नाम पर जनधन का बांट-बखरा होता है। इससे दलालों के साथ ही तमाम एनजीओ और संसदीय राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपना धंधा-पानी चलाते हैं। इसीलिए सीपीएम जैसी वामपंथी पार्टी को भी तथाकथित सामाजिक कल्याण के इन मदों में कटौती से किरकिरी होती है।
दिक्कत यह है कि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी इन वामपंथी रूढ़ियों से बच नहीं पाई है। वो सरकारी योजनाओं और कल्याण कार्यक्रमों में नीचे तक फैले भ्रष्टाचार की बात तो करती है। लेकिन इन मदों के कम आवंटन का रोना भी रोती है। अफसोस इसी बात का है कि अवाम की आवाज बुलंद करनेवाली शक्तियों में इतनी समझदारी नहीं है कि वे बजट का हर फरेब खोलकर सबसे सामने रख सकें। जो हैं, वो नारों की भाषा में बात करते हैं। उन्हें गाली देना तो आता है। लेकिन विकल्प देना नहीं आता। समाज में ऐसी बिखरी-बिखरी शक्तियां जरूर हैं। लेकिन उनका कोई साझा मंच नहीं है।
अब जो ऊपर कहा गया है, उसकी कुछ बानगी पेश हैं। चिदंबरम ने पूरे पूर्वी भारत में हरित क्रांति के लिए 1000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है, जबकि अकेले अल्पसंख्यक मंत्रालय को ही उन्होंने इसका तीन गुना धन, 3511 करोड़ रुपए दे डाले हैं। मौलाना आज़ाद एजुकेशन फाउंडेशन के पास 750 करोड़ पहले से हैं। कभी इस फाउंडेशन से जाकिर हुसैन ट्रस्ट के जरिए विकलांगों का धन लूटनेवाले हमारे विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद भी जुड़े रहे हैं। फाउंडेशन को 750 करोड़ रुपए के ऊपर 160 करोड़ रुपए, और उसके ऊपर से 100 करोड़ और दिए गए हैं। किनकी जेब में जाएगा यह सारा धन?
जनधन की लूट का बड़ा शानदार आधार बने हुए हैं दलित, आदिवासी, महिलाएं और बच्चे। चिदंबरम ने अनुसूचित जाति के नाम पर 41,561 करोड़ और जनजाति के नाम पर 24,598 करोड़ रुपए निकाले हैं। कमाल की बात तो यह है कि उन्होंने 97,134 करोड़ रुपए ‘जेन्डर बजट’ में यानी महिलाओं के नाम पर निकाले हैं, जबकि बच्चों के लिए 77,236 करोड़ रुपए रखे गए हैं। महिलाओं की आबरू की हिफाज़त के लिए 1000 करोड़ रुपए का निर्भया फंड अलग से बनाया गया है। इस फंड की घोषणा के बाद हमारा सरकारी तंत्र महिलाओं, किशोरियों व बच्चियों के साथ क्या सलूक कर रहा है, इसे मार्च के पहले ही हफ्ते की कई वारदातों ने साबित कर दिया है। इसलिए अलग से साबित करने की कोई जरूरत नहीं है कि सरकार दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और बच्चों के लिए अलग से निकाले गए धन को साल भर में कैसे डकारेगी।
अभी-अभी सीएजी ने खोला है कि किसानों की कर्जमाफी में कैसे धांधली हुई थी। यह साफ करता है कि कृषि, ग्रामीण विकास, पेयजल, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे मदों का खेल बड़ा व्यापक है। उनकी रकम भी बहुत बड़ी है। उसे यहां गिनाने की जरूरत नहीं है। बस, इतना समझ लीजिए कि यह सारी रकम उस राजनीतिक-प्रशासनिक तंत्र में ग्रीस लगाते रहने के काम में आती है जिसने पूरे देश को ऑक्टोपस की तरह जकड़ रखा है। यहां तो जहां उखाड़ो या उघाड़ो, वही घोटाला निकलेगा। उत्तर प्रदेश राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) इसका उदाहरण है। यहीं तंत्र कांग्रेस से लेकर बीजेपी, बसपा और सपा जैसी पार्टियों के नेताओं, कार्यकर्ताओं व सहयोगियों की मौजमस्ती का पोषण करता है। इनका मतलब कतई लक्षित जनसमूह का हित करना नहीं होता।
हां, बीच-बीच में राजनीति का कोई नया मुल्ला 100 में से 15 पैसे के ही नीचे पहुंचने की बात जरूर कह देता है। लेकिन बाद में पता चलता है कि वो और उसके चंगू-मंगू तो रक्षा जैसे सुरक्षित व पवित्र समझे जानेवाले गोपनीय सौदों में दलाली खा रहे थे। कहीं जीजा मौज कर रहा है तो साला सिर्फ स्वांग के बल पर देश का संवैधानिक सिपहसालार बनने की तैयारी में है। एक बात गांठ बांध लें कि बजट महज टैक्स घटाने-बढ़ाने या धनराशि आवंटित करने का दस्तावेज नहीं होता। वह देश को सताती समस्याओं को सुलझाने के लिए साल के दौरान अपनाई जानेवाली नीतियों का घोषणापत्र भी होता है। लेकिन यहां तो जनधन की बंटरबांट चल रही है। जनता का धन जनता के हित में लगाने के बजाय जनधन को जितना ‘लूट सके तो लूट’ का उपक्रम चल रहा है।
अगला साल चुनावों का साल है तो जनता को उल्लू बनाने के लिए प्रचार तंत्र को कोई कमी न पड़े, इसके लिए चिदंबरम ने पूरा इंतज़ाम किया है। मनीष तिवारी के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का खर्च 12.6 फीसदी बढ़ाकर 3035 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इसमें भी सरकारी विज्ञापन व विजुअल पब्लिसिटी विंग का खर्च 50 फीसदी बढ़ा है, जबकि प्रसार भारती को 26 फीसदी ज्यादा आवंटन दिया गया है। मतलब, चुनावों से पहले यूपीए सरकार का झुनझुना कसकर बजाने का पुख्ता इंतज़ाम है।
यह बात भी नोट की जानी चाहिए कि देश के केंद्रीय बजट की बोली अंग्रेजी है। तमिल, तेलगू, मराठी, गुजराती, असमी, बंगाली, उड़िया या हिंदी जैसी कोई भारतीय भाषा नहीं। अंग्रेजी हर तबके का संभ्रांत वर्ग समझता है तो बजट का संप्रेषण पूरे देश में वहीं तक होता है। बाकी लोग तो बस इतना समझते हैं कि टैक्स कितना लग गया, क्या महंगा हुआ और क्या सस्ता। वित्त मंत्री क्या नीतियां अपनाने जा रहे हैं, यह न तो उनकी समझ में आता है और न ही मंत्री महोदय उन लोगों तक नीति का सार पहुंचाने की नीयत रखते हैं। यही है भारत का संसदीय लोकतंत्र और सत्ता व हाशिये पर बैठे लोगों का दरमियानी फासला। इस फासले को दूर किए बगैर देश में न तो सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा और न ही देश के प्राकृतिक व मानव संसाधनों का सारे देशवासियों के हित में समुचित व संतुलित इस्तेमाल।