।।विष्णु नागर।।
जिसे आज हम ज्योतिष के रूप में जानते हैं उसका महत्व नहीं होता, अगर हर मनुष्य में अपना भविष्य जानने की एक दबी हुई इच्छा हमेशा से नहीं रही होती। हालांकि विज्ञान की सारी प्रगति के बावजूद आज भी किसी व्यक्ति का भविष्य जानना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। यह इसलिए असंभव है कि व्यक्ति का भविष्य न तो पूरी तरह विज्ञान के नियम तय करते हैं, न पूरी तरह सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक स्थितियां और न व्यक्ति खुद। मनुष्य का भविष्य कई तरह के जटिल कारकों से तय होता है, जिनमें से कुछ पर व्यक्ति का वश होकर भी नहीं होता और कुछ पर उसका बिलकुल भी वश नहीं होता।
इसी तरह कई बार सैंकड़ों-हजारों लोगों का जीवन किसी एक दुर्घटना के कारण एक ही तरह से प्रभावित होता है जबकि उनका जन्म-समय और जन्म-कुंडलियां बेहद अलग-अलग होती हैं। इसी प्रकार संकट की किसी खास घड़ी में अचानक आप क्या निर्णय लेते हैं, इस पर भी आपका कई बार भविष्य ही नहीं, जीवन भी निर्भर होता है। कई बार आप अप्रत्याशित निर्णय लेते हैं और कई बार आप अपने स्वभाव के अनुसार अपेक्षित निर्णय लेते हैं और फायदे या नुकसान में रहते हैं। कई बार विकल्प का चुनाव बेहद मुश्किल होता है लेकिन विकल्प चुनने के लिए ज्यादा समय भी नहीं होता और अचानक आप कोई विकल्प चुन लेते हैं और वही निर्णायक बन जाता है। इसलिए भविष्य वास्तव में एक अंधा कुआं है, जिसमें तर्क और ज्ञान की रोशनी से झांकने की कोशिश तो की जा सकती है और वह कई बार सफल भी होती है, मगर फिर भी उसकी एक सीमा होती है।
इतनी सारी अनिश्चितताओं के बीच ज्योतिषी आपको यह भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे आपके भविष्य में झांक सकते हैं। लोग अन्य विकल्पों के अभाव में इस पर विश्वास करने की कोशिश करते हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि किसी के जीवन में जितनी ज्यादा अनिश्चितता बढ़ती जाती है, उतना ही ज्यादा उसका विश्वास ज्योतिष पर बढ़ता जाता है। हालांकि ज्योतिष और ज्योतिषियों की असफलताएं, उनकी सफलताओं के मुकाबले कई-कई गुना ज्यादा होती हैं। इस धरती पर शायद ही कोई ज्योतिषि होगा (और होगा तो यह किसी आश्चर्य से कम नहीं होगा ) जिसकी ज्यादातर भविष्यवाणियां गलत न साबित हुई हों।
यह अलग बात है कि ज्योतिषी सिर्फ उन्हीं भविष्यवाणियों को तमगे की तरह सजाते हैं जो कि उनके अनुसार सही सिद्ध हुई होती हैं। लेकिन कुछ भविष्यवाणियां ऐसी होती हैं जिनके लिए ज्योतिषी होने की जरूरत भी नहीं होती और ज्योतिषी भी अक्सर ऐसी भविष्यवाणियां करने के लिए किसी ज्योतिष नामक ज्ञान (या अज्ञान) का सहारा नहीं लेते। वे व्यक्ति की पृष्ठभूमि को या उसके आसपास के माहौल को देखते हैं और उसके आधार पर भविष्यवाणी कर देते हैं। उदाहरण के लिए, 2004 के लोकसभा चुनाव को लें। उस समय तमाम टीवी चैनल और राजनीतिक विश्लेषक यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ही फिर से सत्ता में आएगी तो लगभग सभी नामी ज्योतिषी भी यही बात कह रहे थे।
जाहिर है कि उन पर चुनाव सर्वेक्षणों का प्रभाव था, न कि ज्योतिष नामक किसी ‘शास्त्र’ का। लेकिन न तो चुनाव सर्वेक्षण करने वालों की और न राजनीतिक विश्लेषकों की पकड़ जनता की नब्ज पर थी। इसीलिए न तो वे सफल हो पाए और न ज्योतिषी। इसलिए यह कहना अतर्कसंगत नहीं होगा कि ज्योतिष समेत कोई ऐसा शास्त्र आज तक हमारे पास नहीं है जो व्यक्ति समाज या देश का भविष्य निश्चित रूप से बता सके। यह काम कुछ सीमा तक एक अच्छा विश्लेषक ही कर सकता है, जिसके पास अधिकतम तथ्य हों, ऐतिहासिक-वैज्ञानिक दृष्टि हो, तर्कसंगतता हो और उसका दिमाग पूर्वाग्रहों से रहित हो।
लेकिन क्या अपना भविष्य जानना सचमुच आनंददायक बात है? शायद नहीं है, क्योंकि भविष्य में सब कुछ अच्छा ही नहीं होता, उसमें बुरा भी होता है। उसमें सरलता-सफलता होती है तो उलझने और कठिनाइयां भी होती हैं। मान लीजिए, राजीव गांधी को यह पता होता कि वे भविष्य में प्रधानमंत्री बनेंगे, मगर अपनी मां की हत्या के बाद ही उन्हें यह अवसर मिलेगा तो क्या वे ऐसे भविष्य को जानकर प्रसन्न होते? अगर यह शत-प्रतिशत पूर्व-निश्चित होता कि इंदिरा गांधी की हत्या होगी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे तो उससे जो असहायता राजीव गांधी में पैदा होती क्या वह उन्हें एक संतुलित व्यक्ति बना रहने देती?
मान लीजिए, भारतीय जनता पार्टी को यह पता होता कि उसे छह महीने बाद चुनाव भी कराना होगा और उसमें उसकी हार भी निश्चित रूप से होगी तो क्या ऐसा भविष्य-दर्शन वह पसंद करती? इसलिए भविष्य को पूरी तरह न जानने में ही शायद मनुष्य की ज्यादा भलाई है, क्योंकि जब सब कुछ पहले से ही तय है तो जीवन जीने में फिर आनंद क्या है? यह तो ठीक है कि मौत का एक दिन मुअय्यन है, मगर वह कौन-सा दिन है, यह रहस्य बना हुआ है और इसके रहस्यमय होने में ही जीवन की आशा है। भविष्य निश्चित होता तो आने वाले संकटों से कोई क्यों लड़ता? अगर हारना तय होता तो हारने वाला, जीतने के लिए जान क्यों लड़ाता? अगर हिटलर की जीत और हार पहले से तय होती तो उसके खिलाफ लाखों लोग अपनी जान क्यों देते और किस सिद्धांत के लिए देते? कोई क्यों चीखता, अगर उसे पता होता कि कभी उसकी चीख सुनी नहीं जाएगी? कोई क्यों अपने में तमाम तरह के परिवर्तन लाता, अगर उसे पता होता कि इसका कोई असर नहीं होने वाला है? अगर बिसमिल्ला खां या रविशंकर को पता होता कि उन्हें भारतरत्न और तमाम सम्मान मिलना पहले से तय है तो फिर उन्हें बड़ा कलाकार बनने के लिए क्या प्रेरित करता?
हमें भविष्य नहीं मालूम, इसीलिए हमें यह भरोसा होता कि हम साधारण होकर भी अपना और मनुष्य जाति का भविष्य कुछ हद तक गढ़ सकते हैं। हमें अपना भविष्य नहीं मालूम, इसलिए हम तमाम संकल्पों विकल्पों में से गुजरते हैं और उसके बाद ही कुछ तय करते हैं। अगर भविष्य दृढ़ और निश्चित होता तो मनुष्य इतना रहस्यमय, जटिल, कल्पनाशील क्यों होता? यह भी सच है कि जब भी मनुष्य कुछ नया रचता है तो उसकी भी एक पृष्ठभूमि होती है, आधार होता है, यह किस्मत का खेल या संयोग मात्र नहीं होता। जब आइंस्टीन ने सापेक्षता का सिद्धांत खोजा तो उसके पीछे विज्ञान की तब तक की प्रगति पृष्ठभूमि थी। अगर आज अंतरिक्ष विज्ञान में हम इतना आगे बढ़ सके हैं तो इसलिए कि हमने इस भ्रम से आज से सैकड़ों वर्ष पहले मुक्ति पा ली थी कि ब्रम्हाण्ड के केंद्र में पृथ्वी है और सारे ग्रह और उपग्रह पृथ्वी का ही चक्कर लगाते हैं।
भविष्य की अनिश्चितता हमारी प्रेरणा है, हमारी शक्ति है, हमारी संघर्षशीलता का आधार है। वही हमारी कल्पनाशीलता को प्रेरित करती है। हमारे चिंतन को वही गहराई देती है। वही हमें बदलने या न बदलने के लिए बाध्य करती है। वही हमें निश्चय-अनिश्चय के बहाव में फंसाती है। अनिश्चय में जितना सौंदर्य है, निश्चय में उतनी ही कुरूपता है। मनुष्य इतना रहस्यमय, दिलचस्प प्राणी इसलिए है कि वह कई बार निश्चय कुछ करता है और वास्तव में करता कुछ और है। और, कई बार वह जो निश्चय नहीं करता, वही उसके साथ हो जाता है और उससे उसके सामने अलग परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं। इसलिए अपने भविष्य की अनिश्चितताओं के लिए मनुष्य खुद भी बहुत जिम्मेदार होता है और यह उसका स्वभाव है, उसकी सृजनशीलता है। इसमें सुविधा है कि वह अपनी गलतियों का अहसास कर सके, अपनी असफलता से सीख सके और अपनी सफलता को एक नई ऊंचाई पर ले जा सके और सब कुछ ईश्वर पर या ज्योतिषियों पर न छोड़ दे।
(विष्णु नागर की किताब ‘आदमी और उसका समाज’ का यह लेख हमने संशयवादी विचारक ब्लॉग से साभार लिया है)