प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अंतरिम बजट को समावेशी व इनोवेटिव बताया है। मगर यह न तो समोवेशी है और न ही इनोवेटिव। जिस विकास में रोज़गार ही नहीं बन रहा, वो समावेशी कैसे हो सकता है? खुद सरकार के आवधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार देश में नियमित वेतन वाला रोज़गार पांच साल से ठहरा हुआ है। अधिकांश रोजगार जो बना है, वो अवैतनिक पारिवारिक श्रम या प्रछन्न बेरोज़गारी है। कृषि में वास्तविक मजदूरी घटी है। ये आंकड़े साफ दिखाते हैं कि जिस शानदार-जानदार विकास के दावे किए जा रहे हैं, उसके लाभार्थी परजीवी, दलाल, मुनाफाखोर और सरकारी योजनाओं के ठेकेदार हैं। ये आबादी का बमुश्किल 10% हिस्सा हैं। जब 10% आबादी के पास ही देश की 77% दौलत हो तो कोई अंधा भी इसे समावेशी नहीं कहेगा। रही इनोवेटिव होने की बात तो बजट में निजी क्षेत्र में शोध व अनुसंधान (आर एंड डी) को बढ़ाने के लिए ₹1 लाख करोड़ का कोष बनाने का प्रस्ताव है। अगर इससे देश में औद्योगिक आर एंड डी बढ़ जाए तो क्या बात! वर्तमान सच्चाई यह है कि भारत में दशकों से आर एंड डी का खर्च जीडीपी के 0.6% से 0.8% पर अटका पड़ा है। 1996 में भारत और चीन, दोनों का यह खर्च जीडीपी का 0.8% हुआ करता था। लेकिन अभी चीन का यह खर्च बढ़कर जीडीपी का 2.2% है, जबकि भारत का घटकर 0.6% हो चुका है। अब बुधवार की बुद्धि…
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