कहते हैं कि शेयर बाज़ार अर्थव्यवस्था के बारे में भविष्य की वाणी बोलता है और उसकी मानें तो हमारी अर्थव्यवस्था बम-बम करती जा रही है। साल 2017 के पहले से लेकर आखिरी ट्रेडिंग सत्र तक शेयर बाज़ार का प्रमुख सूचकांक, सेंसेक्स 28.1 प्रतिशत बढ़ा है। अगर इस रफ्तार से किसानों की आय बढ़ जाए तो वह पांच साल नहीं, 2.8 साल में ही दोगुनी हो जाएगी। लेकिन बाज़ार की आदर्श स्थितियों के लिए बनाए गए पैमाने अक्सर ज़मीनी हकीकत से टकराकर टूट जाया करते हैं।
हकीकत यह है कि खेती-किसानी में बहुत उत्साह की स्थिति नहीं दिख रही। रबी सीजन की मुख्य फसल गेहूं की बोवाई अभी तक कम हुई है, खासकर मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में। इन राज्यों में मटर, ज्वार, बाजरा व सरसों का रकबा भी घटा है। इनमें से दो राज्यों – राजस्थान व मध्य प्रदेश में नए साल के अंत तक विधानसभा चुनाव होने हैं। यह भी गौरतलब है कि 1 फरवरी 2018 को पेश किया जानेवाला बजट मोदी सरकार का आखिरी पूर्ण बजट होगा। चूंकि अप्रैल-मई 2019 के दौरान नई लोकसभा के चुनाव होने हैं। इसलिए केंद्र सरकार तब पूर्ण बजट के बजाय लेखानुदान ही पेश कर पाएगी। इस सूरत में नए साल में अर्थव्यवस्था का हाल निश्चित रूप से राजनीतिक सरोकारों से प्रभावित होगा।
राजनीतिक रूप से अन्य संवेदनशील आर्थिक मसला है बेरोज़गारी का। चुनौती यह है कि कैसे हर साल रोज़गार की लाइन में लगनेवाले डेढ़ से दो करोड़ युवक-युवतियों के लिए काम-धंधे के नए अवसर पेश किए जाएं। आंकड़े देने की ज़रूरत नहीं क्योंकि सरकार असलियत जानती है और आम लोग प्रत्यक्ष अनुभव से जानते हैं कि रोजी-रोज़गार का हाल अच्छा नहीं चल रहा। अहम सवाल है कि नए साल में क्या इसमें कोई चमत्कारिक परिवर्तन आएगा। न भी आए तो शेयर बाज़ार जिस तरह उम्मीद से बम-बम कर रहा है, उस तरह की किसी आशा का विस्फोट होना चाहिए या कम से कम कोई किरण तो दिखनी ही चाहिए।
यह किरण तभी दिखेगी, जब देश के औद्योगिक हालात में सुधार आएगा। सुखद बात यह है कि ऐसा सुधार दिखने लगा है। दस सालों से हमारे ताप-बिजली संयंत्रों में क्षमता इस्तेमाल या प्लांट लोड फैक्टर का जो स्तर बराबर गिर रहा था, वह चालू वित्त वर्ष 2017-18 में अप्रैल से अक्टूबर तक के सात महीनों में बढ़कर 65 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इसका साफ मतलब है कि बिजली की मांग बढ़ रही है जिसका सीधा रिश्ता औद्योगिक गतिविधियों में आ रही तेज़ी से है।
औद्योगिक गतिविधियों में सुधार का दूसरा संकेत यह है कि बैंकों का गैर-खाद्य ऋण ठीकठाक गति से बढ़ने लगा है। रिजर्व बैंक के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक 10 नवंबर 2017 के पखवाड़े में यह ऋण 8.6 प्रतिशत बढ़ा है जबकि साल भर पहले की समान अवधि में यह 7.5 प्रतिशत बढ़ा था। रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल का कहना है कि आर्थिक विस्तार का चक्र सामान्य रफ्तार पकड़ता जा रहा है। वैसे, चिंता की बात बस इतनी है कि कृषि ऋण अभी तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाया है।
असल में बैंक ऋण के प्रवाह का धीमा पड़ना बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए शुभ नहीं होता। सरकार इसीलिए पुरज़ोर कोशिश में लगी है कि बैंकों के डूबत ऋणों या एनपीए की समस्या जल्दी से जल्दी सुलझ जाए।। हालांकि रिजर्व बैंक की ताज़ा वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि बैंकों के सकल एनपीए को जो स्तर मार्च से सितंबर 2017 तक छह महीनों में 9.6 प्रतिशत से बढ़कर 10.2 प्रतिशत तक पहुंचा है, आर्थिक हालात न सुधरे तो वह मार्च 2018 तक 10.8 प्रतिशत और सितंबर 2018 तक 11.1 प्रतिशत हो सकता है।
यह बड़ी चुनौती है सरकार के सामने। साथ ही एक और गंभीर चुनौती है जिस पर अर्थशास्त्री और देशी-विदेशी रेटिंग एजेंसियां काफी हल्ला मचा सकती हैं। वो है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सरकार की कुल बाजार उधारी या राजकोषीय घाटे के अनुपात का बढ़ जाना। चालू वित्त वर्ष 2017-18 में सरकार की कुल बाज़ार उधारी 5.8 लाख करोड़ रुपए रहनी थी। लेकिन हाल ही में उसने नए बांड जारी करके 50,000 करोड़ रुपए और जुटा लिए जिससे उसकी कुल बाज़ार उधारी 6.3 लाख करोड़ रुपए हो गई है। इसके चलते हो सकता है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.2 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य न पूरा कर पाएं और वो बढ़कर 3.5 प्रतिशत हो जाए। ऐसा होने पर नए वित्त वर्ष 2018-19 में उसे जीडीपी के 3 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य भी खटाई में पड़ सकता है। अंत में उनके लिए बस इतना कहा जा सकता है कि बड़ी कठिन है डगर पनघट की।
(यह लेख 31 दिसंबर 2017 को दैनिक जागरण के ‘मुद्दा’ पेज़ पर छपा है)