।।प्रणव मुखर्जी।।
भारत आज उस मुकाम पर है जहां कुछ भी करना या पाना असंभव नहीं लगता। साथ ही बहुत सारी चुनौतियां भी हमारे सामने हैं जिन्हें सुलझाकर ही हमने इस दशक के अंत तक विकसित देश के रूप में उभर सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी चुनौती है युवा भारत की बढ़ती अपेक्षाएं। यह आबादी का वो हिस्सा है जो बेचैन है। फिर भी डटा हुआ है और सामने आनेवाले हर अवसर को पकड़ने को तैयार है। यह हमारे लिए मजबूत वजह है कि हम निरंतर नए अवसरों का सृजन करते रहें, उन्हें कायम रखें और बढ़ाते रहें। और, इसके लिए सार्वजनिक जीवन में हम जितने भी लोग सक्रिय है, उन्हें अपनी-अपनी सामर्थ्य भर अपनी भूमिका निभानी है।
सभ्यता की पहली किरण से लेकर अब तक व्यापार और वित्त हमेशा इंसान की जद्दोजहद के केंद्र में रहा है। अस्तित्व, आत्मसंरक्षण और व्यवस्था व निश्चितता की चाह इंसानी की जरूरत है और यह जीवन के मूल्य की परोक्ष मान्यता से संचालित होती है। इंसान अपने अस्तित्व और उसके बने रहने में मूल्य देखता है। यही बात आत्म-प्रक्षेपण, उत्पादन और प्रगति की उसकी चाहत के बारे में भी सही है। भारत में आज जीवन के इन पहलुओं के बारे में दिलचस्पी बढ़ रही है।
अवाम में आर्थिक और वित्तीय साक्षरता हासिल करने की ख्वाहिश बढ़ गई है। वित्तीय बाजारों की मामूली-सी फड़फड़ाहट भी लोगों में बेचैनी और हड़बड़ी पैदा कर देती है। कीमतों में जरा-सी वृद्धि भावनात्मक उबाल और कभी-कभी तो सामाजिक अशांति का सबब बन जाती है। देश के बजट का बड़ी बेसब्री से इंतजार किया जाता है और यह दरअसल सृजनात्मक सुगबुगाहट व बहस का उत्सव जैसा बन गया है। मुद्रास्फीति, ब्याज दरें, शेयर सूचकांक, जीडीपी और टैक्स की दरों जैसे मुद्दे लोगों की रोज-ब-रोज की चर्चा के हिस्सा बनने लगे हैं। लोगबाग स्थिरता व व्यवस्था में मूल्य देखते हैं और वाजिब, तर्कसंगत व सही सामाजिक-आर्थिक नीतियों की अपेक्षा करते हैं।
करीब डेढ़ दशक पहले भारत की जो विकासगाथा शुरू हुई थी, वह अब महज ‘चमत्कार’ नहीं रह गई है, बल्कि देश के सामूहिक मानस व सोच का हिस्सा बन गई है। रोजगार के क्षेत्र में बेहतर अवसर, बाजार में उत्पादों की गुणवत्ता व विविधता, टैक्स देने की ज्यादा क्षमता व इच्छा, मूल्य नियंत्रण व जोखिम प्रबंधन के क्षेत्र में बढ़ती रिसर्च व अध्ययन, बीमा क्षेत्र व अन्य सेवाओं का बढ़ता दायरा और नए वित्तीय प्रपत्रों का विकास – ये सब वक्त की बदलती करवट व नई निश्चयात्मकता के प्रमाण हैं।
आज के दौर में उदारीकरण, वैश्वीकरण, तकनीकी नवोन्वेष (टेक्नोलॉजिकल इन्नोवेशन) महज शब्द नहीं रह गए हैं। ये सब जीवन की वास्तविकता बन गए हैं जिनसे लोगों का रोज साबका पड़ता है और बाजार शक्तियां इन्हें इस अंदाज में जज्ब कर चुकी हैं कि कभी-कभी इन पर हमारा व्यक्तिगत वश ही नहीं चलता। आज चुनौती इस बात की है कि हम इन बदलावों का वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण करें और जहां व जब भी जरूरत हो, उन्हें इस तरह नियंत्रित व दिशाबद्ध करें ताकि व्यापकतम लोगों का व्यापक हित सध सके।
वास्तव में, वैश्विक होती दुनिया में, आम तौर पर विकास और खास तौर पर लंबे वक्त तक ऊंची विकास दर को कायम रखने की चुनौतियां व अवसर पहले से कहीं ज्यादा जटिल हो गए हैं। हमारे घरेलू सरोकारों पर वैश्विक घटनाक्रमों के बढ़ते प्रभाव ने जरूरी बना दिया है कि हम राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के व्यापक राजनीतिक व आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए अपने सभी संसाधनों और नीति संबंधी विकल्पों का इस्तेमाल करें। आज यह काम हम बेहतर तरीके से कर रहे होते बशर्ते 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट ने नई मुश्किलें न पैदा कर दी होतीं।
इस संकट और उससे उपजी आर्थिक सुस्ती ने अंतरराष्ट्रीय नीति-निर्धारण व नियमन, जोखिम प्रबंधन और अंतरराष्ट्रीय विकास सहयोग की नाजुक कमियों को उजागर किया है। इसने अंतरराष्ट्रीय निर्णय और जवाबदेही की प्रक्रिया के बारे में तमाम ऐसे सवाल खड़े कर दिए हैं जिनका विकासशील देशों के लिए जरूरी वैश्विक आर्थिक परिवेश से सीधा वास्ता है। इसने वित्तीय क्षेत्र समेत तमाम आर्थिक सुधारों, अर्थव्यवस्था को ज्यादा प्रतिस्पर्धी बनाने और नए हालात में आर्थिक नियमन व निगरानी व्यवस्था को ज्यादा दक्ष व संवेदनशील बनाने के महत्व को रेखांकित किया है।
अर्थशास्त्र में चाणक्य जब कहते हैं – कोषो मूलो दंडाः, तब वे इस महत्वपूर्ण तथ्य पर जोर दे रहे होते हैं कि राजकोष व उसका अंतःप्रवाह किसी भी देश की शक्ति का स्रोत होता है। ऐतिहासिक रूप से प्रत्यक्ष कर प्रशासन का जोर विधान के अधिकतम पालन पर रहा है ताकि कर राजस्व व उसके संग्रह को अधिकतम किया जा सके। लेकिन सिद्धांत और व्यवहार दोनों ही इस बात के गवाह हैं कि इससे अपेक्षित नतीजे नहीं हासिल हुए हैं। कर के दायरे में आनेवाले को अब दुश्मन नहीं समझा जाता। प्रतिबद्ध करदाता हमारी अर्थव्यवस्था के विकास के इंजन हैं। इसलिए जहां उनकी सहूलियत बढ़ाई जानी चाहिए, वही कर चुकाने से जान-बूझकर बचनेवालों और करचोरों को सजा दी जानी चाहिए। हमें बदलते वक्त और जरूरतों के हिसाब अपने सिस्टम को बेहतर बनाना होगा। इसके लिए हमें बाकी दुनिया के भी अच्छे अनुभवों से सीखना होगा।
– वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा 3 मार्च 2011 को नई दिल्ली में भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) के नए चयनित अधिकारियों के 64वें बैच के प्रशिक्षण कार्यक्रम में दिए गए भाषण के संपादित अंश
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