ऑप्शन के भाव निकालने के अलग-अलग मॉडल हैं। हमने बायनॉमिअल मॉडल पर नज़र डाल ली। अब ब्लैक-शोल्स मॉडल को गहराई से समझने की बारी है। साथ ही एडिसन ह्वेल (Adison Whaley) मॉडल भी है। कोई इस मॉडल को परिष्कृत बताता है तो कोई उसे। पर हमें उसी मॉडल को लेना चाहिए जिसकी गणना आसानी से की जा सके। बायनॉमिअल मॉडल में प्रायिकता से लेकर बांड के रिटर्न के साथ मिलान जैसी ऐसी उलझनें हैं कि माथा घूम जाए।
हालांकि ब्लैक-शोल्स मॉडल में भी कम जटिलता नहीं है। लेकिन उसके साथ सबसे बड़ा फायदा है कि उसकी गणना का पूरा फॉर्मूला या सूत्र एक्सेल शीट पर मिल जाता है। इसे आप आसानी से अपने कंप्यूटर पर डाउनलोड करके रख सकते हैं। फिर उसमें स्टॉक या इंडेक्स का अभी का मूल्य, ऑप्शन का स्ट्राइक मूल्य, उसकी एक्सपायरी तिथि, वोलैटिलिटी, रिस्क-फ्री ब्याज की दर और अगर स्टॉक हो तो उसकी लाभांश यील्ड डाल दें तो एक्सेल शीट पर सारी गणना अपने-आप हो जाती है और आपको कॉल और पुट दोनों के ऑप्शन का भाव सबसे नीचे की लाइन में गिनकर आ जाता है।
फिर आप उसकी तुलना स्टॉक एक्सचेंज में अभी चल रहे भाव से कर सकते है और देख सकते हैं कि यह गणना वास्तविक भाव से कितनी करीब या दूर है। इस फॉर्मूले के छह कारकों में से चार तो आसान हैं। केवल दो में दुविधा व उलझन रहती है। इनमें से एक है रिस्क-फ्री ब्याज की दर। हालांकि ऑप्शन के भाव पर इसका बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसलिए सुविधा के लिए इसे आप बचत खाते पर मिल रही सालाना ब्याज दर 3.5% को ले सकते हैं। वैसे, यह भारत सरकार के बांड पर यील्ड की दर मानी जानी चाहिए, जो अभी 6% के आसपास चल रही है।
दूसरा उलझन वाला कारक है वोलैटिलिटी। यह वो आंकडा है जो दिखाता है कि हर दिन स्टॉक या सूचकांक कितना इधर-उधर होता है। फिर निश्चित अवधि में स्टैंडर्ड डेविएशन निकालकर इसकी गणना करते हैं। वैसे तो स्टॉक से लेकर सूचकांक तक की वोलैटिलिटी एनएसई अपनी बेवसाइट पर हर दिन देता है। ऊपर ही संबंधित आस्ति के ताज़ा मूल्य के साथ उसकी इम्प्लायड वोलैटिलिटी, डेली वोलैटिलिटी और एनुअलाइज्ड या सालाना वोलैटिलिटी दी रहती है। लेकिन अगर हमें ऑप्शन ट्रेडिंग करनी है तो वोलैटिलिटी की अवधारणा को कायदे से समझना होगा। मोटे तौर पर अगर किसी आस्ति की वोलैटिलिटी ज्यादा होती है तो उसमें उतार-चढ़ाव की गुंजाइश ज्यादा होती है और उसके ऑप्शन का भाव या प्रीमियम अधिक होता है।
देखते हैं कि वोलैटिलिटी की अवधारणा क्या है? इसे हम समझने के लिए चंचलता कह सकते हैं। यह दिखाता है कि कोई स्टॉक या सूचकांक कितनी उछल-कूद मचाता है। इसे हम उसके रोज़ाना के रिटर्न के स्टैंडर्ड डेविएशन से मापते हैं। स्टैंडर्ड डेविएशन यह दिखाता है कि किसी डेटा का उतार-चढ़ाव उसके औसत से कितना उधर-उधर होता है। मसलन, अगर हम देश के लोगों की ऊंचाई की बात करें तो वह औसत से बहुत ज्यादा उधर-उधर नहीं होती है तो उसका स्टैंडर्ड डेविएशन कम हुआ। वहीं, अगर देश में लोगों की आमदनी की बात करें तो उसमें औसत से बहुत ज्यादा ऊपर-नीचे होता है तो उसका स्टैंडर्ड डेविएशन बहुत ज्यादा हुआ।
स्टैंडर्ड डेविएशन की गणना के लिए हम रोज के रिटर्न से औसत का अंतर या डेविएशन निकालते हैं। फिर उसका वर्ग निकालते हैं। मान लीजिए, दस दिन का डेटा लिया है तो उन सभी दिनों के डेविएशन के वर्ग को जोड़ देते हैं और इस योगफल को दस से भाग दे देते हैं। इस योग का वर्गमूल ही स्टैंडर्ड डेविएशन होता है। चूंकि हमने रोज के रिटर्न का स्टैंडर्ड डेविएशन निकाला है तो इसे डेली या दैनिक वोलैटिलिटी कहा जाता है।
उदाहरण के लिए, आज 7 मई 2020 को एक्सपायर हो रहे निफ्टी में 9300 स्ट्राइक मूल्य के कॉल ऑप्शन की डेली वोलैटिलिटी 3.5 प्रतिशत है, जबकि सालाना वोलैटिलिटी 66.86 प्रतिशत है। साल के 365 दिनों के वर्गमूल को जब हम दैनिक वोलैटिलिटी से गुणा कर देते हैं तो सालाना वोलैटिलिटी निकल आती है। मान लीजिए कि इस कॉल ऑप्शन में अगले नौ दिनों की वोलैटिलिटी निकालनी है तो वह 3.5 x 3 = 10.5 प्रतिशत बनती है।
वोलैटिलिटी के आंकडे को हमेशा सांख्यिकी की नॉर्मल डिस्ट्रीब्यूशन की अवधारणा से जोड़कर व्याख्यायित या इस्तेमाल किया जाता है। इसका क्या चक्कर है, इसे हम आगे समझेंगे। साथ ही देखेंगे कि एनएसई एक और वोलैटिलिटी का आंकडा देता है। वो है इम्प्लायड वोलैटिलिटी। आखिर यह क्या बला है और उसे कैसे निकाला जाता है?