जगन्नाधम तुनगुंटला
अंग्रेजी में एक वाक्य चलता है कि देयर इज नो ऑल्टरनेटिव यानी टीआईएनओ जिसे लोग टिना कहने लगे हैं। इस समय दुनिया में अमेरिका का वर्चस्व खत्म हो रहा है। लेकिन चूंकि कोई विकल्प नहीं है, इसलिए अमेरिका को सिर पर बैठाए रखने की मजबूरी है। साल 2008 में कंपनियां दीवालियां हुईं। अब देश डिफॉल्ट करने लगे हैं। सिलसिला आइसलैंड से शुरू हुआ, फिर दुबई से होता हुआ ग्रीस जा पहुंचा। फिर पुर्तगाल, आइसलैंड, ग्रीस व स्पेन की पूरी कड़ी बन गई, जिसे लोग संक्षेप में पिग्स कहने लगे। लेकिन इस शब्द का सूअरों से कोई लेना-देना नहीं है। ब्रोकर फर्म एसएमसी के ग्लोबल के इक्विटी प्रमुख जगन्नाधम तुनगुंटला अपने इस लेख में दुनिया की मौजूदा हालत की समीक्षा कर रहे हैं।
जब दीवालियापन का जहर व्यवस्था के इर्दगिर्द फैलता है तो इसके सबसे पहले शिकार सबसे कमजोर ही बनते हैं। हाल में यही हुआ जब यूरोप में ग्रीस से लेकर पुर्तगाल, आइसलैंड व स्पेन तक इसकी चपेट में आ गए। अब तो ब्रिटेन व अमेरिका भी ज्यादा दूर नहीं नजर आते। साल 2008 के तरलता संकट ने विश्व अर्थव्यवस्था को ध्वंस की कगार पर पहुंचा दिया। इसका कोई स्थाई समाधान निकालने के बजाय सरकारों ने सिस्टम में नकदी झोंककर काम चलाया। अकेले अमेरिका ने 12.8 लाख करोड़ डॉलर का स्टिमुलस पैकेज पेश किया है। यह रकम पूरी दुनिया के जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की करीब 40 फीसदी है।
लेकिन इतनी तरलता या लिक्विडिटी से हमने समस्या को बस टाला भर है, उसे सुलझाया नहीं है। इससे हुआ यह कि जरूरत से ज्यादा पैर फैलाने का जो संकट कॉरपोरेट संस्थाओं की बैलेंस शीट में था, वह वहां से निकलकर अब धीरे-धीरे सरकारों के खाते में आ रहा है। यह सरकारों के भारी वित्तीय घाटे के रूप में झलक रहा है। ऐसा ही 1918 में पहले विश्व युद्ध के बाद हुआ था जब लगभग सभी सराकारों ने नोट छापकर तरलता बढ़ाई थी और घाटे के दलदल में धंस गए थे। 1920 के दशक के मध्य तक हालात सुधरते दिखाई दिए। केंद्रीय बैंकों को लगा कि वे पहले विश्व युद्ध के असर से निपट सकते हैं। लेकिन इन कदमों का साइड इफेक्ट जहर की तरह अर्थव्यवस्थाओं को गलाता रहा। असर पहले विश्व युद्ध के पूरे 11 साल बाद 1929 की महामंदी के रूप में सामने आया।
उस महामंदी में अमेरिका के 2000 से ज्यादा बैंक डूब गए और वहां बेरोजगारी की दर 25 फीसदी तक जा पहुंची। डाउ जोंस ऐसा गिरा कि पूरे 25 साल बाद 1954 में अपने पुराने शिखर पर लौटा। इसलिए सवाल उठता है कि क्या 2008 में हमने जो संकट देखा था, वो असली संकट है या इस संकट से निजात पाने के लिए जो भारी तरलता सिस्टम में झोंकी गई है, वह आगे आनेवाले असली संकट की जमीन तैयार कर रही है?
फिलहाल तो स्थिति यह है कि भारी भरकम स्टिमुलस पैकेज से ब्रिटेन में सरकारी उधारी की मात्रा जीडीपी के बराबर हो गई है और इतिहास में पहली बार ऐसा हो रहा है कि स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने ब्रिटेन की रेटिंग में भारी कमी का अंदेशा जता दिया है। अगले 18 महीनों में ब्रिटेन की रेटिंग स्टैबल से निगेटिव हो सकती है। उधर जापान पर कर्ज का बोझ अगले साल तक जीडीपी का 197 फीसदी हो जाने का अनुमान है। मूडीज ने जापान की रेटिंग कई पायदान नीचे खिसका दी है। ऐसे में दुनिया के वित्तीय बाजारों को सावधान हो जाना चाहिए। अमेरिका की भी रेटिंग गिरने का अंदेशा दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अमेरिका में सरकारी घाटा 1.4 लाख करोड़ डॉलर के साथ जीडीपी के 11.2 फीसदी तक जा पहुंचा है जो पिछले 60 सालों का रिकॉर्ड स्तर है।
नए साल 2010 के बजट में अमेरिकी सरकार का अनुमान है कि उसका कर्ज दो साल के भीतर जीडीपी के 100 फीसदी से अधिक हो जाएगा। अमेरिका अपने कर्ज के लिए एशियाई देशों पर बहुत ज्यादा निर्भर है। अमेरिका के कुल ट्रेजरी बांडों का 50 फीसदी से ज्यादा हिस्सा चीन और जापान के पास है। अगर एशिया के केंद्रीय बैंकों ने अमेरिका के लाखों डॉलर के बांडों को निकालना शुरू कर दिया, तो डॉलर जमींदोज हो सकता है। यही वजह है कि ब्रिटेन और जापान की रेटिंग घटाने के फौरन बाद अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी गीथनर ने एशिया के केंद्रीय बैंकों को भरोसा दिलाया कि अमेरिका में उनका निवेश एकदम सुरक्षित है।
लेकिन दुनिया के वित्तीय बाजार अमेरिकी सरकार की रेटिंग घटने की आशंका को लेकर काफी घबराए हुए हैं। बात यह भी है कि एशियाई देशों को ब्रिटेन या जापान की रेटिंग घटने से खास फर्क नहीं पड़ा क्योंकि वहां इनका निवेश मामूली है। लेकिन अमेरिका की रेटिंग में कमी उनके भारी भरकम निवेश में पलीता लगा सकती है। वैसे अमेरिका की रेटिंग घटाने के लिए भारी कलेजा चाहिए क्योंकि इसके बाद दुनिया में भयंकर भूचाल आ सकता है। हाल में ब्राजील, चीन, रूस व जापान की तरफ से आई टिप्पणियों से यही लगता है कि अमेरिका फिलहाल दुनिया के निवेशकों के बीच विश्वास के संकट का सामना कर रहा है। यह भी अहम बात है कि ब्राजील और चीन ने डॉलर से घटकर अपनी मुद्राओं में व्यापारिक सौदे निपटाने पर चर्चा की है।
खैर, ऐसी कोई बात हाल-फिलहाल नहीं होनेवाली है। हम इसे पसंद करें या न करें, हमारी पूरी मौजूदा वैश्विक वित्तीय प्रणाली डॉलर के इर्दगर्द बुनी हुई है। हो सकता है कि इसे बदलने का वक्त आ गया हो, लेकिन क्या इसका कोई विकल्प है? इतना जरूर है कि दुनिया के वित्तीय समुदाय में अमेरिका मुद्रा के प्रति असहजता बढ़ती जा रही है। दिक्कत यह है कि अमेरिका के आर्थिक प्रभुत्व और उसकी नेतृत्वकारी भूमिका का कोई सार्थक विकल्प नजर नहीं आ रहा। इसी बात ने अमेरिका की स्थिति को सुरक्षित रखा है। वरना, कुछ भी हो सकता था।
दुनिया के लिए अब तो मामला वित्तीय संकट से निकलकर नेतृत्व के संकट तक आ गया है। अमेरिका के बारे में सोचते हुए हमें ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार निऑल फर्ग्युशन का यह वाक्य याद रखना चाहिए कि साम्राज्य बगैर कोई चेतावनी दिए अचानक ध्वस्त हो जाते हैं। ऐसा जब भी होगा तो भारत या किसी भी देश के लिए इसके असर से बच पाना मुश्किल होगा क्योंकि दुनिया का वित्तीय तंत्र आपस में जुड़ गया है, उसकी आपसी निर्भरता बढ़ गई है, सभी के तार आपस में बुरी तरह मिल गए हैं। ऐसे में अगर किसी के मन में ख्याल आता है कि उसे दलाल स्ट्रीट में दिल-दिमाग खपाने के बजाय हरिद्वार में जाकर धुनी रमा लेनी चाहिए तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसका दिमाग चल गया है।