अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को कायदे से कर्ज मिलता रहे, इसके लिए रिजर्व बैंक 1980 के दशक के आखिर-आखिर तक बैंकों द्वारा दिए जानेवाले उधार की मात्रा से लेकर उसकी ब्याज दर तक पर कसकर नियंत्रण रखता था। 1990 में दशक के शुरुआती सालों में वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के तहत वाणिज्यक बैंकों की उधार दरों से नियंत्रण हटाने के लिए तमाम कदम उठाए गए। पहला, अप्रैल 1993 में तय ब्याज दरों पर कितना उधार दिया जाना है, इसके स्लैब घटाकर तीन कर दिए गए। दूसरा, अक्टूबर 1994 में प्राइम लेंडिंग रेट (पीएलआर) की प्रणाली शुरू की गई। पीएलआर वह ब्याज दर थी जो बैंक के सबसे भरोसेमंद व अच्छे ग्राहक से ली जानी थी। पीएलआर प्रणाली में भी आगे कई सुधार होते रहे। इकलौती पीएलआर से कई पीएलआर और फिर बेंचमार्क पीएलआर (बीपीएलआर)।
इस दौरान एक और अहम चीज हुई अप्रैल 1995 में, जब बैंक उधार की डिलीवरी के लिए ‘लोन सिस्टम’ शुरू किया गया। इसका मकसद था कि बैंक से मिंले उधार के इस्तेमाल में ज्यादा अनुशासन लाया जाए। फिर रिजर्व बैंक ने 2 लाख रुपए से अधिक के ऋणों के लिए पीएलआर को न्यूनतम ब्याज दर रखने की अनिवार्यता में ढील दे दी। अप्रैल 2001 से वाणिज्यिक बैंकों को 2 लाख रुपए से अधिक के ऋण पीएलआर से कम (सब-पीएलआर) ब्याज पर देने की इजाजत दे दी गई। लेकिन पीएलआर की व्यवस्था अर्थव्यवस्था में ब्याज दरों की बदलती दिशा के अनुरूप लचीलापन नहीं दिखा सकी। इस समस्या को सुलझाने के लिए अप्रैल 2003 में बीपीएलआर की पद्धति अपनाई गई।
लेकिन बीपीएलआर प्रणाली ने हकीकत में जो रूप अख्तियार किया, उससे सोचा गया मकसद पूरा नहीं हो सका। अधिक तरलता और होड़ ने ऐसी सूरत पैदा कर दी जब बैंक अपने कर्ज का प्रमुख हिस्सा बीपीएलआर से कम ब्याज पर देने लगे और संदर्भ दर या बेंचमार्क के रूप में इसकी भूमिका मिटती गई। लोगों में यह धारणा भी बैठने लगी कि बैंक कॉरपोरेट क्षेत्र को सस्ता कर्ज दे रहे हैं, जबकि कृषि के साथ ही लघु व मध्यम उद्यमों से ज्यादा ब्याज ली जा रही है। खुद बैंकों ने रिजर्व बैंक से अनुरोध किया कि बीपीएलआर प्रणाली की समीक्षा की जाए।
बीपीएलआर प्रणाली में पारदर्शिता के न होने से मौद्रिक नीति के संकेत भी नीचे तक नहीं पहुंचते थे। इन्हीं उलझनों के बीच एक कार्यदल बनाया गया। कार्यदल (चेयरमैन: दीपक मोहंती) की सिफारिशों के साथ ही इससे ताल्लुक रखनेवाले तमाम पक्षों और बैंकों से व्यापक सलाह-मशविरे के बाद रिजर्व बैंक ने बेस रेट संबंधी अंतिम दिशानिर्देश 9 अप्रैल 2010 को जारी किए। 1 जुलाई 2010 से बेस रेट प्रणाली ने बीपीएलआर की जगह ले ली है। अब कुछ अपवादों को छोड़कर हर तरह के ऋण का मूल्य (ब्याज दर) केवल बेस रेट के आधार पर किया जाएगा।
बेस रेट फ्लोटिंग ब्याज के ऋणों के लिए भी बेंचमार्क दर का काम कर सकता है। ऋण को मंजूर या उसे रिन्यू कराते समय फ्लोटिंग ब्याज की दर बेस रेट के बराबर या उससे अधिक ही होनी चाहिए। चूंकि सभी ऋणों के लिए न्यूनतम ब्याज दर बेस रेट होगी, इसलिए अभी तक लागू यह शर्त खत्म हो गई है कि 2 लाख रुपए तक के ऋण बीपीएलआर से अधिक ब्याज पर नहीं दिए जा सकते। उम्मीद है कि इससे छोटे कर्जदारों को वाजिब ब्याज पर ज्यादा ऋण मिल पाएंगे। सीधा बैंक फाइनेंस मिलने से ज्यादा ब्याज लेनेवालों (जैसे, माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं) को टक्कर भी मिलेगी।
भारत में बैंकिंग जिस तरह व्यापक स्तर पर रिटेल डिपॉजिट पर आधारित है, उसे देखते हुए ऋणों के पारदर्शी मूल्य-निर्धारण के लिए किसी अच्छे मानक या बेंचमार्क की जरूरत है। जिन देशों में रिटेल के बजाय होलसेल फंड आधारित बैंकिंग व्यवस्था है, वहां भी बेंचमार्क के रूप में लिबोर (लंदन इंटर बैंक ऑफर्ड रेट) का जमकर इस्तेमाल होता है। लिबोर मूलतः एक अंतर-बैंक डिपॉजिट रेट ही है। इस तरह बेस रेट जहां बेंचमार्क की जरूरत पूरा करता है, वहीं बैंकों को अपने ऋणों के मूल्य-निर्धारण के बारे में पूरा लचीलापन भी देता है।
बेस रेट से जुड़े दस अहम पहलू हैं जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूं। एक, छोटे ऋणों पर ब्याज दर की ऊपरी सीमा हटाने और रुपया-निर्यात ऋण पर ब्याज दर को मुक्त करने के साथ बेस रेट की शुरुआत देश में बैंकों की उधार दरों से नियंत्रण हटाने के लिए दो दशकों से चल रहे प्रयासों का फल है।
दो, उधार की दरों पर नियंत्रण पूरा हटा लेने से वित्तीय समावेश (विस्तार) को बढ़ावा मिलेगा और कृषि व छोटे व्यवसाय को अधिक कर्ज मिल सकेंगे। इसके साथ-साथ रिजर्व बैंक द्वारा वित्तीय समावेश के लिए किए गए अन्य विशेष उपायों के चलते कर्जदार अनौपचापिक वित्तीय क्षेत्र (सूदखोरों वगैरह) के चंगुल से निकलकर औपचारिक (बैंक व वित्तीय संस्थानों) तक पहुंचेंगे और इस तरह देश में ऋण की पहुंच बढ़ेगी।
तीन, बेस रेट प्रणाली पारदर्शिता सुनिश्चित करने के साथ ही बैंकों को अपने ऋण के मूल्य निर्धारण की पूरी आजादी देती है। बैंक जहां तक चाहें, अवाम की डिपॉजिट को खींच सकते हैं और साथ ही रिजर्व बैंक की तरलता सुविधा तक भी उनकी विशिष्ट पहुंच है। इसलिए सार्वजनिक हित में बैंकों द्वारा उधार देने के काम में जवाबदेही और पारदर्शिता की ज्यादा जरूरत है। चार, बेस रेट बैंकों की तुलनात्मक कुशलता और लागत संरचना का आईना होगा। उधार पर ब्याज की दर तो बहुत ज्यादा नहीं बदलती, लेकिन उम्मीद यही है कि बेस रेट प्रणाली के आने से मौद्रिक नीति में किए गए उपायों का असर अधिक आसानी व सुगमता से नीचे तक पहुंचेगा और ब्याज दरों व ऋण प्रवाह दोनों में लचीलापन व मजबूती आएगी।
पांच, नई प्रणाली बैंकों को फ्लोटिंग ऋण पर ब्याज दर के निर्धारण के लिए अपने बेस रेट के अलावा बाजार से जुड़े अन्य बेंचमार्क भी चुनने की आजादी देती है। इससे बाजार में बेंचमार्क बनने की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलेगा। इससे मनी मार्केट का आधार बढ़ सकता है जिससे बैंकों अल्पकालिक तरलता प्रबंधन में सहूलियत हो जाएगी। छह, लोगों को थोड़ा-थोड़ा अंदेशा है कि बेस रेट प्रणाली से कर्ज की वास्तविक लागत बढ़ जाएगी। ऐसा नहीं होगा क्योंकि कॉरपोरेट क्षेत्र के पास धन जुटाने के तमाम स्रोत हैं और इसलिए कर्ज की प्रभावी ब्याज दर बाजार की प्रतिस्पर्धा से निर्धारित होगी।
सात, 1990 के दशक में बैंकिंग सिस्टम में सालाना प्रभावी उधार दर ज्यादा रही थी। लेकिन 2000 के दशक में यह काफी घट गई। इसकी वजह मोटे तौर पर मुद्रास्फीति में कमी, मुद्रास्फीति संबंधी जोखिम प्रीमियम में कमी, ब्याज दर से नियंत्रण हटना और बैकिंग सिस्टम में बढ़ी कार्य-कुशलता है। बेस रेट इसमें और बेहतरी लाएगा।
आठ, अगर उपभोक्ता मूल्यों पर आधारित मुद्रास्फीति की समग्र माप न हो और मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं की गणना में मुश्किल हो तो असल उधार दर को निकालना काफी चुनौती भरा होता है। फिर भी पिछले दो दशकों की वास्तविक ब्याज दरों पर निगाह डालें तो एक साफ पैटर्न उभरता दिखाई देता है। वास्तविक भारित औसत उधार दर, वास्तविक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की विकास दर से अधिक रही है। खासकर, 1997-98 से 2002-03 के दरमियान ऐसा हुआ है। उसके बाद भारतीय अर्थव्यवस्था की ऊंची विकास दर के दौर में वास्तविक भारित औसत उधार दर में कमी आई है।
नौ, क्रेडिट (उधार) और औद्योगिक उत्पादन के चक्र वास्तविक ब्याज दरों के साथ विपरीत रिश्ता दिखाते हैं। हालांकि इस पहलू पर और रिसर्च किए जाने की जरूरत है ताकि हम उधार और ब्याज दर के चक्र के बीच के रिश्तों और चलते जानेवाले विकास पर उनके असर को बेहतर तरीके से समझ सकें।
– कोलकाता के बैंकर्स क्लब में रिजर्व बैंक के कार्यकारी निदेशक और बेस रेट पर बने कार्यदल के प्रमुख दीपक मोहंती के भाषण के चुनिंदा अंश