आमतौर पर ग्वार की खेती करनेवाले किसान मार्च तक अपनी सारी फसल बाज़ार में उतार देते हैं। लेकिन इस साल उन्होंने खींच-खांच कर करीब डेढ़ महीने और इंतज़ार किया। जैसे ही उनकी फसल खलिहान से निकलकर बाज़ार में पहुंच गई, सरकार ने ग्वार और ग्वार गम की फ्यूचर ट्रेडिंग पर तेरह महीने पहले, मार्च 2012 से लगाया गया बैन उठा लिया। फॉरवर्ड मार्केट कमीशन (एफएमसी) के फैसले के बाद एमसीएक्स और एनसीडीएक्स ने मंगलवार, 14 मई 2013 से इन दोनों ही जिंसों में फ्यूचर ट्रेडिंग शुरू कर दी। बताते हैं कि इस साल देश में 22 लाख टन ग्वार की रिकॉर्ड पैदावार हुई है, जबकि पिछले साल यह मात्रा 18 लाख टन थी। लेकिन सारी पैदावार अब तक व्यापारियों के गोदामों में आ चुकी है।
एनसीडीएक्स का कहना है कि भाव बढ़ने की उम्मीद में पहले ही दिन बाज़ार में ‘किसानों’ ने इन जिंसों की बाढ़ ला दी तो भाव चार फीसदी गिर गए, जिसके चलते ट्रेडिंग रोक देनी पड़ी। एमसीएक्स में भी यही हाल था। वहां जून डिलीवरी के ग्वार सीड का भाव दो फीसदी गिरकर 9505 रुपए प्रति क्विंटल पर आ गया, जबकि ग्वार गम का भाव 2.6 फीसदी कम 28,050 रुपए प्रति क्विंटल रहा। एनसीडीएक्स में यही भाव क्रमशः 9460 रुपए और 28,150 रुपए पर बंद हुए। अगले दिन बुधवार को भी यह गिरावट जारी रही और आगे भी जारी रहने की आशंका है।
बता दें कि 27 मार्च 2012 को एफएमसी से ग्वार सीड और ग्वार गम में फ्यूचर ट्रेडिंग पर बैन लगाया था। उससे छह दिन पहले 21 मार्च 2012 को ग्वार सीड के भाव 30,533 रुपए प्रति क्विंटल और ग्वार गम के भाव 1,00,195 रुपए प्रति क्विंटल चल रहे थे। इन कीमतों की बदौलत राजस्थान के श्रीगंगानगर से लेकर गुजरात क मेहसाणा जिले तक के किसानों अपनी बहनों और बेटियों की शादियां बड़े धूमधाम से कीं। पुराने कर्जें उतार डाले।
किसानों के बीच इसे काला सोना कहा जाने लगा। हुआ भी ऐसा ही था। जिस ग्वार गम की कीमत जुलाई 2010 में 55 रुपए प्रति किलो रहा करती थी, वो मार्च 2012 में 1000 रुपए से नीचे उतरने के बावजूद अगस्त 2012 में भी करीब छह गुना 350 रुपए प्रति किलो बने हुए थे। लेकिन सरकारी चाबुक का धीरे-धीरे ऐसा हुआ कि दाम घटते गए और किसानों के सारे ख्वाब टूट गए। दुख की बात यह है फ्यूचर ट्रेडिंग पर बैन के वक्त फरवरी में जो ग्वार सीड 10,000 रुपए प्रति क्विटल में बिक रहा था, उसमें जून डिलीवरी के भाव 9125 और अक्टूबर डिलीवरी का भाव 7550 रुपए तक गिर चुका है।
बैन लगाते वक्त सरकार का तर्क था कि ग्वार सीड और ग्वार में भयंकर सट्टेबाज़ी चल रही थी। यहां तक कि व्यापारी बैकों से मार्जिन पर धन उठाकर बाज़ार में लगा रहे थे। इस तरह चढ़े दामों को ठंडा करने के लिए उस पर बैन लगाना जरूरी था। यह भी कहा गया कि हम दाम बढ़ाकर नहीं रख सकते क्योंकि यही माल पाकिस्तान सस्ते में दे रहा है। इसके बाद दाम ज़रूरी ठंडे पड़ गए। इससे व्यापारियों से लेकर किसानों को घाटा लगा। लेकिन फायदा किसका हुआ?
बता दें कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, हरियाणा, गुजरात व महाराष्ट्र के बहुत सारे लोग ग्वार की फली की सब्जी खाते हैं जो काफी पौष्टिक मानी जाती है। लेकिन इसका आम उपभोग बहुत कम है। ग्वार की 90 फीसदी से ज्यादा फसल से सफेद पाउडर बनता है जिसे ग्वार गम कहते हैं। इसका जबरदस्त औद्योगिक इस्तेमाल है। दुनिया भर में ग्वार की पैदावार का 85 फीसदी हिस्सा भारत में होता है। इसमें भी सबसे ज्यादा पैदावार राजस्थान के तीन जिलों श्रीगंगानगर, जोधपुर व हनुमानगढ़ में होती हैं। इसकी थोड़ी बहुत खेती गुजरात, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और हरियाणा में भी होती है। देश के भीतर जोधपुर ग्वार को सबसे बड़ा प्रोसेसिंग केंद्र है।
पाकिस्तान के पंजाब राज्य में भी ग्वार की फसल होती है। लेकिन दुनिया की कुल पैदावार में करीब दस हिस्सेदारी के साथ वो कीमतों को उठाने-गिराने में सक्षम नहीं है। अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और अफ्रीका में भी ग्वार की फसल ली जाती है। दुनिया में ग्वार गम बनानेवाली सबसे बड़ी और एकमात्र लिस्टेड कंपनी है विकास डब्ल्यूएसपी लिमिटेड। ग्वार की फ्यूचर ट्रेडिंग पर बैन उठाने के दो दिनों के भीतर इसका शेयर 24.20 रुपए से 36.57 फीसदी बढ़कर 33.05 रुपए पर पहुंच चुका है। दुनिया में ग्वार गम की दूसरी सबसे बड़ी निर्माता कंपनी भी भारत की है जिसका नाम है हिंदुस्तान गम एंड केमिकल्स।
भारत में पैदा हुआ सारा ग्वार सीड देश में ही प्रोसेस हो जाता है। इस तरह बने ग्वार गम के कुल उत्पादन का बमुश्किल दस फीसदी हिस्सा देश में खपता है। बाकी 90 फीसदी निर्यात होता है। इसका भी 80 फीसदी हिस्सा कच्चे तेल की क्षैतिज या हॉरिजेंटल ड्रिलिंग में जाता है और बाकी करीब 20 फीसदी हिस्सा दुनिया के फूड प्रोसेसिंग उद्योग में खपता है।
अब असली बात, जिसे जानकर ग्वार को लेकर मचे इस सारे खेल का असली रहस्य आपके सामने आएगा। असल में करीब तीन साल पहले से अमेरिका में चट्टानों से शेल गैस निकालने का काम शुरू हुआ। इसमें चट्टानों में दरार पैदा करने के लिए ग्वार गम का इस्तेमाल किया जाता है। 2011-12 में भारत, खासकर राजस्थान में सूखे के चलते अमेरिकी तेल-खनन कंपनियों को लगा कि आगे ग्वार की पैदावार कम हो सकती है। इन कंपनियों में खास नाम रहा है हैलिबर्टन कॉर्प का। ऐसी कंपनियों ने ग्वार को खरीद-खरीद कर गोदामों में भरना शुरू कर दिया। भारत के व्यापारियों ने भी अमेरिका की इस मजबूरी का फायदा उठाना चाहा।
इसी कश्मकश में ग्वार की कीमत 35,000 रुपए प्रति क्विंटल और ग्वार गम की कीमत एक लाख रुपए प्रति क्विंटल से पार चली गई। अमेरिका के लिए यह बड़े सदमे की बात थी। उसके लिए ग्वार की कीमतों को गिराना जरूरी हो गया। इसके लिए उसने एक तरफ तो ग्वार का विकल्प खोजने का दावा किया। दूसरी तरफ भारतीय वाणिज्य मंत्रालय पर दबाव बनाया। वहां से बात उपभोक्ता मामलात मंत्रालय तक पहुंची और फिर एफएमसी ने कुछ नहीं मिला तो हल्ला मचाते हुए ग्वार और उसके गम की फ्यूचर ट्रेडिंग पर प्रतिबंध लगा दिया। सवाल उठता है कि जिस ग्वार की कीमत बढ़ने से भारतीय उपभोक्ता को खास फर्क नहीं पड़ता, बल्कि किसानों को फायदा पहुंचता है, उसकी कीमतों को जबरन गिराकर भारत सरकार ने किसका हित किया? जवाब साफ है। बताने की जरूरत नहीं। हमारी सरकार दलालों की ऐसी ही बिकी हुई सरकार है।
अब ग्वार में फिर से फ्यूचर ट्रेडिंग शुरू होने के बाद भी अमेरिकी कंपनियां खुश हैं क्योंकि इस बार सप्लाई इतनी ज्यादा है कि दाम उठ ही नहीं सकते। एफएमसी ने यह भी व्यवस्था की है कि जैसे ही ग्वार की सप्लाई जुलाई तक घट जाएगी, इसकी फ्यूचर ट्रेडिंग रोक दी जाएगी। दोबारा इसे अक्टूबर से खोला जाएगा। बीच में अगस्त, सितंबर सन्नाटा। भारत सरकार किस तरह देशहित के खिलाफ काम करती है, उसका एक उदाहरण ग्वार गम भी है।
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि देश का सबसे तेज़ी से बढ़ता निर्यात ग्वार गम का है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2012 से मार्च 2013 तक देश से ग्वार गम का निर्यात 21,190.16 करोड़ रुपए का रहा है, जो साल भर पहले की इसी अवधि में हुए 16,523.87 करोड़ रुपए के निर्यात से पूरे 28.24 फीसदी ज्यादा है। देश से सबसे ज्यादा निर्यात होनेवाले 20 जिंसों में इसका 16वां नंबर है, जबकि बासमती चावल 18वें नंबर पर है। फरवरी तक तो स्थिति और भी जानदार थी। बात बड़ी साफ है कि ग्वार हमारे किसानों के लिए ही नहीं, देश के खजाने के लिए ही सोने की मुर्गी साबित हो सकता है। यह बर्षा आधारित फसल है। इस पर लागत ज्यादा नहीं आती। लेकिन भारत सरकार ने अमेरिका और वहां की खनिज तेल कंपनियों के हितों को पूरा करने के लिए इसे हलाल करके रख दिया है। नहीं लगता कि फ्यूचर ट्रेडिंग का फिर से खोलना इसमें कितनी जान लौटा पाएगा। फिर यह भी भरोसा नहीं कि एक बार दाम चढ़ते ही इस पर दोबारा बैन नहीं लगा दिया जाएगा।