कर्मों से मिले मूल्य, पूछताछ से भाव

मूल्य वो है जो कंपनी के कर्मों से बनता है और भाव वो है जो लोग उसे देते हैं। खरीदने-बेचने वाली शक्तियों के असल संतुलन से ही निकलता है भाव। हो सकता है कि कंपनी बहुत अच्छा काम कर रही हो। उसका धंधा बढ़ रहा हो। लाभप्रदता भी बढ़ रही हो। फिर भी बाजार के लोगों में उसके शेयरों को खरीदने की दिलचस्पी न हो तो उसका भाव दबा ही रहेगा। आप कहेंगे कि अच्छी चीज़ को कोई क्यों नहीं खरीदेगा? लेकिन ऐसा पूरी तरह विकसित बाजार और आदर्श स्थितियों में होता है। आप यूं तो जानते ही होंगे, नहीं तो जान लीजिए कि अपना शेयर बाजार ठीकठाक विकसित नहीं हुआ है। यहां मुक्त बाजार की शक्तियां नहीं, बल्कि निहित स्वार्थ हावी हैं।

लोकतंत्र और बाजार के विकास में सीधा रिश्ता होता है। और, लोकतंत्र का मतलब हर पांच साल पर अपने प्रतिनिधियों को चुनने तक सीमित नहीं है। लोकतंत्र तभी संपूर्ण व सच्चा होता है, जब व्यक्ति के अबाधित विकास की गारंटी होती है। लोकतंत्र में सरकारी तंत्र व्यक्ति की गरिमा को स्थापित करता है। अगर तंत्र पर निहित स्वार्थ हावी हों और सरकार उनसे मिली हुई हो, तो उसे लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता। ऐसे तंत्र में लोक हमेशा पीड़ित और दबा हुआ महसूस करता है। अगर हमारे शेयर बाजार से आम निवेशक या ‘लोक’ दूर छिटकते जा रहे हैं तो इसकी मूल वजह यही है कि यहा निहित स्वार्थों का खेल चल रहा है। बाजार शक्तियों के विकास के लिए केवल जुबानी जमाखर्च किया जा रहा है। वित्तीय साक्षरता और वित्तीय समावेश की बातें खोखली हैं। आइए, देखते हैं कि हाल के दिनों में बाजार के बारे में हमने और क्या कुछ जाना-समझा…

  • सब वही। धंधा वही। बरक्कत वही। लेकिन बाजार ने किसी भी वजह से नजरों से गिरा दिया तो कंपनी का शेयर धड़ाम से नीचे आ जाता है। इसलिए कंपनी की मौलिक मजबूती के साथ ही हमें बराबर निगाह रखनी चाहिए कि उसके बारे में बाजार की समग्र धारणा क्या है। इस धारणा को महसूस किया जा सकता है, खबरों के प्रवाह और बन रहे माहौल से समझा जा सकता है। किसी रिसर्च के अनुपात या फॉर्मूले से नापा नहीं जा सकता।
  • बहुत साफ-सी बात है कि मूल्य सामाजिक लेनदेन का पैमाना है। मूल्य किसी चीज को उतना ही मिलता है, जितना लोग उसे भाव देते हैं। और, लंबे समय तक भाव पाने के लिए उस चीज की अपनी औकात और दमखम होना जरूरी है। हम लंबे समय में फलने-फूलनेवाली ऐसी ही सामर्थ्यवान और संभावनामय कंपनियां आपके लिए छांटकर लाने की कोशिश करते हैं। साथ ही आपसे अपेक्षा भी करते हैं कि निवेश करने से पहले खुद एक बार अपने स्तर पर जांच-परख कर लें क्योंकि पीतल को सोना और कोयले को हीरा समझने की चूक हमसे भी हो सकती है।
  • हमें कुछ बेचना नहीं, न ही बिकवाना है। हम तो बस आपका परिचय देश में लिस्टेड करीब 5000 कंपनियों से करा देना चाहते हैं ताकि आप निवेश का फैसला अच्छी तरह कर सकें। एक बात गांठ बांध लें कि कोई भी रिसर्च संस्था, ब्रोकरेज हाउस या व्यक्ति अगर किसी कंपनी में निवेश की सलाह देता है तो हमेशा उस सलाह को अपने स्तर पर ठोंक-बजाकर देख लेना जरूरी है क्योंकि निवेश के फैसले हर व्यक्ति की जोखिम क्षमता के हिसाब से किए जाते हैं और अपनी जोखिम क्षमता का आकलन तो आप ही बेहतर कर सकते हैं! लोग लालच की सहज भावना का फायदा उठाकर निश्चित रूप से आपको बहकाने की कोशिश करेंगे। लेकिन आपको कभी अपना संयम व विवेक नहीं खोना चाहिए।
  • अजीब विरोधाभासों से भरा देश है अपना। यहां की 60 फीसदी से ज्यादा श्रमशक्ति कृषि पर निर्भर है। लेकिन खेतों में काम करने के लिए मजदूर नहीं मिलते। मिलें भी तो कैसे? जहां 80 फीसदी से ज्यादा किसानों के पास ढाई एकड़ से कम जमीन हो और देश में जोतों का औसत आकार दस साल पहले 2001-02 में ही 3.5 एकड़ पर आ चुका हो, वहां मजदूर खेती-किसानी में काम करें भी तो किसके यहां। यहां तो किसान भी फसलों के मौसम में ही अपने खेत पर मजदूरी करता है। बाकी साल में कम से कम आठ महीने मजदूरी कमाने के लिए शहरों का रुख कर लेता है। ऐसे में खेती-किसानी में छोटी-छोटी मशीनों का इस्तेमाल बढ़ रहा है और आगे बढ़ता ही जाएगा।

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