हमारे गांव में एक गजा-धर पंडित (जीडीपी) थे। थे इसलिए कि अब नहीं हैं। गांव के उत्तर में बांस के घने झुरमुट के पीछे बना उनका कच्चा घर अब ढहकर डीह बन चुका है। तीन में से दो बेटे गांव छोड़कर मुंबई में बस गए हैं और एक कोलकाता में। वहीं पंडिताई करते हैं। शुरू में जजमान अपने ही इलाके के प्रवासी थे। लेकिन धीरे-धीरे जजमानी काफी बढ़ गई। गजाधर पंडित बाभन थे या महाबाभन, नहीं पता। लेकिन अब वो मर चुके हैं। बताते हैं कि किसी शाम दिशा-मैदान होने गए थे, तभी किसी बुडुवा प्रेत ने उन्हें धर दबोचा। जनेऊ कान पर ही धरी रह गई। लोटा कहीं दूर फिंक गया और गजाधर वहीं फेंचकुर फेंककर मर गए। जब तक ज़िदा थे, आसपास के कई गांवों में उन्हीं की जजमानी चलती थी। शादी-ब्याह हो, हारी-बीमारी हो या जन्म-मरण, उन्हें हर मौके पर काफी सीधा-पानी, दान-दक्षिणा मिल जाती थी। जजमान को बरक्कत का आशीर्वाद देते थे, लेकिन बराबर होती रहती थी उनकी अपनी बरक्कत।
यही हाल किसी भी देश के जीडीपी यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (सकल घरेलू उत्पाद) का है। जीडीपी किसी देश की राष्ट्रीय ताकत का पैमाना माना जाता है। यही बताता है अर्थव्यवस्था की सेहत। अगर जीडीपी बढ़ता है तो हम कहते हैं कि अर्थव्यवस्था की हालत बेहतर है और गिरता है तो सरकार से लेकर रिजर्व बैंक तक की चिंता बढ़ जाती है। वैसे तो GDP = C + I + G + (X-M) होता है, जिसमें C मतलब निजी खर्च, I मतलब निवेश, G मतलब कुल सरकारी खर्च और X मतलब सकल निर्यात, M मतलब सकल आयात है। इसमें I, G , X, M की गणना हम नीति नियामकों पर छोड़ देते हैं। फिलहाल हम अपना वास्ता C यानी निजी खर्च से रखते हैं क्योंकि इस C की महिमा हमारे गजाधर पंडित जैसी निराली है।
जीडीपी हमारे खर्च के सीधे अनुपात में बढ़ता है। इसे ट्रैफिक जाम में फंसे लोगों की मुसीबत से कोई मतलब नहीं होता। इसे मतलब होता है कि इस जाम के चलते हमने कितना अतिरिक्त पेट्रोल या डीजल जला डाला। कैंसर या एड्स का कोई मरीज बिना इलाज कराए मर जाए तो जीडीपी नहीं बढ़ेगा। जीडीपी तब बढ़ेगा जब वो अस्पतालों से अपना महंगा इलाज कराएगा। सभी लोग स्वस्थ हो जाएं और उन्हें इलाज की ज़रूरत ही न पड़े तो हमारी ‘अर्थव्यवस्था’ को घाटा लग जाएगा।
अगर आप घर पर खाना बनाकर खाते हैं तो जीडीपी में उतना योगदान नहीं करते जितना आप बाहर होटल में खाना खाकर करते। आपका बच्चा बर्गर, पिज्जा, चिप्स खाकर बीमार पड़ जाए, मोटापे और डायबिटीज़ के शिकार हो जाएं तो आपके लिए अच्छी बात नहीं है, लेकिन देश के जीडीपी के लिए अच्छी बात है। लोग मिलजुलकर शांति से रहें, ये अच्छी बात नहीं है। मुकदमेबाज़ी के चक्कर में कोर्ट-कचहरी का चक्कर लगाएं, जीडीपी के लिए ये अच्छी बात है। शादियां लंबी और स्थाई हों, ये नहीं, बल्कि फटाफट तलाक का होना राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के हित में है।
कितना अजीब है कि जीडीपी इसे तो जोड़ता है कि हमने कितना फॉसिल फ्यूल जला डाला, लेकिन इसे नहीं घटाता कि इससे धरती का गर्भ कितना खाली हो गया, इसकी गणना नहीं करता कि इससे फैले प्रदूषण से कितने बड़े, बूढ़े या बच्चे सांस की बीमारियों के शिकार हो जाएंगे। हर तरह के खर्च से जीडीपी का घड़ा भरता है। यह खर्च चाहे कैसिनो का हो, होमलोन का हो, इलाज का हो या शराबखोरी का। पी चिदंबरम, वाई वी रेड्डी या रंगराजन बता देते हैं कि जीडीपी की विकास दर इस साल 8 से 8.5 फीसदी रहेगी, लेकिन उनसे कोई नहीं पूछता कि जनाब, ज़रा एक मिनट रुकिए और ठीक-ठीक बताइए कि आप किस चीज़ के बढ़ने की बात कर रहे हैं। क्या पॉर्न साहित्य बढेगा या श्रेष्ठ साहित्य, स्वस्थ बच्चों की जन्म दर बढ़ेगी या बीमार बच्चों की मृत्यु दर, परिवार जुड़ने का सिलसिला बढ़ेगा या टूटने का।
आर्थिक विकास से किसी का इनकार नहीं है, न हो सकता है। लेकिन इसके निर्गुण स्वरूप की सफाई होनी चाहिए। जीडीपी अभी सरकार के लिए कराधान और राष्ट्रीय संपदा के आकलन व दोहन का साधन बना हुआ है। लेकिन इसे अवाम के भी काम का बनाया जाना चाहिए। महज inclusive growth की बातें करने से काम नहीं चलेगा, growth के tools और indicators को भी बदलना होगा।
शानदार है भाई। 1 अप्रैल का इंतजार रहेगा।