शेयर बाजार का असली शेर कौन?

साल 2012 में बाजार का पहला दिन। हर ब्रोकरेज हाउस व बिजनेस अखबार नए साल के टॉप पिक्स लेकर फिर हाजिर हैं। चुनने के लिए बहुत सारे विकल्प सामने हैं। ऐसे में आपको और क्यों उलझाया जाए! हालांकि अगर साल 2011 के टॉप पिक्स का हश्र आपके सामने होगा तो शायद आपने इस हो-हल्ले को कोई कान ही नहीं दिया होगा। इन पर ध्यान देना भी नहीं चाहिए क्योंकि ढोल, झांझ, मजीरा व करताल लेकर यह मंडली सारा शोर इसलिए मचाती है ताकि आप खिंचे चले आएं और बाजार के असली खिलाड़ियों का शिकार बदस्तूर जारी रहे।

लोग कहते हैं कि आम निवेशक को कोई ज्ञान नहीं चाहिए। उसे चाहिए टिप्स। उसे चाहिए कि वह कैसे और कहां नोट बना सकता है। ईई, पीई, ईपीएस, टीपीएस से उसका कोई मतलब नहीं। लेकिन इन्हीं टिप्स के चक्कर में तो पिछले 20 सालों के दौरान 121 करोड़ की आबादी वाले इस देश में रिटेल निवेशकों की संख्या दो करोड़ से घटकर 80 लाख के आसपास आ गई है। यह सरकारी आंकड़ा है, वो भी पुराना। बाजार के लोगों की मानें तो बाजार में सक्रिय रिटेल निवेशकों की संख्या इस समय दस लाख भी नहीं होगी। सारा खेल बड़े खिलाड़ियों के हाथ में सिमटा है। इसमें टिप्स के चक्कर में घुसनेवाला निवेशक पिद्दी की तरह फिस जाता है।

हमारा मानना है कि बाजार में तभी उतरना चाहिए, जब हम इसके चाल-चलन को अच्छी तरफ समझ लें। बारीकी से नहीं तो मोटामोटी ज्ञान तो होना ही चाहिए। कौन-सी शक्तियां हैं जिनके संतुलन से चल रहा है भारतीय शेयर बाजार? कहा जाता है कि इस समय हमारा बाजार विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) के हाथ की कठपुतली बना हुआ है। हालांकि आईसीआईसीआई सिक्यूरिटीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक सितंबर 2011 तक की स्थिति के अनुसार भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र की प्रतिनिधि बीएसई-500 में शामिल कंपनियों में जहां एफआईआई की इक्विटी हिस्सेदारी 12.6 फीसदी है, वहीं प्रवर्तकों की हिस्सेदारी 57.7 फीसदी है। म्यूचुअल फंडों या डीआईआई की हिस्सेदारी महज 3.1 फीसदी है।

एफआईआई व डीआईआई के अलावा कॉरपोरेट निकाय, एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) और रिटेल निवेशक वो श्रेणियां हैं जिनकी खरीद-बिक्री बाजार में शेयरों के भाव को उठाती या गिराती रहती है। लेकिन यह सैद्धांतिक स्थिति है। व्यावहारिक स्थिति यह है कि पूंजी बाजार में उतरनेवाले ज्यादातर प्रवर्तक इतने शातिर हैं कि आज की तारीख में वे असली खिलाड़ी बने हुए हैं। वे अपना खेल या तो वे खुद मर्चेंट बैंकरों के तंत्र के जरिए करते हैं या फंड मैनेजर के जरिए। कंपनी में उनकी हिस्सेदारी अगर 57-58 फीसदी दिखती है तो असल में यह 70 फीसदी के आसपास होती है।

शुरुआती पब्लिक ऑफर (आईपीओ) में मर्चेंट बैंकरों के खेल को हाल ही में पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी ने बेपरदा किया है। लेकिन शेयर बाजार के खेल से परदा उठना अभी बाकी है। यहां कंपनी के प्रवर्तक से लेकर फंड मैनेजर के बीच फिक्सर, ट्रेडर, ब्रोकर व ऑपरेटर काम करते हैं। ऑपरेटरों की श्रेणी में तमाम एचएनआई भी शामिल हैं। इनफोसिस, विप्रो, टीसीएस, मारुति व हिंदुस्तान लीवर प्रोफेशनली चलाई जा रही कंपनियों को छोड़ दें तो अधिकांश प्रवर्तकों ने बेनामी खातों के जरिए घोषित मात्रा से कहीं ज्यादा शेयर रखे हुए हैं।

मिड-कैप व स्मॉल कैप कंपनियों में अमूमन वही शेयर चलते हैं जिनके प्रवर्तक काफी चलता-पुरजा होते हैं। वे अपने ही शेयरों को खरीद-बेचकर अतिरिक्त कमाई करते हैं ताकि इस देश में बिजनेस करने का ‘ऊपर’ का खर्च निकाला जा सके। विश्व बैंक व अंतराष्ट्रीय वित्त निगम (आईएफसी) की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 20 सालों के आर्थिक उदारीकरण के बीत जाने के बाद भी भारत बिजनेस करने की सुगमता के पैमाने पर दुनिया के 183 देशों में 132 नंबर पर है। बिजनेस शुरू करने की कठिनाई के बारे में भारत का नंबर इन 183 देशों की सूची में 166वां है। जानकार बताते हैं कि ऐसे में प्रवर्तक खेल न करें तो उनका बिजनेस टिक ही नहीं पाएगा।

दुनिया के बाजारों की तरह ही हमारे यहां भी इनसाइडर ट्रेडिंग के नियम बने हुए हैं और इन्हें तोड़ना गुनाह है। लेकिन बेनामी फर्मों या खातों के जरिए प्रवर्तक अंदर की गोपनीय खबरें पहले ही तय ठिकानों तक पहुंचा देते हैं। सारा इंतज़ाम इतना पुख्ता कि कोई उन पर हाथ नहीं रख सकता। इसके अलावा बाजार में फ्रंट-रनिंग चलती है। इसमें ब्रोकरेज हाउस किसी एफआईआई, म्यूचुअल फंड या एचएनआई के बड़े ऑर्डर को पूरा करने से पहले ही अपने गोपनीय खातों में खरीद या बिक्री कर डालता है। बल्क डील की सुविधा होने के बावजूद जब भी ऐसे बड़े सौदे खुले बाजार से किए जाते हैं तो उनके पीछे ऐसा ही खेल होता है। बड़ा सौदा होने पर शेयर के भाव बढ़ते या गिरते हैं तो उसके हिसाब से वह मुनाफा बटोर लेता है।

यह फ्रंट रनिंग म्यूचुअल फंड के कर्मचारियों के बीच भी चलती है जो ऊपर की सूचनाएं लेकर नीचे तक सुरंग बना डालते हैं। हालांकि फ्रंट रनिंग का धंधा भी इधर काफी रिस्की हो गया है। एक तो सेबी की चौकसी थोड़ी बढ़ गई है। दूसरे, एक जगह से तो खरीदने-बेचने की जानकारी मिल जाती है। लेकिन दूसरे खिलाड़ी अगर इसका उल्टा कर रहे होते हैं तो सारा दांव पलट जाता है।

गिने-चुने ट्रेडर ही हैं जो आगे बढ़कर दांव खेलने के बजाय दूसरों के कर्मों का फल देखने के बाद पहल करते हैं। उनका मुनाफा थोड़ा कम जरूर होता है। लेकिन वे जबरदस्त घाटा खाने के जोखिम से बच जाते हैं। जानकार बताते हैं कि प्रवर्तकों की डीलिंग-सेटिंग ही इस समय वो कारक है जो सबको नचा रहा है। एफआईआई का तो बस नाम है। वैसे भी, वे भारत में धंधा करने आए हैं। बहती गंगा में हाथ धोना उनका काम है। उनको डेरिवेटिव्स में खेलने का मौका मिल रहा है तो उसमें खेल रहे हैं।

फंड हाउसों से लेकर एफआईआई तक अपने खुफिया तंत्र से पता लगाते रहते हैं कि कहां, क्या चल रहा है। कंपनियों की खबरें सार्वजनिक होने से पहले उन तक पहुंच जाती हैं। चुनिंदा एचएनआई, ट्रेडर व ब्रोकरेज हाउस इस खेल में शामिल रहते हैं। लेकिन प्रवर्तक ही इस जंगल के असली शेर हैं। बाकियों की औकात लकड़बघ्घों या सियारों की है जो उनके शिकार की झूठन पर मुंह मारते हैं। इनसे बचा माल गिद्ध नोंच ले जाते हैं। टिप्स के चक्कर में टहलते निवेशकों की हालत तो लोमड़ी जैसी है जिसे मिलता तो कुछ नहीं। हां, उस पर औरों का शिकार बनने का खतरा जरूर मंडराता रहता है।

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