अक्सर बहुत सारी बातें सिद्धांत में बड़ी सतरंगी होती हैं, लेकिन व्यवहार में बड़ी बदरंग होती हैं। सिद्धांततः माना जाता है कि शेयरधारक अपने हिस्सेदारी की हद तक कंपनी का मालिक होता है। लेकिन सच्चाई में ऐसा बस मन का धन है। सौ-दो सौ या हजार-दो हजार शेयर रखनेवालों की तो बात छोड़ दीजिए, 10-15 फीसदी हिस्सेदारी रखनेवाले संस्थागत निवेशकों (एफआईआई, म्यूचुअल फंड, बीमा कंपनियां) तक का कोई योगदान कंपनी के फैसलों में नहीं होता है। पब्लिक की श्रेणी को राजनीति में आम आदमी कहकर थोड़ी इज्जत बख्श दी जाती है। लेकिन यहां तो पब्लिक को वाकई भेड़-बकरी समझ लिया जाता है।
पब्लिक की श्रेणी में प्रवर्तकों से कम हिस्सेदारी वाले निवेशकों को ‘माइनॉरिटी’ शेयरधारक कहा जाता है। इनकी हालत भले ही किसी देश के अल्पसंख्यकों जैसी हो, लेकिन संख्या के मामले में ये कतई अल्पसंख्यक नहीं होते। इनमें रिटेल निवेशक आते हैं जिनकी संख्या कुल शेयरधारकों की 90 फीसदी से ज्यादा होती है। इनमें डीआईआई व एफआईआई भी आते हैं जिनके पास कंपनी के अच्छे-खासे शेयर होते हैं। इसलिए ये अल्पमत भी नहीं होते। लेकिन अपनी चुप्पी व निष्क्रियता के कारण अल्पमत बने रहते हैं। अमेरिका, यूरोप या जापान जैसे विकसित बाजारों में ऐसा नहीं है। वहां शेयर बाजार में भी टीम अण्णा जैसी एक्टिविज्म मौजूद है।
शुक्र है कि अपने यहां पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी को अब थोड़ा होश आया है और वह ऐसा मंच बनाने की सोच रही है जहां ये बिखरे-बिखरे ‘माइनॉरिटी’ शेयरधारक एक साथ आ सकें और कंपनी के फैसलों को बहुमत शेयरधारकों के हित में मोड सकें। यह भी अच्छी बात है कि श्रीराम सुब्रमणियन की इनगवर्न और अनिल सिंघवी की इंस्टीट्यूशनल इनवेस्टर सर्विसेज इंडिया जैसी पहल अभी तक प्रवर्तकों की हां में हां मिलानेवाले संस्थागत निवेशकों को आवाज़ देने की कोशिश कर रही है। लेकिन रिटेल निवेशक तो फिलहाल बेआवाज़ ही रहेंगे। खैर, बोलने से पहले कुछ आना तो जरूरी तो है! आइए दोहराते हैं कि बीते पांच दिनों की फुटकर-फुटकर बातें…
- सभी आवश्यक सूचनाओं तक सबकी पहुंच। किसी भी बाजार के कुशलता से काम करने की यह अनिवार्य शर्त है। ध्यान दें, सूचनाओं की उपलब्धता ही पर्याप्त नहीं, उनकी पहुंच जरूरी है। जो फेंच न जानता हो, उसे फ्रेंच में जानकारी देना महज एक अनुष्ठान भर पूरा करना है। लेकिन अपने यहां, खासतौर पर शेयर बाजार में यही हो रहा है। एक तो सारी सूचनाएं अंग्रेजी में, दूसरे ऐसा घालमेल कि आम निवेशकों को कुछ पल्ले ही न पड़ता। सब सिर के ऊपर से गुजर जाता है।
- अच्छे लोग, बुरे लोग। अच्छी कंपनियां, बुरी कंपनियां। अब अगर आप निवेश के लिए किसी ईश्वर भुवन होटल्स जैसी गुमनाम कंपनी को चुनते हैं तो सचमुच ईश्वर ही आपका मालिक है। कंपनी आपकी बचत लेकर गधे के सिर से सींग की तरह गायब हो जाएगी। लेकिन क्या करें! हम तो फास्टफूड के आदी हो चुके हैं। सब कुछ पका-पकाया चाहिए। किसी ने बताया, टिप दी, खरीद लिया। डूब गए तो शेयर बाजार को लाख-लाख गालियां देने लगे। ये अच्छी बात नहीं है। न देश के लिए, न हमारे लिए। हमें निवेश के लिए खुद छान-बीन करने की आदत डालनी होगी। कोई भी दूसरा आपके लिए फैसले नहीं कर सकता।
- बाजार के बारे में क्या कहा जाए! यहां कोई न्यूनतम स्तर भी न्यूनतम स्तर नहीं होता। बड़े-बड़े विद्वान कहते हैं कि नीचे में खरीदो, ऊपर में बेचो। लेकिन ऐसे में कैसे समझा जाए कि कौन-सा नीचे है और कौन-सा ऊपर? फिर, क्या बस यही देखना पर्याप्त है? क्या यह देखना जरूरी नहीं है कि कंपनी धंधे के जोखिम को कैसे संभाल रही है?
आपका प्रयास काफी अच्छा है और मैं अपने मित्रों को अर्थकाम के बारे में बताता भी रहता हूँ, आपका प्रयास सफल हो ऐसी आशा है |