आप मानें या न मानें, हमारे पूरे हिंदी समाज में ज्ञान का डेफिसिट, ज्ञान का घाटा पैदा हो गया है। सरकार घाटे को उधार लेकर पूरा करती है। लेकिन ज्ञान का घाटा केवल उधार लेकर पूरा नहीं किया जा सकता। उधार के ज्ञान से प्रेरणा भर ली जा सकती है। उसका पुनर्सृजन तो अपने ही समाज और अपनी ही मिट्टी व भावभूमि से करना पड़ता है। हिंदी में लोगबाग कविताएं ठोंक कर लिखते हैं। लेकिन जहां गद्य लिखना होता है तो भाई लोगों के पांव कांपने लगते हैं। यहां से, वहां से उठाकर लिख मारते हैं। बड़े दिग्गज कहानीकार भी कहानियां तक चुराकर लिख मारते हैं। फिल्मी जगत में 99.99 फीसदी कहानियां कहीं न कहीं से ‘प्रेरित’ होती हैं। दिक्कत यह भी है कि हिंदी के बुद्धिजीवी के सामने जीवन-यापन की ऐसी कठिन-कठोर शर्तें पेश कर दी गई हैं कि उसे रचनाकर्म के लिए जरूरी फुरसत ही नहीं मिलती। उसे अपने पंख कुतर-कुतर कर देने होते हैं, तब जाकर उसका घर-परिवार चलता है। ऐसे में पहचान के संकट से निपटने और दुकानदारी चलाने के लिए वे जंग खा चुकी वाम या अतिवाम विचारधारा की शरण में चले जाते हैं।
मेरे मन में कभी-कभी आता है कि जब साहित्य से लेकर दर्शन व आम जानकारियों के क्षेत्र में ज्ञान का इतना डेफिसिट है तो क्यों न हम हिंदी के लोग ज्ञान की तलाश और पूर्ति को ही धंधा बना लें? मैं ऐसा मन से नहीं कह रहा हूं। बल्कि इसे थोड़ा-थोड़ा होता हुआ भी देख रहा हूं। कई लोग फालतू की अप्रासंगिक नैतिकता से मुक्ति पाकर इस तरह की कोशिश में लग रहे हैं। मैं तो एक बात समझता हूं कि अगर कहीं किसी चीज की जरूरत है और कोई इस जरूरत को, मांग को पूरा करने का जतन करता है तो उसे देर-सबेर लोग हाथोंहाथ ले लेते हैं। बाजार को कोई कितना ही गाली दे ले, लेकिन बाजार के इस सकारात्मक पहलू को अंधा भी अनदेखा नहीं कर सकता। हां, शर्त यह है कि आप जो पेश कर रहे हैं, वह आपके मन का धन न होकर सचमुच लोगों की जरूरत को पूरा करनेवाला हो।
असल में पिछले डेढ़ दो साल में मुझे कॉरपोरेट से लेकर देश के नीति-नियांकों के बीच जिस तरह घूमने का मौका मिला, उनसे साबका पड़ा, उससे मुझे कहीं अंदर से एहसास हुआ जैसे अब भी हम औपनिवेशिक शासन में रह रहे हों। देश को आगे बढ़ाने की जो भी बारीक नीतियां हैं, उन पर सोचने और उन्हें बनाने का काम वे करते हैं जो अंग्रेजी में ही सोचते हैं, अंग्रेजी में ही बोलते हैं। हम हिंदी वाले उनका अनुसरण करते हैं। हम उद्यमशीलता में किसी से कम नहीं। देश के किसी भी कोने में जाकर छोटा-मोटा धंधा शुरू कर देते हैं। लेकिन इन धंधों का वास्ता शारीरिक मेहनत से ज्यादा और बुद्धि से कम होता है। जो पढ़-लिख लेते हैं वे भागकर नौकरियों की शरण में चले जाते हैं और माहौल में ढलने की कोशिश में पूरे अंग्रेज बन जाते हैं।
ऐसे में हमारे मानस में एक रीतापन बनता चला जा रहा है। हम पिछलग्गू बने रहने को अभिशप्त हो गए हैं। हम एक के आगे लगकर उसको दस, सौ और लाख तक बना देते हैं, लेकिन खुद हमारी स्थिति जीरो की, शून्य की बनी रहती है। धीरे-धीरे हो यह रहा है कि हम ज्ञान, विज्ञान, दर्शन व साहित्य के मामले में शून्य होते जा रहे हैं। हम पारंपरिक तौर से ज्ञान पर आधारित समाज रहे हैं। लेकिन आज ज्ञान के नाम पर रह गई हैं 1500-2000 साल पुरानी चीजें। हम उन्हीं को फेटते रहते हैं, पागुर करते रहते हैं। हर नई समस्या का समाधान गर्दन को 180 डिग्री मोड़कर पीछे खोजते हैं।
दूसरी तरफ, अंग्रेजी में हो ये रहा है कि जरा-सी उपयोगी सूचनाओं का लेकर कोई कंपनी खडा कर देता है। साल भर के अंदर तीन-चार करोड़ कमाने लगता है। हम हैं कि ठेला-खोंमचा ही लगाते रह जाते हैं। बहुत कलाकार हुए तो नेता बन जाते हैं। मेरा कहना है कि हमें इस आत्मविश्वास से हीन होने की स्थिति को तोड़ना पड़ेगा। हमें भावुकता से स्थिति से उबरना होगा नहीं तो कहां मैं घर-घर खेली जैसे सीयिरल और मैं हूं खान जैसे फिल्में बनाकर हमें शून्य में ही बनाए रखा जाएगा।
हमें असल में ज्ञान और सूचनाओं पर आधारित धंधे शुरू करने होंगे। धंधे का मतलब होता है जरूरत को सही चीज से पूरा करने का साधन जुटा देना। पहले परोपकार को नैतिकता माना जाता था। लेकिन आज जो जितना पर-उपकार करता है, वह उतना ज्यादा पैसे बनाता है। हमारे समाज के आत्मबल को वापस लाने के लिए आज हर क्षेत्र के ज्ञान की भारी जरूरत है। चाहे वे रोजमर्रा की जिंदगी के सवाल हों या विज्ञान और दर्शन के। सूचनाओं की भारी जरूरत है हमारे समाज को। इसको हमारे समाज को समझने और इसमें सहयोग करने की जरूरत है।
मैंने भी हिंदी में अर्थकाम इसी मकसद से शुरू किया है कि 42 करोड़ से ज्यादा आबादी वाला हमारा हिंदी समाज अपने आर्थिक व वित्तीय फैसले खुद ले सके। वह वित्तीय रूप से इतना साक्षर हो जाए कि उसे जबरदस्ती किसी गुरू घंटाल की जरूरत न पड़े। लेकिन मुश्किल यही है कि यह अभी तक कल्याण का काम ही बना हुआ है, धंधा नहीं बन पाया है। और, धंधा नहीं बन पाया तो इसे जारी रखना मुश्किल हो जाएगा। कोशिश जारी है और भरोसा भी है कि अर्थकाम एक न एक दिन करोड़ों हिंदी भाषाभाषी लोगों की जरूरत पूरा करने लगेगा और समाज भी खुलेहाथ इसे स्वीकार करेगा। बस, आपसे गुजारिश यही है कि इसे कानोंकान औरों तक पहुंचाते जाएं। बाकी तो हम संभाल ही लेंगे।
हम आपके साथ हैं और आपके लक्ष्य के लिये हमारी शुभकामनाएँ ।
Well, this is such a nice initiative.. Even I had a few plans like that.. From now onwards, I will belooking forward to this site. Lets see if this boring subject can create some curiosity in people. I will try my best and would love to share your site with my friends..
Thank you!!
P.S. Kudos to Chitthacharcha.. I got to know your website.. 🙂
मै आपके लेखन और इस साईट का फैन हु…. और गाहे बगाहे इस साईट का प्रचार भी करता रहा हु…. आपकी पीड़ा को मै समझ सकता हु, किन्तु इस साईट की गुणवत्ता से मुझे लगता है की यदि सही ढंग से इसका प्रचार हो तो ये काफी आगे जाएगी, उम्मीद करता हु की आपका जो उद्देश है वह जरुर सफल होगा.
अनिलजी,
अर्थकाम के लिए दिली शुभकामनाएं।
फ़िलहाल तो आपकी साइट पर कोई विज्ञापन नहीं दिखाई दे रहे। और इसकी आरएसएस फ़ीड भी पूरी वाली है। कमाने का आपका तरीक़ा क्या है या क्या होगा?
मैं आज तक नही समझ पाया कि शिक्षा व ज्ञान के क्षेत्र में इसके बाजारीकरण को गाली क्यों दी जाती है। और शिक्षा का बाजारीकरण हुआ कहाँ है? अगर ऐसा हुआ होता तो निजी क्षेत्र के विद्यालयों में शिक्षक देश भर में 1000-1200 रूपये में काम नही कर रहे होते। शिक्षक होना किसी नागरिक की आखरी प्राथमिकता नही होती। वस्तुत: विद्यालय के भवनों के मालिक जो शिक्षा से कम सरोकार रखते हैं भौतिक सम्पदा से ज्यादा लगाव है उनकी वजह से ये गालिया शिक्षाक्षेत्र के लोगों को खानी पड़ रही है। ये वास्तविक शिक्षक तो आज भी बेचारा मुफ्त में बाँट देने को आतुर बैठा है ताकि फ्री विज्ञापन से लोगों को आकर्षित कर सके व अपने भूखे पेट को कुछ दे सके। पर विशाल भवनों में धन बल से आकर्षित किए हुए युवा वर्ग का जो बौद्धिक दिवालिया निकाला जा रहा है वहाँ शिक्षा है कहाँ? आपको वह शिक्षा मिलती कहाँ है जहाँ आप अपने पैरों पर खड़े हो सकें।
क्या खूब। आपकी साइट को जहां तहां नहीं बल्कि जिस किसी ने भी देखा सराहे बगैर नहीं रहा। भला ऐसे में सफलता क्यों नहीं मिलेगी?
स्वतंत्रता के तिरेसठ वर्षों के पश्चात भी आज हम सचमुच औपनिवेशिक शासन में ही रह रहे हैं| मुठी भर अंग्रेजों ने भारतीय धरातल को निजी संपत्ति बना लिया था और आज हम अंग्रेजी बोलते मुठी भर भारतीयों का अनुसरण कर रहे हैं| मै स्वयं हिंदी भाषा में प्रवीणता का दावा नहीं करूँगा क्यों कि संयुक्त राष्ट्र अमरीका में रहते मैं अधिकतर ऐसे वातावरण में रहा हूं जहां केवल अंग्रेज़ी का बोल-बाला है और इस कारण लगभग पिछले चालीस वर्षों में हिंदी में बोलने व लिखने के अवसर कम ही मिले हैं| घर में पत्नी के साथ मैं दोआबे की ठेठ पंजाबी बोलता हूँ| न्यू यार्क स्थित गीता मंदिर में १९८०-दसक के एक सप्ताह भर चलते समारोह में भूतपूर्व शंकराचार्य पूज्यनीय स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी द्वारा श्री रामायण पर टिप्पणी सुन हिंदी में मेरी रुची पैदा हुई थी लेकिन उसे बनाये रखने का कोई साधन न होने पर अब तक एक मात्र इच्छा ही बनी रही| अब सेवानिवृत्ति के पश्चात असीम समय होने पर जैसे तैसे हिंदी में अपने विचार लिखने का प्रयास कर लेता हूँ| आज प्रयोक्ता-मैत्रीपूर्ण कम्प्यूटर व अच्छे सोफ्टवेयर के आगमन व उच्च कोटि के उपलब्ध ऑनलाइन शब्द-कोष की सहायता से देवनागरी अथवा द्रविड़ लिपियों में लिखना बहुत ही सरल हो गया है|
हिंदी समाज में ज्ञान का घाटा हो गया है मैं ऐसा नहीं मानता| जीवन भर हिंदी माध्यम से माध्यमिक शिक्षा और हिंदी साहित्य में डिग्री प्राप्त किये लोगों को मैंने यहाँ उन्नत्ति करते देखा है| नवजात शिशु की भांति भारतीय प्रवासी यहाँ के क्रियाशील वातावरण में शीघ्र अंग्रेजी भाषा सीख लेता है| भारत में न तो ऐसा वातावरण है और न ही ऐसी नीति है जो हिंदी भाषियों को उभरने का अवसर दे सकें| यदि सरकारी व गैर-सरकारी कार्यालयों में हिंदी के प्रयोग और हिंदी में पत्राचार करने को प्रोत्साहन दें या ऐसा अनिवार्य करदें तो रातो रात लाखों हिंदीभाषियों की आवश्यकता पैदा हो जायेगी| यदि आप भारत में अंग्रेजी और हिंदी समाचार पत्रों को तुलनात्मक ढंग से देखें तो विषय-वस्तु में हिंदी के समाचार पत्र किसी तरह कम नहीं हैं| अपितु अंग्रेजी के समाचार पत्रों में भाषा और विषय-वस्तु दोनों अपर्याप्त हैं| सच कहूँ न्यू यार्क टाइम्स पढने के बाद कोई अंग्रेजी का राष्ट्रीय समाचार पत्र पढ़ने पर फिर से प्रारंभिक स्कूल में आ जाने जैसा लगता है| हमें काम करने के ढंग और प्रगतिशील विचारों की बहुत आवश्यकता है और तभी ऐसा वातावरण उत्पन्न होगा जिसमें लोग केवल अंग्रेजी भाषा नहीं बल्कि अपनी व्यक्तिगत क्षमता से उन्नत्ति करेंगे| बाजार है लेकिन सर्व-व्यापक अव्यवस्था और अनैतिकता के कारण हम निर्णय नहीं कर पाते कि हमें क्या चाहिए| अर्थकाम और ऐसे बहुत ऑनलाइन ज्ञान के भण्डार है जो औसत भारतीय को मार्ग दर्शन दे सकने में समर्थ हैं| मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं|
मुझे आपका प्रयाश काफी अच्छा लगा और मैं अपने मित्रों को अर्थकाम के बारे में बताता भी रहता हूँ, आपका प्रयास सफल हो ऐसी आशा है |
यदि किसी प्रकार की मदद चाहिए तो जरूर बताइयेगा |
Anil.Pl respond to my inquiries and shoot my troubles out please.
Regards,
bhoopendra
anilji, you have already done it by presenting such a boring subject in a very interesting way. you have your own silent fan following & i am one of them. all the best!!
मैं आपका ब्लॉग रेगुलर पढता हूँ, आप जो जानकारी देते हैं कही भी उसमे पुराना पन नहीं होता, मै जब भी आपका ब्लॉग पढता हूँ लगता है जैसे मै अपने आप को recharge कर रहा हूँ. मै सन २००८ मे शेयर मार्केट से बहुत बड़ा घाटा खाकर बैठा हूँ. और अब मै शेयर मार्केट से दूर ही रहना पसंद करता हूँ. लेकिन इस घाटे ने मेरी लाइफ चेंज कर दी, अब मै १० रु. खर्च करता हूँ तो सोचता हूँ. काश उस समय आपका ब्लॉग पढ़ पता .
हमारी शुभकामनाएं !
bahut badi-2 jankari mil rahi he sir.bahut -bahut shubh kamna hamari ….. kese hum aapka or aap hamara sahyog kar sakte he ?(.www.kisansamaj.webs.com) krishi ke bare me bhi likhiye sir…
बधई
बहुत बेहतरीन कार्य कर रहें है .
रोज हिन्दी माध्यम ज्ञान बांटना कम चुनोतीपूर्ण काम नहीं है और आप इस चुनौती का बखूबी सामना कर रहें है .
हरियश राय
Sarv Pratham Aap aeivam Aapke sahyogi dhanyawad ke patra h jisne itni achhi krantikari samaan yojana ko kaaryvnivit kiye h . Isme koi lesh matra bhi shak nahi h ki aap logo ke dilo mai rach..bas jainge . Darasal koi bhi Rastra ki Matrabhasha yadi laghuta ko prapt ho jati h to nischai hi unke laadle bhi laghu se jiwan jine ke aadi ho jate h . Apna sarwangig vikash nahi kar pate yeh sochker ki mujhe angreji nahi aati ya thik se nahi aati , mann hin bhawanawo se ghira rahta h , sach puchhie jo Rashtra jaha english hi matrabhasha h uneh kanhe ki yesa karo …tum apna sara jiwan hindi padhkar hi aapne ko vikshit karo….to aap jaankar heraan ho jainge.ki. jo unnati hum dekh rahe h kadapi wah unnati kar paii .. fir kya h wo bhi athkachra bankar puchka. chatwala, sabjiwala, dudhwala bankar achhi achhi stall lagakar mast rahega . chalo …kisi tarah jiwan to bacha huwa h n !!! BHASHA KE NAAM GHOR SAJISH VARSHO SE CHAL RAHI H. HAMARE YEHA KOI GUARDIAN SADRISHYA UNCHE LOG NAHI H KYA JO IS BAAT KO ABHI TAK SAMJH HI NAHI PA RAHE H ? MATRABHASHA KI KITNI GAHRAIII HOTI H YEK SAFAL VYAKTITVE BANANE MAI!!! KYA AAP SOCH SAKTE H !!!. ANGREJ CHALE GAI..BHADHYATIT KIYE JANE PAR…JAATE JAATE YEK BHUT CHHOR GAI…..HAMRE MADHYA…HUA KYA !! JISKO YEH BHUT LAG GAYA WO TO APNE KO SHRESTH HI SAMJHNE LAGA AUR JISE YEH BHUT NAHI LAGA WO GANWAR KAHLANE LAGE … SOCHIE DO BHAIYO KE MADHYA MAI UNCHA AUR NICHA KA GHINONA KHEL SHURU HO GAYA.. AB AAP HI BATAI DONO MAI KYA PREM UPJEGA KYA ? SOCHHIE SOCHIE….. JIWAN BHAWANA SE BANA H …AUR IS TARAH HUM BHAWHIN HOTE JA RAHE HA.. GENERATION KO SAMBHAL SAKE TO SAMBHAL LIJIE….NAHI TO GAI AAPNI RAM AUR KRISHNA JI KI SANSKRITI……JAI BHARAT………………………. APNI SANSKRITI KO AUR BHI ANEK PRAKAR KA KHATRA H……. UPPER LEVEL MAI KOI GUARDIANSHIP H KYA ? MAI SVAYAM APNE GHAR KO BACHANE KI BAAT NAHI KAR RAHA BULKI PURE SAMAJ KI BAAT KAR RAHA HU . KUSANSKRITI RUPI FLOOD SE KYA AAP AB BHI APNE KO BACHA PAUGE KYA ?? KYA KOI UPPER YA NICHHE,,,,, GAIIIIL BHENSH PAANI MAI . KARO CHHAP CHHAP PAANI MAI AAPNE BACHO KE SATH …..KYA ISIKO KO MODERN KAHTE H ?????????????????????
verry verry verry good