प्रो. माइकल हडसन
ग्रीस सरकार का ऋण यूरोपीय ऋणों की लड़ी की वह पहली कड़ी है जो फटने को तैयार है। सोवियत संघ के टूटने से बने देशों और आइसलैंड के गिरवी ऋण इससे भी ज्यादा विस्फोटक हैं। ये सभी देश यूरो ज़ोन में नहीं आते, लेकिन इसमें से ज्यादातर के ऋण यूरो मुद्रा में हैं। मसलन, लात्विया के 87 फीसदी ऋण यूरो या अन्य विदेशी मुद्राओं में हैं। उसको ये ऋण स्वीडन के बैंकों ने दिए हैं। इसी तरह हंगरी और रोमानिया ने अपने यूरो ऋण का अधिकांश हिस्सा ऑस्ट्रिया के बैंकों से ले रखा है। अगर इन देशों की सरकारें यूरो ज़ोन के बाहर से कर्ज ले रही हैं तो उनका मकसद ग्रीस की तरह घरेलू बजट घाटे को पूरा करना नहीं, बल्कि अपनी मुद्रा विनिमय दरों को दुरुस्त रखना है ताकि इन निजी बैंकों से यूरो में लिए गए कर्ज का बोझ विकराल न हो जाए।
ये सभी ऋण भारी-भरकम बड़े हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश देशों का व्यापार घाटा गहराता जा रहा है और वे मंदी में डूबते जा रहे हैं। रीयल एस्टेट की कीमतें नीचे जा रही हैं तो प्रॉपर्टी खरीदने के लिए विदेशी मुद्रा के गिरवी ऋणों का प्रवाह सूख गया है। मुद्रा में स्थायित्व लाने के साधन दिख नहीं रहे हैं। पिछले साल ये देश अपनी विनिमय दरों को यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) से कर्ज लेकर संभालते रहे। इन कर्जों से जुड़ी शर्तें राजनीतिक रूप से व्यवहार्य नहीं हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बजट में कटौती, आम लोगों पर पहले से कर्ज की ऊंची दरों को और बढ़ा देना और खर्च घटाने की योजनाओं पर कौन-सी सरकार अमल कर पाएगी, वह भी तब जब पहले से ही अर्थव्यवस्था सिकुड़ रही हो। ऐसा करने पर तो कामगारों का पलायन और बढ़ जाएगा।
स्वीडन, ऑस्ट्रिया, जर्मनी और ब्रिटेन के बैंकरों को जल्दी ही यह अहसास हो जाएगा कि अगर वे ऋण न लौटा सकनेवाले देशों को ऋण दे रहे हैं तो यह उनकी समस्या है, ऋण लेनेवाले देशों की नहीं। अभी तो कोई मानने को ही तैयार नहीं है कि उनके ऋण लौटाए नहीं जाएंगे। अगर देश डिफॉल्ट करते हैं या इनके ऋण माफ करने पड़ते हैं तो किसी को तो इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। वैसे, बहुत सारे कानूनी विशेषज्ञ मानते हैं कि किसी देश को यूरो में लिए गए ऋणों का भुगतान यूरो में ही करने को बाध्य नहीं किया जा सकता। हर संप्रभु देशों को ऋण की शर्तों और मुद्रा की विनिमय दरों को तय करने का अधिकार है।
अपनी मुद्रा के अवमूल्यन का कोई औचित्य नहीं है जब तक कि उससे व्यापार व उत्पादन का पूरा पैटर्न बदलना जरूरी न हो जाए। कुछ ऐसी ही वजहों से 1933 में अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट ने सोने से सापेक्ष डॉलर का 75 फीसदी अवमूल्यन कर दिया था। उन्होंने सोने का मूल्य 20 डॉलर से बढ़ाकर 35 डॉलर प्रति औंस (28.349 ग्राम) कर दिया था। इस अनुपात में अमेरिका के कर्ज का बोझ न बढ़ जाए, इसलिए उन्होंने बैंक ऋण के भुगतान को सोने के मूल्य से जोड़नेवाला अनुच्छेद ही निरस्त कर दिया था। आज राजनीतिक संघर्ष का मुद्दा यही बात बन सकती है क्योंकि ऋण की अदायगी कमजोर हो चुकी मुद्राओं में करना अपने-आप में बड़ी फांस है।
सवाल यह है कि नुकसान कौन उठाएगा? ऋणों को यूरो में बनाए रखने से इन देशों का तमाम स्थानीय बिजनेस और रीयल एस्टेट का धंधा चौपट हो जाएगा। दूसरी तरफ इन ऋणों को कमजोर पड़ चुकी मुद्राओं में बदला जाएगा तो बहुत सारे यूरो-आधारित बैंकों की पूंजी स्वाहा हो जाएगी। लेकिन ये बैंक तो विदेशी हैं और आखिरकार सरकारों को अपने देश के मतदाता का प्रतिनिधित्व करना होता है। वहां विदेशी बैंक तो वोट देने आएंगे नहीं।
आपको यह भी बता दें कि 1971 में जब से अमेरिका ने अपने भुगतान संतुलन के घाटे को सोने में तय करने का सिलसिला बंद किया है, तब से उन मुल्कों की डॉलर होल्डिंग अपने स्वर्ण मूल्य का 29/30वां हिस्सा खो चुकी है। अब सोने का मूल्य बढ़कर 1100 डॉलर प्रति औंस हो चुका है, इसलिए उनके पास रखे डॉलर के मूल मूल्य का महज 30वां हिस्सा मिल सकता है। अगर दुनिया के तमाम देश ऐसी मार सह सकते हैं तो यूरोपीय ऋणों को माफ क्यों नहीं किया जा सकता या कम से कम उन्हें स्थानीय मुद्राओं में क्यो नहीं बदला जा सकता?
इस समस्या को हल करने का एक ही तरीका है कि ऋण माफी के लिए वार्ताएं चलाई जाएं। यह भी हकीकत है कि जब तक यह समस्या हल नहीं की जाती, तब तक यूरोप का विस्तार नहीं होगा, नया यूरोप पुराने यूरोप में समा नहीं पाएगा। लेकिन यह संक्रमण आसान नहीं है। पूरे यूरोपीय संघ के ऊपर वित्तीय हित हावी हैं। मुझे अंदेशा है कि यूरोप का गलत फैसला लाखों-लाख लोगों को सड़कों पर उतार सकता है। ऐसे में राजनीतिक व आर्थिक गठजोड़ बदल जाएंगे, मुद्राएं धूल फांकने लगेंगी और सरकारें गिर जाएंगी। हो सकता है कि यूरोपीय संघ और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय व्यवस्था की ऐसी सूरत हो जाए जैसी अभी तक न देखी गई हो।
युद्ध की रेखाएं खींची जा रही हैं कि कैसे निजी और सरकारी ऋणों की अदायगी की जानी है। यूरो में ऋण लेनेवाले देश परेशान हैं। ऋण देनेवाले देश क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के दम पर अपना रसूख दिखा रहे हैं। जैसे ही कोई देश यूरो या डॉलर में ऋण अदायगी से हिचकिचाने की शुरुआत करता है या इस पर सवाल उठाता है तो रेटिंग एजेंसियां उस देश की रेटिंग घटा देती हैं। इससे इन देशों के लिए ऋण जुटाना और महंगा हो जाता है और ऋण के अभाव में अर्थव्यवस्था के लकवाग्रस्त होने की आशंका बढ़ जाती है। संघर्ष जारी है। लगता है यह दशक काफी दिलचस्प होगा।
लेखक लात्विया की रिफॉर्म टास्क फोर्स (आरटीएफएल) के मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं। वे अपने ही नाम से वेबसाइट भी चलाते हैं।