दुनिया नाम के पीछे भागती है और दुनिया जिसके पीछे भागती है उसके दाम अपने-आप ही बढ़ जाते हैं, उसकी स्टार-वैल्यू बन जाती है। बेहतर एक्टर होने के बावजूद मनोज बाजपेयी को पान मसाला बेचना पड़ता है और औसत एक्ट्रेस होने के बावजूद प्रियंका चोपड़ा हर तरफ मटकती रहती हैं। आम जीवन का यह सूत्र शेयर बाजार पर भी लागू होता है। लेकिन हमारे बाजार में इसका उल्टा भी चलता है। लोग जिसके पीछे पड़ जाएं, उसे डुबा भी डालते हैं, बरबाद भी कर डालते हैं।
इस हफ्ते ऐसा ही कुछ चला बाजार में। सोम को डूबा बाजार शुक्र को उतराया ही नहीं, इतरा गया। सोमवार को सेंसेक्स का चंद मिनटों में 500 अंक गिर जाना और शुक्रवार को 500 अंक से ज्यादा बढ़ जाना हमारे बाजार के ऐसे सच को उजागर करता है, जिसे देखना-समझना जरूरी है। ऐसा ही कुछ इसी साल 13 अप्रैल को हुआ था जब बिना किसी खास वजह के सेंसेक्स 635 अंक उछल गया था। अगले दिन से फिर गिरने लगा। सवाल उठता है कि जो काम दिनों-महीनों में नहीं होता, वह किसी दिन चंद मिनटों में कैसे हो जाता है? क्या कारक हैं जो बाजार को इस तरह एक ध्रुव से सीधे दूसरे ध्रुव पर ले जाते हैं?
यह सच है लक्ष्मी ही नहीं, शेयर बाजार भी स्वभाव से चंचला है। यह कभी-कभी बिना किसी वजह के भी बावला हो जाता है। यह उसके स्वभाव का हिस्सा है। लेकिन भारतीय शेयर बाजार के अक्सर इस तरह अतिवादी हो जाने का एक बड़ा कारण है। वह है इसका खोखलापन, जिसका फायदा उठाकर ऑप्शंस ट्रेडर और संस्थागत निवेशक इसके साथ धूम-धड़ाक करते रहते हैं।
देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत के बीस साल बाद भी हमारा बाजार संकरा है, खोखला है, ठस है। मुंबई ही नहीं, अहमदाबाद, कोलकाता, दिल्ली और यहां तक कि दुबई व लंदन में बैठे मुठ्ठी भर ऑपरेटरों के इशारों पर नाचता है। उम्मीद थी कि उदारीकरण के बाद पहले से सुगबुगा रही इक्विटी संस्कृति और व्यापक हो जाएगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा। 1990 के दशक में सेबी द्वारा कराए गए सर्वे के मुताबिक देश में निवेशकों की संख्या दो करोड़ थी। बीस साल बाद यह संख्या बढ़ने के बजाय घटकर 80 लाख पर आ गई है। यह हम नहीं कहते, डी स्वरूप समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है। इस 80 लाख में शेयर बाजार से लेकर म्यूचुअल फंडों और बीमा कंपनियों की यूलिप स्कीमों के निवेशक भी शामिल हैं।
आज कैश सेगमेंट में संभवतः कुछ हजार निवेशक ही ट्रेड करते हैं। एनएसई और बीएसई में कैश सेगमेंट का वोल्यूम तेजी से घट रहा है। वहीं दूसरी तरफ स्टॉक व इंडेक्स ऑप्शंस का वोल्यूम तेजी से बढ़ रहा है। बीएसई में डेरिवेटिव्स में सन्नाटा है, जबकि कैश सेगमेंट में रोज का औसत कारोबार 2800 करोड़ रुपए है। एनएसई में कैश सेगमेंट का हर दिन का औसत वोल्यूम 10,000 करोड़ रुपए है, जबकि डेरिवेटिव सेगमेंट (फ्यूचर्स व ऑप्शंस) में हर दिन का औसत कारोबार 90,000 करोड़ रुपए से ज्यादा है। कभी-कभी यह दो लाख करोड़ रुपए के आसपास भी पहुंच जाता है। जैसे, कल 24 जून को एनएसई के एफ एंड ओ में हुआ कुल कारोबार 1,97,862.56 करोड़ रुपए का था जिसमें से फ्यूचर्स में हुआ कारोबार 40,596.34 करोड़ रुपए (20.52 फीसदी) था, जबकि ऑप्शंस में हुआ कारोबार 1,57,266.22 करोड़ रुपए (79.48 फीसदी) था।
रोज के वोल्यूम के ये आंकड़े निश्चित रूप से एक दशक पहले से काफी ज्यादा है। लेकिन हकीकत यह है कि एनएसई के डेरिवेटिव सेगमेंट में कुछ लाख लोग ही ट्रेड करते हैं और इनमें से भी करीब 20,000 लोग 90 फीसदी ट्रेडिंग करते हैं। पिछले साल वित्त राज्यमंत्री नमो नारायण मीणा ने संसद में प्रश्नोत्तर के दौरान बताया था कि अप्रैल 2010 से जून 2010 के दौरान तीन महीनों में डेरिवेटिव में हुए कारोबार का 80 फीसदी हिस्सा केवल 2188 निवेशकों से आया था। 70 फीसदी ट्रेडिंग 537 निवेशकों ने और 60 फीसदी ट्रेडिंग मात्र 223 निवेशकों ने की थी। कमाल है कि 80 लाख निवेशकों में भी 60 फीसदी ट्रेडिंग 223 निवेशकों के हाथों में कैद है! यही नहीं, एनएसई में डेरिवेटिव्स में हुए कुल वोल्यूम का 50 फीसदी हिस्सा 106 निवेशकों ने ट्रेड किया था और इसमें से भी 58 प्रॉपराइटरी ट्रेडर थे यानी वे ब्रोकर या संस्थाएं जिन्होंने किसी बाहरी निवेशक के लिए नहीं, बल्कि अपने खाते से ट्रेड किया था।
यह तस्वीर हमारे वित्त मंत्रालय के सामने है, नीति-नियामकों के सामने है, सेबी के सामने है, स्टॉक एक्सचेंजों के सामने है। जब संसद तक के पटल पर यह सच रखा जा चुका है तो फिर और बचता ही क्या है? भारतीय शेयर बाजार का यूं मुठ्ठी भर हाथों में सिमटा होना, उसका छिछलापन, उसका रीतापन हमें आम दिनों में नहीं दिखता। लेकिन जैसे ही कुछ असामान्य घटता है, झटका लगता है, उसका यह खोखलापन खुलकर सामने आ जाता है। तब पता चलता है कि बाजार में वास्तविक निवेशक, खरीदार या हेजर या सट्टेबाज असल में कितने हैं और उनमें किसकी क्या औकात क्या है। स्वाभाविक निवेशकों के अभाव में बाजार कभी 500 अंक चढ़ जाता है तो कभी बिना किसी ठोस व सार्थक वजह के 500 अंक गिर जाता है। नहीं तो सोमवार को मॉरीशस संधि की समीक्षा जैसी कयासबाजी पर बाजार इतना नहीं गिर जाता। उसकी मार खाए जीटीएल और के एस ऑयल जैसे शेयर अभी तक उबर नहीं पाए हैं। उन पर रह-रहकर हमला जारी है।
हमारे बाजार की सबसे बड़ी समस्या है कि यहां सब छोटी-छोटी अवधि के निवेशक हैं। एफआईआई से लेकर आम ट्रेडर और निवेशक तक। लंबी अवधि के निवेशक उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। एलआईसी जैसी संस्थाएं यकीकन लंबे समय की निवेशक हैं। लेकिन उसकी अपनी समस्याएं हैं। बाकी बीमा कंपनियां व म्यूचुअल फंड इतने बड़े नहीं बन पाए हैं कि बाजार को अचानक लगनेवाले झटकों से बचा सकें। 1990 के दशक के शुरुआती सालों में हमारे नीति-नियामकों को उम्मीद थी कि म्यूचुअल फंड आम लोगों की बचत को खींच पाएंगे और अंततः दीर्घकालिक निवेशक की हैसियत हासिल कर लेंगे। साल 2000 में बीमा कारोबार को निजी क्षेत्र के लिए खोले जाते वक्त भी कुछ ऐसी ही उम्मीद की गई थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वित्त मंत्रालय, सेबी, आईआरडीए व पीएफआरडीए और अन्य नीति-नियामक संस्थान अगर गंभीरता से इस समस्या पर गौर करेंगे तो इसका समाधान निकालना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक हम जैसे आम निवेशकों को मानकर चलना चाहिए कि शेयर बाजार यूं ही चंद लोगों की हरकतों पर नाचता रहेगा। कभी पागल सांड की तरह उत्पात मचाएगा तो कभी गादर बैल की तरह बैठ जाएगा। यह न तो देश के वर्तमान के लिए अच्छा है और न ही भविष्य के लिए। देश के संतुलित आर्थिक विकास और पूंजी के स्वावलंबन के लिए इस सांड के नांथना जरूरी है।