।।चंद्रभूषण।।*
अट्ठारह साल के एक नौजवान ने अपने पिता को लिखे पत्र में बड़े उत्साह से अपने रिसर्च टॉपिक के बारे में बताया। जवाब में भेजी गई चिट्ठी में पिता ने लिखा, “बेटे, समानांतर रेखाओं के फेरे में तो तुम हरगिज न पड़ना। यह रास्ता मेरे लिए अच्छी तरह जाना-बूझा है। न जाने कितनी अंतहीन रातें जागकर मैंने इसकी थाह लेने की कोशिश की है लेकिन मेरे जीवन की सारी रोशनी, मेरी सारी खुशी इस प्रयास में स्वाहा हो गई। इसे उतनी ही हिकारत से त्याग दो, जैसे कोई सच्चरित्र व्यक्ति अवैध यौन संबंध के प्रस्ताव से नजरें फेर लेता है। यह तुम्हें जीवन के हर आनंद से वंचित कर देगा। तुम्हारा स्वास्थ्य चौपट हो जाएगा। आराम छिन जाएगा और तुम्हारे जीवन से खुशी हमेशा के लिए गायब हो जाएगी।”
हंगरी के दो महान गणितज्ञों जानोस बोल्याई और फर्कास बोल्याई के बीच 1820 में हुआ यह पत्र-व्यवहार गणित के इतिहास में सदियों संजोकर रखने लायक चीज बन गया है। यहां वे ज्योमेट्री (रेखागणित) की आधारशिला रखने वाले यूनानी गणितज्ञ यूक्लिड की इस पांचवीं प्रस्थापना के बारे में बात कर रहे हैं कि किसी रेखा के बाहर स्थित एक बिंदु से होकर उस रेखा के समानांतर एक और केवल एक ही रेखा खींची जा सकती है। ईसा के तीन सौ साल पहले दी गई यूक्लिड की प्रस्थापनाओं को पूरी दुनिया में अंतिम सत्य माना जाता था। लेकिन यूरोप के गणितज्ञों में पांचवीं प्रस्थापना को लेकर कुछ शंका मौजूद थी। यह यूक्लिड की बाकी प्रस्थापनाओं, मसलन, दो चीजें अगर तीसरी चीज के बराबर हों तो वे आपस में भी बराबर होती हैं, की तरह कॉमनसेंस वाला मामला तो था नहीं। ऐसे में वे इसे प्रस्थापना के बजाय प्रमेय मानकर सोलहवीं सदी से ही इसे सही या गलत साबित करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन कहीं पहुंच नहीं पा रहे थे।
जानोस और फर्कास की कहानी को आगे बढ़ाने पर इसका एक कोण विश्व इतिहास के पांच महानतम गणितज्ञों में एक कहे जाने वाले जर्मन गणितज्ञ कार्ल फ्रेडरिक गॉस से जुड़ता है। फर्कास अपने बेटे को दस साल की उम्र में गॉस के यहां ले गए थे और उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करने का निवेदन किया था। गॉस इसके लिए तैयार नहीं हुए और जानोस को पढ़ाई के लिए विएना भेज दिया गया। वहां घूम-फिर कर उनकी रुचि यूक्लिड की पांचवीं प्रस्थापना में ही अटक गई, जो उनके पिता की पूरी जवानी खा गई थी। लेकिन फर्कास से विपरीत जानोस की कोशिश कामयाब रही। यूक्लिड को सही या गलत साबित करने के प्रयास में वे नॉन-यूक्लिडियन ज्योमेट्री की नींव रखने की ओर चले गए। 1822 में उन्होंने फर्कास को लिखा, “मैंने शून्य से एक अद्भुत नया ब्रह्मांड रच डाला है।”
फर्कास बोल्याई को अपने बेटे का काम अपनी तपस्या पूरी होने जैसा लगा। अगले दस सालों में उन्होंने अपना ग्रंथ ‘टेंटामेन’ पूरा किया और उसके परिशिष्ट में जानोस बोल्याई की खोज को महत्वपूर्ण जगह दी। 1932 में प्रकाशित अपनी इस किताब को उन्होंने मूल्यांकन के लिए गॉस के पास भेजा और उनसे खासतौर पर अपने बेटे के काम के बारे में राय मांगी। जवाब में गॉस ने लिखा, “इसकी प्रशंसा करना मेरे लिए खुद की प्रशंसा करने जैसा होगा क्योंकि इस काम की लगभग पूरी अंतर्वस्तु मेरे खुद के सोच-विचार के संपूर्णतः समतुल्य है।” जानोस के लिए गॉस का यह जवाब दिल तोड़ देने वाला साबित हुआ। उनकी नौकरी छूट गई। वे धीरे-धीरे घुलने लगे और कुल 57 साल की उम्र में 10 हजार पृष्ठों की गणितीय पांडुलिपियां अपने पीछे छोड़कर दुनिया से विदा हो गए।
अपने जवाब में गॉस किसी खलनायक जैसे नजर आते हैं, लेकिन यहां उनका दोष सिर्फ थोड़े अतिकथन का है। नॉन-यूक्लिडियन ज्योमेट्री में उनका काम जानोस बोल्याई से मिलता-जुलता है, लेकिन दोनों में ‘संपूर्णतः समतुल्य’ जैसा कुछ नहीं है। गॉस का सबसे कमजोर पक्ष यह था कि ज्योमेट्री के पुराण-पुरुष यूक्लिड की बात काटने की हिम्मत वे नहीं कर पाए और इसी हिचक में अपने काम को सार्वजनिक करने से रह गए। जानोस और गॉस के आसपास ही लोबाचेव्स्की ने और फिर राइमान ने नॉन-यूक्लिडियन ज्योमेट्री को मुकम्मल शक्ल दी और आज की गणित या भौतिकी की कल्पना इसके बगैर नहीं की जा सकती।
एक विज्ञान के रूप में गणित की छवि किसी तपस्वी की साधना जैसी ही है। इसकी क्रांतिकारी खोजें भी प्रायः अचर्चित रह जाती हैं या चर्चित होने में उन्हें इतना वक्त लगता है कि खोजी के लिए अपनी खोज ही बेमानी हो जाती है। इसके दो उज्ज्वल अपवाद यूनान के आर्किमिडीज और ब्रिटेन के आइजैक न्यूटन हैं जो जितने बड़े गणितज्ञ थे, उतने ही बड़े मिलिट्री साइंटिस्ट भी थे। उनका असर जितना आने वाले समय पर पड़ा, उतना ही अपने समय पर भी दर्ज किया गया। बतौर गणितज्ञ उनकी हैसियत को उनके शाही रुतबे के चलते कम करके नहीं आंका गया। लेकिन पिछली सदी में इस खेल के नियम बदल गए।
जीएच हार्डी ने (भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन को दुनिया के सामने लाने के लिए हम जिनके प्रति कृतज्ञ हैं) अपने निबंध ‘अ मैथमेटिशियंस अपॉलजी’ में प्योर मैथमेटिक्स और एप्लाइड मैथमेटिक्स को बिल्कुल अलग-अलग चीजों की तरह देखा है। वे अपना जीवन एक ऐसे गणित के प्रति समर्पित बताते हैं, जिसका कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। इसका उन्हें कोई दुख नहीं है। बस एक संतोष है कि अपनी जिंदगी उन्होंने एक सौंदर्य की खोज में लगाई है, किसी के लिए मुनाफा कमाने या युद्ध जीतने की कवायद में नहीं। यह बात और है कि अंकगणित से जुड़ा हार्डी और रामानुजन का बहुत सारा काम द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान (यानी अपॉलजी लिखे जाते समय भी) कूट संकेतों के विज्ञान क्रिप्टॉलजी में इस्तेमाल हो रहा था और इसके बारे में उन्हें पता तक नहीं था।
इंसान की लालच और उसकी खुदगर्जी संसार की हर चीज का इस्तेमाल कर सकती है। प्योर मैथमेटिक्स के पुजारी किसी भी गिरि-कंदरा में छिप जाएं, धंधेबाज लोग वहां से भी उनके काम को खोज लाएंगे और अपने धंधे में लगा लेंगे। लेकिन हार्डी के निबंध का मूल तत्व प्योर मैथमेटिक्स को महिमामंडित करने का नहीं, गणित के उस दूसरे पहलू को सामने लाने का है, जो अपने सौंदर्य में पेंटिंग, संगीत या कविता जैसा और सत्य के प्रति अपने आग्रह में दर्शन जैसा है। अभी के समय में रूसी गणितज्ञ ग्रिगोरी पेरेलमान हार्डी के इन मानकों पर सबसे ज्यादा खरे उतरते हैं, हालांकि अपनी ही दुनिया में मगन रहने वाले इस साधक के बारे में उसके करीबी लोगों का कहना है कि गणित से उनका रिश्ता अब बीते दिनों की बात हो चुका है। एक खटास भरे प्रकरण के बाद उन्होंने खुद को अपने दूसरे शौकों, जैसे पियानो बजाने और टेबल टेनिस खेलने तक सिमटा लिया है।
गणित के सामने मौजूद सहस्राब्दी की सात सबसे बड़ी चुनौतियों में एक प्वांकारे कंजेक्चर (जिसका कुछ सिर-पैर जानने के लिए आपको सतहों के उतार-चढ़ाव से जुड़े टोपोलजी के कठिन शास्त्र में घुसना पड़ेगा) को उन्होंने हल किया लेकिन इसके लिए मिले फील्ड्स मेडल और दस लाख डॉलर के मिलेनियम अवार्ड को यह कहकर ठुकरा दिया कि गणित के क्षेत्र में आई अनैतिकता या अनैतिक तत्वों को बर्दाश्त करने की प्रवृत्ति उन्हें इनको अपनाने से रोक रही है। दरअसल, गणित का नोबेल कहे जाने वाले फील्ड्स मेडल से विभूषित चीन के दो गणितज्ञों ने पेरेलमान की खोज का श्रेय अपने देश के ही दो चेलों को देने का प्रयास किया, हालांकि इस पूरे एपीसोड का अंत चीनी गणितज्ञों के माफीनामे और उनके द्वारा अपनी रिसर्च वापस लेने के रूप में हुआ।
*लेखक उन मुठ्ठी भर पत्रकारों में शामिल हैं जो माटी की धड़कनों से लेकर क्रांतिधर्मी राजनीति तक की परख रखते हैं। गणित के विद्यार्थी रहे हैं। यह लेख उनके ब्लॉग पहलू पर पहले प्रकाशित हो चुका है
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