विदेशी मुद्रा के डेरिवेटिव सौदे इसीलिए होते हैं कि आयातक-निर्यातक डॉलर से लेकर यूरो व येन तक की विनिमय दर में आनेवाले उतार-चढ़ाव से खुद को बचा सकें और डेरिवेटिव सौदे कराने का काम मुख्य रूप से हमारे बैंक करते हैं। लेकिन अगस्त 2006 से अक्टूबर 2008 के दौरान जब रुपया डॉलर के सापेक्ष भारी उतार-चढ़ाव का शिकार हुआ, तब बैंकों ने हमारे निर्यातकों को ऐसे डेरिवेटिव कांट्रैक्ट बेच दिए जिनसे उनको तो फायदा हो गया, लेकिन निर्यातकों को करोड़ों का नुकसान हो गया। मामला उड़ीसा हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट जा पहुंचा है तो रिजर्व बैंक बैंकों का ही पक्ष लेता नजर आ रहा है। इसकी अगली सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में जुलाई के पहले हफ्ते में होनी है।
रिजर्व बैंक जून महीने के अंत तक ऐसे दिशानिर्देश ला रहा है कि जिससे छोटे कारोबार वाले निर्यातकों को हेजिंग के लिए बेहतर डेरिवेटिव सौदों का लाभ ही नहीं मिल पाएगा। इन दिशानिर्देशों का प्रारूप उसने 12 नवंबर 2009 को जारी किया था। रिजर्व बैंक का कहना है कि एसएमई (लघु व मध्यम उद्योग) क्षेत्र के लोगों को जटिल करेंसी डेरिवेटिव उत्पादों की समझ नहीं होती और उन्हें इनकी जरूरत भी नहीं है। दूसरे 2006-08 के दौरान कॉरपोरेट क्षेत्र को विदेशी मुद्रा दरों में उतार-चढ़ाव से 31,719 करोड़ रुपए का एमटूएम (मार्क टू मार्केट) नुकसान हुआ था, जिसमें से एसएमई का नुकसान केवल 350 करोड़ रुपए का था। लेकिन महज एक फीसदी चोट के बावजूद एसएमई क्षेत्र की इकाइयां बहुत होहल्ला मचा रही हैं। इसकी वजह से प्रेस में भी बैंकों के खिलाफ काफी गलत-सलत लिखा गया है।
दरअसल, इस मसले पर प्रवंजन पात्र नाम के बिजनेसमैन ने उड़ीसा हाईकोर्ट में एक पीआईएल (जनहित याचिका) दायर की थी। 27 अगस्त 2009 को सुनवाई के बाद हाईकोर्ट ने सीबीआई को निर्देश दिया कि वह सभी से जानकारी लेने के बाद 4 नवंबर को इस मामले में पर अपनी रिपोर्ट सौंपे। सीबीआई ने कोर्ट को सौंपी अपनी विस्तृत रिपोर्ट में बताया था कि कैसे रिजर्व बैंक ने इस मामले में 22 बैंकों से पूछताछ की है और दिसंबर 2008 तक इन बैकों को विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव सौदों पर 31,719 करोड़ रुपए का एमटूएम फायदा मिला है। लेकिन यह सांकेतिक है और इसमें से उन्हें दिसंबर 2008 तक 755.45 करोड़ ग्राहकों से मिल जाने थे, जो उन्होंने नहीं दिए हैं। इसके बाद 24 दिसंबर 2009 को उड़ीसा हाईकोर्ट ने सारे पहलुओं पर विचार करने के बाद कहा कि यह राष्ट्रहित का मसला है और अगर आरोप सही पाए गए तो सीबीआई अर्थव्यवस्था को प्रभावित करनेवाले बड़े वित्तीय घोटाले का पर्दाफाश करेगी।
इस आधार पर उड़ीसा हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि इस मामले की व्यापक जांच सीबीआई से कराई जाए। लेकिन इसके बाद बैंकों के शीर्ष संगठन इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (आईबीए) और विदेशी मुद्रा डीलरों के संघ एफआईएमएमडीए (फिक्स्ड इनकम मनी मार्केट डेरिवेटिव एसोसिएशन) ने उड़ीसा हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर दी। और, सुप्रीम कोर्ट ने 19 फरवरी 2010 को इस पर अंतरिम स्टे दे दिया। मामले की अगली सुनवाई जुलाई के पहले हफ्ते में है। लेकिन इस बीच डेरिवेटिव सौदो में काफी घाटा सह चुके तिरुपुर के निर्यातकों ने भी इस मामले में प्रवंजन पात्र के साथ एक पक्ष बनने की अर्जी मई के पहले हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट में लगा दी है। तिरुपति के फॉरेक्स डेरिवेटिव्स कंज्यूमर फोरम के प्रतिनिधि व चार्टर्ड एकाउंटेंट एस धनंजय का कहना है कि हमने अपनी याचिका में सीबीआई जांच पर लगाए गए स्टे को हटाने की मांग भी है क्योंकि सीबीआई जांच ही इस घोटाले की तह तक पहुंच सकती है और भारतीय निर्यातकों को बड़े संकट का समाधान निकाल सकती है।
गौरतलब है कि अगस्त 2006 में डॉलर की विनिमय दर 46 रुपए थी। लेकिन अगस्त 2007 में यह 41 रुपए से भी नीचे पहुंच गई। दिसंबर तक यह 39.40 रुपए हो गई। इस दौरान रिजर्व बैंक बाजार से बड़े पैमाने पर डॉलर खरीदता रहा ताकि रुपए की मजबूती को थामा जा सके। इसके बावजूद जनवरी 2008 में डॉलर 39 रुपए का हो गया। खैर, आखिरकार रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप में जुलाई 2008 में डॉलर की विनिमय दर 43 रुपए पर आ गई और अक्टूबर 2008 तक यह 50 रुपए की तलहटी पर आ गई। इस दौरान निर्यातक घबराकर अपनी आय को विनिमय दरों के इस उतार-चढ़ाव से बचाने के लिए बैंकों के पास भागते रहे। लेकिन बैंकों ने उन्हें ऐसे फॉरेक्स डेरिवेटिव कांट्रैक्ट बेच डाले जिससे निर्यातकों को फायदे के बजाय नुकसान हो गया।