उदय प्रकाश की एक कहानी है राम सजीवन की प्रेमकथा। इसमें खांटी गांव के रहनेवाले किसान परिवार के राम सजीवन जब दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने जाते हैं तो वहां कोई लड़की कानों में सोने का बड़ा-सा झुमका या गले में लॉकेट पहनकर चलती थी तो वे बोलते थे कि देखो, वह इतना बोरा गेहूं, सरसों या धान पहनकर चल रही है। ऐसा ही कुछ। मैंने वो कहानी पढ़ी नहीं है। लेकिन इतना जानता हूं कि हम में से अधिकतर लोग शहरों में पहुंचकर किसान मानसिकता से ही सारी चीजों को तौलते हैं। देश का बजट भी इसका अपवाद नहीं है।
जैसा अपना या अपने घर का बजट होता है वैसा ही देश के बजट को समझते हैं। अंदर से मानते हैं कि यह जिसे हम देश का बजट मान रहे हैं कि वह असल में सरकार का बजट है। वैसे, बात कुछ हद तक सही भी है क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार ही समूचे देश का प्रतिनिधित्व करती है, ऐसा मानने का कोई तुक नहीं है। यहां तो लॉबीइंग का खेल चलता है, ताकतवर समूहों का खेल चलता है, जो देश के भी हो सकते हैं और विदेशी भी। इसीलिए वित्त मंत्री बजट बनाने के कई महीने पहले ही समूहों की राय लेने का क्रम शुरू कर देते हैं। कुछ बैठकें सार्वजनिक तौर पर होती हैं और कुछ का काम परदे के पीछे चलता है। समाज के जो वंचित तबके हैं, जिनकी कोई संगठित आवाज़ नहीं होती, उनका भी ध्यान रखा जाता है ताकि उन्हें चुप रखा जा सके और देश-समाज में सामंजस्य व संतुलन बना रहे। इससे इतर इन वंचित तबकों को सशक्त बनाने की कोशिश कम ही होती है।
वजह बड़ी मूलभूत है। अभी हाल ही मैंने मिंट अखबार में अर्थशास्त्री मिंटन फ्रीडमैन का रोचक विचार पढ़ा कि धन खर्च करने के चार तरीके होते हैं और चारों का अभिप्राय व असर अलग-अलग होता है। जब आप अपना धन अपने ऊपर खर्च कर रहे होते हैं तो कोशिश रहती है कि उसका सबसे बेहतर इस्तेमाल हो। जब आप अपना धन पराए पर खर्च करते हैं तो आप कोशिश करते हैं कि खर्च कम से कम हो। जब आप पराया धन अपने ऊपर खर्च करते हैं तो चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा लिया जाए। चौथा तरीका होता है जब आप दूसरे का पैसा दूसरे पर खर्च कर रहे होते हैं। तब आप न तो खर्च के तरीके और न ही उसके असर के बारे में ज्यादा फिक्र करते हैं। यह मूल मानव स्वभाव है। देश के बजट में असल में यही होता है जब वित्त मंत्री टैक्स या कर्ज जैसे उपायों से जुटाई गई रकम के खर्च का ब्यौरा तैयार करते हैं। इसलिए यहां लॉबीइंग का खेल चलता है। जो मारे सो मीर।
वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी के बजट भाषण को सुनते हुए इस हकीकत तो ध्यान में रखना जरूरी है। वित्तीय घाटा जीडीपी का इतना हो गया, प्रत्यक्ष कर से इतने मिले, एक्साइज व कस्टम से इतने मिले, यह सारी बातें तो महज अंकगणित हैं। बजट का सामाजिक बीजगणित समझना जरूरी है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जो दिखता है अक्सर वैसा होता नहीं है। जैसे, सरकार और तमाम दिग्गज अर्थशास्त्री सब्सिडी के भारी बोझ का रोना रोते रहते हैं। इस साल की सब्सिडी का बजट अनुमान 1,11,276 करोड़ रुपए है जिसका बड़ा हिस्सा खाद और खाद्य सब्सिडी में जाता है। यह सब्सिडी किसानों व गरीबों के नाम पर खर्च की जाती है, लेकिन असल में इससे खाद कंपनियों की अक्षमता और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) की अकर्मण्यता को पोसा जाता रहा है।
यह भी गौर करने की बात है कि सरकार द्वारा जुटाए गए धन का बड़ा हिस्सा अपने पूरे तंत्र को चलाने और पुराने पापों को काटने में चला जाता है। इस खर्च को सरकारी भाषा में गैर-आयोजना व्यय कहते हैं और इस साल यह कुल 10,20,838 करोड़ रुपए के अनुमानित खर्च में से 6,95,689 करोड़ रुपए यानी 68.15 फीसदी रहा है। इसका संशोधित अनुमान प्रणब दा आज दोपहर को पेश करेंगे। लेकिन इतना तो साफ है कि सरकार कुल बजट का 31.85 फीसदी हिस्सा ही नए कामों या योजना मद में खर्च करती है।
सरकार के पास धन या तो टैक्स वगैरह से आता है या कर्ज से। इस साल टैक्स से कुल 6,41,079 करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य था जिसमें से 3,70,000 करोड़ आयकर व कॉरपोरेट जैसे प्रत्यक्ष कर से और 2,69,477 करोड़ रुपए एक्साइज व कस्टम जैसे परोक्ष कर से आने थे। इस साल कर्ज से 4,00,996 करोड़ रुपए जुटाए जाने थे और यह पूरी रकम लगभग जुटाई जा चुकी है। सरकार के इसी कर्ज को वित्तीय घाटा या फिस्कल डेफिसिट कहते हैं। यह 2009-10 के अनुमानित सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 58,56,569 करोड़ रुपए का 6.8 फीसदी ठहरता है। शायद इसका संशोधित अनुमान 5.5 फीसदी रह सकता है। ऐसा कुछ दिनों पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था। उद्योग जगत और उनके नुमाइंदा अर्थशास्त्री वित्तीय या राजकोषीय घाटे के इस आंकड़े को बड़ी अहमियत देते हैं। आज टीवी चैनलों पर वे इसको लेकर काफी माथापच्ची करेंगे। चाहें तो खुद देख लीजिएगा।