अगर दांतेवाड़ा का नक्सली हमला एक महीने पहले हो जाता तो शायद सरकारी कंपनी एनएमडीसी का 10 से 12 मार्च तक खुला एफपीओ (फॉलो ऑन पब्लिक ऑफर) एकदम सब्सक्राइब ही नहीं हो पाता क्योंकि कंपनी अपने लौह अयस्क का 80 फीसदी हिस्सा इसी जिले की खानों से निकालती है। वह कुल 290 लाख टन लौह अयस्क का उत्पादन करती है जिसमें से 220 लाख टन दांतेवाड़ा जिले की बैलाडीला और 70 लाख टन कर्णाटक की दोणिमिले खानों से आता है। कंपनी दांतेवाडा इलाके में पिछले करीब 50 साल से लौह अयस्क निकाल रही हैं। वह देश की सबसे बड़ी लौर अयस्क उत्पादक कंपनी है। इसे वह घरेलू बाजार में बेचने के अलावा निर्यात भी करती है।
उसने कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के नाम पर स्कॉलरशिप, कुछ स्कूल, एक पॉलिटेक्निक, एक आईटीआई, अक्षय-पत्र एनजीओ के साथ मिलकर मिड-डे मील स्कीम और हॉस्टिपल ऑन व्हील जैसी स्वास्थ्य सेवाएं चला रखी हैं। रोजगार सृजन व कौशल विकास की भी फुटकर योजनाएं उसने चलाई हैं। लेकिन पूरी तरह सरकारी कंपनी होने के बावजूद उसने दांतेवाड़ा से खरबों की संपदा हासिल करने की यात्रा में स्थानीय आदिवासी बहुत आबादी को रत्ती भर भी भागीदार नहीं बनाया है।
मंगलवार को सीआरपीएफ के गश्ती दल पर अब तक से सबसे बड़े नक्सली हमले के बाद इस इलाके में गए एक प्रमुख टेलिविजन चैनल के संवाददाता ने बताया कि वहां के आदिवासियों में एनएमडीसी के प्रति कोई जुड़ाव नहीं है और वे इसे बाहर के आक्रांता जैसा ही मानते हैं। उनका कहना था कि एनएमडीसी पूजा के चंद अक्षत फेंककर आदिवासियों को शांत रखना चाहती है जो कहीं से भी संभव नहीं है।
एनएमडीसी की वित्त वर्ष 2008-09 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक उसने 8575.46 करोड़ रुपए की आय पर 6648.23 करोड़ रुपए का कर-पूर्व लाभ और 4372 करोड़ रुपए का शुद्ध लाभ कमाया है। इसमें से कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व (सीएसआर) के मद में उसने 33.30 करोड़ रुपए खर्च किए हैं जो साल में कमाए गए शुद्ध लाभ का 0.76 फीसदी है। दूसरी तरफ इतनी ही रकम, 30.33 करोड़ रुपए उसने सीआरपीएफ व सिक्यूरिटी गार्डों पर खर्च किए हैं। इसके अलावा सालाना रिपोर्ट के लाभ-हानि खाते के संड्री मद में 22.31 करोड़ रुपए का अन्य खर्च दिखाया गया है जो शायद नक्सलियों को दी गई लेवी या जबरिया वसूली की रकम हो। एक रिपोर्ट के मुताबिक निजी खदान वालों को भी 42 रुपए प्रति टन के हिसाब से लेवी देनी होती है जो हर साल 20 फीसदी बढ़ा दी जाती है।
बस्तर इलाके में कई सालों से आदिवासियों के बीच में काम करनेवाले एक सामाजिक कार्यकर्ता ने अपना नाम न जाहिर करते हुए बताया कि जब सरकारी कंपनी ने ही 50 साल की विकास यात्रा में स्थानीय लोगों को भागीदार नहीं बनाया है तो अगर श्रीप्रकाश जायसवाल जैसे केंद्रीय मंत्री या खुद गृह मंत्री पी चिदंबरम विकास की धारा न पहुंचने के कारण आदिवासियों के अलगाव की बात करते हैं तो बड़ा हास्यास्पद लगता है। इससे तो यही लगता है कि वे एक तरह की ग्लानि में घिरे शहरी मध्यवर्ग को खुश करने की कवायत कर रहे हैं। उनका कहना था कि सीआरपीएफ जैसे अर्ध-सैनिक बल भी भ्रष्ट व दबंग स्थानीय ठेकेदारों व नेताओं की रक्षा करते हैं और आदिवासियों को दुत्कारते हैं। माओवादी आदिवासियों के इसी अलगाव का फायदा उठा रहे हैं।
बता दें कि एनएमडीसी में सरकारी की इक्विटी हिस्सेदारी इस समय 90 फीसदी है। अभी पिछले महीने ही सरकार ने एफपीओ के जरिए कंपनी में अपनी 8.38 फीसदी इक्विटी बेचकर करीब 9800 करोड़ रुपए जुटाए हैं। कार्यकर्ता का कहना था कि पब्लिक सेक्टर की कंपनी वाकई पब्लिक से कितनी जुड़ी होती है और उसका कितना भला करती है, यह बात दांतेवाड़ा में एनएमडीसी के उदाहरण से साफ हो जाती है। फिलहाल मध्य भारत का दण्डकारण्य इलाका अशांत है और वहां की फिजाओं में मातमी और बेबसी की छटपटाहट धीरे-धीरे दम तोड़ रही है।
दरअसल यह तो सरकार की बेहयाई ही है। ऊपर से आदिवासियों की चिंता का ढोंग करती है और असलियत में दमन। इधर तो उसने साफ कर दिया है कि उसकी मंशा में जो अड़गा बनेगा उसे साफ होना होगा। दंतेवाड़ा की घटना तो एक उदाहरण भर ही हैं। एक लिहाज से इस दौर में पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग कारपोरेट जगत के आर्थिक साम्राज्य की रक्षा के लिये ही हो रहा है। जनता की गाढी कमाई का राजस्व उनके ही दमन में व्यय किया जा रहा है। जो उसके इस कदम का मुखालिफत करेगा उससे भी वे नक्सलियों की तरह ही निपटेंगे। सबसे मजेदार बात यह है कि इस समय मीडिया पूरी तरह सरकार से कदम ताल में है। अखबारों के एडोटोरिय पेज देख लीजिये। वहां सम्पादक मांग कर रहे है कि सरकार दमन का विरोध करने वाले बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों से भी कड़ाई से पेश आये। आपका यह लेख आंख खोलने वाला है। शायद इसे पढकर सम्पादकों की समझ में कुछ आये।