देश के शेयर बाजारों में सूचीबद्ध 27 फीसदी कंपनियों में पिछले कई महीनों से कोई कारोबार नहीं हो रहा है। इनमें से ज्यादातर कंपनियों के प्रवर्तक अपने शेयर पहले ही बेचकर निकल चुके हैं। लेकिन लाखों आम निवेशक इनमें से ऐसा फंसे हैं कि न उनसे उगलते बन रहा है और न ही निगलते। करोड़ों के इस गड़बड़झाले पर न तो सेबी का कोई ध्यान है और न ही कॉरपोरेट मामलात इसे तवज्जो दे रहा है।
बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) में सूचीबद्ध कुल 6153 कंपनियों में से इस समय 1671 कंपनियों के शेयरों में कोई कारोबार नहीं हो रहा है। इनमें आम निवेशकों के भले ही अरबों रुपए फंसे हों, कंपनियों के प्रवर्तकों को कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे पहले ही अपने हिस्से की मलाई काट चुके हैं। दिलचस्प बात यह है कि कई प्रवर्तकों ने या तो खुद अपनी कंपनियों में ट्रेडिंग सस्पेंड करवाई है या जान-बूझकर लिस्टिंग समझौते को तोड़ा है जिससे उनकी कंपनी डीलिस्ट हो गई हैं।
बाजार के जानकारों का कहना है कि स्टॉक एक्सचेंजों के ढीले रवैये और कड़ी वैधानिक व्यवस्था न होने के कारण ही आम निवेशकों के हितों के साथ ऐसा खिलवाड़ हो रहा है। उनका कहना है कि इस बारे में पूंजी बाजार नियामक संस्था, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) को कठोर मानक अपनाए ताकि कंपनियों का प्रबंधन इतनी आसानी से लिस्टिंग के दिशानिर्देशों को मानने से बच न सके।
बीएसई और एनएसई की वेबसाइट पर उपलब्ध ताजा आधिकारिक जानकारी के मुताबिक बीएसई में सूचीबद्ध 4700 कंपनियों में से 1513 और एनएसई में सूचीबद्ध 1453 कंपनियों में से 158 कंपनियों के शेयरों में ट्रेडिंग रुकी पड़ी है। आरोप है सूचीबद्धता समझौते के नियमों का पालन न करना। लेकिन एक तरह जहां एक्सचेंज अपना वोल्यूम बढ़ाने की हरचंद कोशिश कर रहे हैं, वहीं इन कंपनियों में ट्रेडिंग शुरू करने को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है।
कार्वी स्टॉक ब्रोकिंग के वाइस प्रेसिडेंट अमरीश बालिगा का कहना है कि सेबी को कंपनियों की ‘डीलिस्टिंग’ या ‘सस्पेंशन’ के मुद्दे पर भी गौर करना चाहिए क्योंकि तमाम कंपनियां जान-बूझकर ऐसा करती है कि उनके शेयरों में ट्रेडिंग अनिश्चित समय के लिए रोक दी जाए।
बीएसई में सूचीबद्ध कंपनी सीएनआई रिसर्च के प्रबंध निदेशक किशोर ओस्तवाल बताते हैं कि बहुतेरी डीलिस्टेड या सस्पेंडेड कंपनियों की इक्विटी संरचना, प्रवर्तकों का ब्योरा, आखिरी ट्रेड किए गए मूल्य या उनमें पब्लिक की शेयरधारिता के बारे में कोई जानकारी कहीं से नहीं मिलती। इसलिए आम निवेशकों को हुए नुकसान का ठीकठाक अंदाजा लगा पाना भी मुश्किल है। लेकिन ऐसी 876 कंपनियों (बीएसई की 789 और एनएसई की 87) के अध्ययन से पता चलता है कि जिस तारीख को इनके शेयरों में कारोबार रोका गया, उस समय इनका बाजार पूंजीकरण 61,517 करोड़ रुपए था। इनमें से ज्यादातर कंपनियों के प्रवर्तक डीलिस्टिंग के पहले ही बाजार में अपने शेयर बेचकर निकल गए थे और कंपनी में उनकी हिस्सेदारी 5 फीसदी से नीचे आ गई है। कुछ कंपनियों में तो यह 1 फीसदी से भी कम है।
आम शेयरधारकों के सामने समस्या यह है कि कंपनियों में ट्रेडिंग रुक जाने के बाद उनका निवेश ऐसी लाश बन जाता है जिससे आप पिंड नहीं छुड़ा पाते। के आर चोकसी शेयर एंड स्टॉक ब्रोकर्स के प्रबंध निदेशक देवेन चोकसी बताते हैं कि ऐसी सूरत में निवेशक अपना डीमैट खाता भी नहीं बंद करवा पाता क्योंकि इससे पहले शेयर किसी और बेचने या ट्रांसफर करने होते हैं। पहले की तरह शेयर सर्टीफिकेट होते तो उन्हें फाड़कर फेंका जा सकता था। लेकिन अब तो निवेशक को बिना कुछ धंधा किए अपने डीपी (डिपॉजिटरी भागीदार) को बराबर फीस देनी पड़ती है। दूसरी तरफ इन डीलिस्टेड कंपनियों का वजूद बदस्तूर बना रहता है और उन्हें कोई लिस्टिंग फीस भी नहीं देनी पड़ती।
ओस्तवाल बताते हैं कि डीलिस्टेड कंपनियों के प्रवर्तक अक्सर दूसरी कंपनियों के बोर्ड में चले जाते हैं और उनके जरिए फिर पूंजी बाजार से पैसे बनाते हैं। कार्वी के बालिगा का कहना है कि अमेरिका में डीलिस्टेड कंपनियों में भी ओवर द काउंटर बुलेटिन बोर्ड और पिंक शीट्स एक्सचेंज में ट्रेडिंग होती रहती है। सेबी को भारत में भी कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए।