हर आस्ति पिटी, पर इक्विटी में जान

साल 2008 और 2009 में बाजार लेहमान संकट की भेंट चढ़ गया। अब 2011 पर यूरोप व अमेरिका का ऋण संकट मंडरा रहा है। अमेरिका की आर्थिक विकास दर के अनुमान को घटाकर 1 फीसदी कर दिया गया है। अमेरिका के इतिहास में यह भी पहली बार हुआ कि स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने शनिवार को उसकी रेटिंग एएए के सर्वोच्च स्तर से घटाकर एए+ कर दी और आगे एए भी कर सकती है। हालांकि अमेरिकी वित्त मंत्रालय का कहना है कि एस एंड पी ने गलती से सरकार के राजकोषीय घाटे को 2 लाख करोड़ डॉलर से ज्यादा माना है। इसलिए रेटिंग घटाई गई है। जो भी हो, रेटिंग घटने से अमेरिकी सरकार के लिए ऋण जुटाना अब पहले से महंगा हो जाएगा।

सोमवार की सुबह अमेरिकी बाजार जब अपने नियत समय 9.30 बजे खुलेंगे, तब तक भारत में शाम के 7 बज चुके होंगे। इसलिए रेटिंग घटने का असर अमेरिका में बाद में दिखेगा। उससे पहले भारत या हो सकता है कि पूरे एशिया के बाजारों को तगड़ा झटका लग चुका होगा। हालांकि जोर का झटका खाने के बाद हो सकता है कि वे तेजी से संभल भी जाएं। फिलहाल हमें भी सोमवार को बहुत संभलकर बाजार में हाथ डालना होगा। आम निवेशक दूर ही रहें तो अच्छा। हालांकि दुस्साहसी लोगों को तो हालात जितने विकट होते हैं, उतना ही आनंद आता है। वैसे भी वे अपने मन के राजा होते हैं। इसलिए उनके कुछ कहने-सुनने का फायदा नहीं है।

खैर, इस साल जनवरी से लेकर जून तक के छह महीनों में सारे विशेषज्ञ यही बहस करते रहे कि विदेशी धन उभरते बाजारों से निकलकर विकसित बाजारों को लौट जाएगा क्योंकि वहां विकास होता दिख रहा है। जबकि हम बार-बार यही कहते रहे कि यह महज मृग-मरीचिका है। सचमुच ऐसा ही निकला। विकसित देशों में विकास की गाड़ी पटरी से उतरी हुई है और यह हालत फिलहाल बनी रहेगी। वहां लोगों के पास सबसे महंगी आस्ति, सोने में निवेश करने के लिए अलावा कोई चारा नहीं बचा है। लेकिन ऐसा कब तक चलेगा?

हर तरह की आस्ति या निवेश के माध्यम में किसी न किसी समय बुलबुला बनता है। 2008 में अमेरिका में हाउसिंग के साथ ऐसा ही हुआ था। आज भी हमारे भारतीय भाई-बंधु यूरोप व अमेरिका में घर खरीद रहे हैं क्योंकि भारत में किसी भी तरह की आस्ति को पकड़ने के लिए भरपूर कालाधन है। दरअसल, सोने के इस उठाव में भी भारतीय कालेधन का बड़ा हाथ है। चांदी 15,000 रुपए प्रति किलो से छलांग लगाते-लगाते 76,000 रुपए प्रति किलो तक जा पहुंची। उसके बाद धड़ाम हो गई। फिलहाल 58,686 पर है। लेकिन जिस तरह निवेशकों ने इसे जमकर बटोरा है, उसमें मुझे नहीं लगता है कि अगले नौ महीनों में इस आस्ति में कुछ फायदा हो सकता है। चांदी इस दौरान दो बार डुबकी लगाएगी और तब इसके तमाम लांग सौदे शॉर्ट सौदों में बदल दिए जाएंगे। उसके बाद इसमें खरीद का अच्छा मौका मिलेगा।

इसी तरह कच्चा तेल भी 110-112 डॉलर प्रति बैरल तक जाने के बाद 85 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया है। अब 75 डॉलर की तरफ जा रहा है, जहां यह नीचे तक जाने के बाद आकर ठहर सकता है। यहां भी तेल में जबरदस्त तेजी के बाद ऐसा हुआ है। सऊदी अरब के ध्वस्त हो जाने की अपेक्षाओं के बीच कच्चे तेल में एक समय किस कदर लांग सौदे हो रखे थे!!! ट्रेडर इस आस्ति में भी लांग पोजिशन लिए पड़े हैं। इसलिए अगले एक साल तक इस आस्ति में भी कोई चमक आती नहीं दिखती।

सोना अभी तक जमने के दौर तक में है। अर्थव्यवस्थाओं में जितनी धसक सामने आएगी, इसकी मांग उतनी ही बढ़ती जाएगी। हालात के रुख को देखते हुए मुझे लगता है कि सोना अगले 12 से 15 महीनों में 36,000 रुपए प्रति दस ग्राम तक जा सकता है। तब यह भी ओवरबॉट ज़ोन में पहुंच जाएगा। चांदी ने तीस से कम दिनों में 45,000 से 75,000 तक का भयंकर दोलन दिखाया था। सोने में अभी तक ऐसा नहीं हुआ है। सोने में आखिरी रैली 30,000 से शुरू होगी और 36,000 से 38,000 तक जा सकती है। यहीं पर कहीं यह अपना शिखर बनाएगा और फिर आएगी इसमें भारी गिरावट। मेरा यह कहा कहीं कट-पेस्ट करके रख लीजिए ताकि बाद में कहने को रहे कि मैंने कोई हवाबाजी नहीं की थी।

सोना-चांदी व कच्चे तेल के बाद ऋण के निवेश माध्यम या आस्ति की बात करें तो अमेरिका व यूरोप में पूंजी में नुकसान की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि वहां की मुद्राओं की हालत डांवडोल हो सकती है। इसलिए आस्ति के रूप में ऋण में भी बहुत सीमित गुंजाइश है। आस्ति का एक और वर्ग, विदेशी मुद्रा भी अर्थव्यवस्था से सीधा जुड़ा हुआ है। कभी विकास की संभावना तो कभी मंदी की आशंका के बीच मुद्रा की दरों में भयंकर उतार-चढ़ाव आते रहेंगे। क्या आपने पिछले 64 सालों में विदेशी मुद्रा की दरों में 30 फीसदी उठापटक देखी थी? हां, केवल 2008 में विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव्स में ऐसा हुआ था। मुझे तो लगता है कि भारत सरकार अगर ब्राजील की तरह विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव्स पर टैक्स लगा दे तो इसमें कोई बुराई नहीं है।

कुछ लीक से बंधी सोचवाले निवेशक रीयल्टी में जमकर नोट लगाते रहे हैं, इस उम्मीद में कि इस आस्ति की कीमत पिछले पांच साल की तरह आगे भी बढ़ती रहेगी। लेकिन अनबिके प्रोजेक्ट्स का जैसा टीला नजर आ रहा है, उसमें नहीं लगता कि उनकी उम्मीद पूरी हो सकती है। हालांकि कालेधन के दम पर रीयल्टी के दाम अब भी कुछ हद तक चढ़ाकर रखे गए हैं। लेकिन जल्दी ही यहां दरार आने लगेगी क्योंकि दबाव बढ़ रहा है और बढ़ती ब्याज दरों के इस दौर में उधार पर धन लेकर रीयल्टी में लगाना वाकई बहुतों को भारी पड़ रहा है। प्रॉपर्टी के दाम गिरने लगे तो निवेश फिर से इक्विटी या शेयर बाजार की तरफ मुड़ जाएगा। वैसे, अंततः रीयल्टी क्षेत्र भी विदेशियों के निवेश का निशाना बनेगा क्योंकि वे बिना किसी लागत के दस साल तक अपनी पूंजी लगाए रख सकते हैं। अमेरिका से लेकर जापान व यूरोप के तमाम देशों में ब्याज दर शून्य पर टिकी हुई है।

इस तरह निवेशकों के सामने तीन ही विकल्प बचे हैं। एक यह कि वे सोने में निवेश जारी रखें भले ही वो कितना भी मंहगा होता चला जाए। सोने में तरलता भी बहुत है। इसे कभी भी खरीदा-बेचा जा सकता है। दो, वे अपना धन 9.50 फीसदी के ब्याज वाली फिक्स्ड डिपॉजिट (एफडी) में लगा दें और टैक्स देने के बाद 7 फीसदी रिटर्न पाकर संतुष्ट रहें। और, तीसरा विकल्प यह है कि वे इक्विटी में निवेश करें जहां मूल्यांकन काफी छीझ चुका है।

अगर आप सेंसेक्स की कंपनियों को छोड़ दें तो बाकी बाजार का औसत पी/ई अनुपात 7 पर आ चुका है जो पिछले 20 सालों का न्यूनतम स्तर है। यह कुशल प्रबंधन वाली कंपनियों में निवेश करने का बड़ा वाजिब आधार पेश कर रहा है। ऑटो, बैंकिंग व सीमेंट जैसे सेक्टर में निवेश फिर से आकर्षक हो सकता है क्योंकि ब्याज दरों में बढ़त का सिलसिला थमने जा रहा है। अगले 12 से 18 महीनों में 25 अरब डॉलर का एफआईआई निवेश आने की उम्मीद है। यह निवेश हमारे शेयर बाजार को नई ऊंचाई पर ले जा सकता है। अमेरिका का डाउनग्रेड वहां के निवेशकों को भारत जैसे उभरते बाजारों की तरफ ही धकेलेगा।

वैसे भी, रिटेल निवेशकों को वापस लाने में सरकार की नाकामी और एनएसई द्वारा डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट न अपनाने की जिद ने भारतीय पूंजी बाजार की कमान एफआईआई के हाथों में सौंप रखी है। ऐसे में आप धारा के विपरीत चलकर शेयर बाजार से नोट बना सकते हैं। 99 फीसदी निवेशकों ने बाजार में इसीलिए नुकसान झेला है क्योंकि वे हवा के रुख के साथ ट्रेडिंग या निवेश करते रहे हैं। ऐसे बमुश्किल एक फीसदी निवेशक हैं जो बेचने की हवा के बीच खरीदते और खरीदने के उन्माद के बीच बेचते हैं और यही वे निवेशक हैं जो शेयरों में धन गंवाने के बजाय बनाते हैं। बाजार के जले बाकी लोग फिर एफडी की गोंद में सिर रखकर ढुलक जाते हैं।

हम वित्त मंत्रालय से अपेक्षा करते हैं कि उसे किसी दिन छोटे व रिटेल निवेशकों को पर्याप्त सुरक्षा व संरक्षण देने का महत्व समझ में आएगा क्योंकि इनके दम पर ही हम बेहतर कल का निर्माण कर सकते हैं। हम एकजुट रहे तो टिके रहेंगे और बंट गए तो टूट जाएंगे। फिरंगी हमारे साथ एक बार फिर यहीं खेल कर रहे हैं। एफआईआई की इस शातिर चाल के खिलाफ हमें एक बार फिर एकजुट होने की जरूरत है।

 

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