लंबे समय की बात छोड़िए, आपको तो थोड़े समय के लिए भी बाजार की दशा-दिशा को लेकर फिक्र करने की जरूरत नहीं है। अगर हम वित्त वर्ष 2011-12 के अनुमानित लाभ को आधार बनाएं तो भारतीय बाजार अभी 16 के पी/ई अनुपात पर चल रहा है जो इक्विटी मूल्यांकन के वैश्विक मापदंड से काफी नीचे है। इसलिए उन लोगों को कहने दीजिए, जो कहते हैं कि भारतीय बाजार महंगा हो चला है और इसमें अब गिरावट आनी चाहिए। ये सब निहित स्वार्थ से भरी आवाजें हैं।
बार-बार यह भी साबित करने की जरूरत नहीं कि धन लेकर अपनी जुबान चलानेवाले सफेदपोश एनालिस्ट कभी भी आपके सामने सही तस्वीर नहीं पेश करते। अगर उनके कहा गया है कि ओएनजीसी के 50 लाख शेयर खरीदवाने का इंतजाम करो तो वे पहले हमारे-आपके लिए बेचने की सलाह देने की रिपोर्ट जारी करते हैं। बहुत से लोग ऑन रिकॉर्ड यह बात कह चुके हैं कि ब्रोकिंग और रिसर्च एक ही संगठन के दो चेहरे होते हैं और दोनों ही ‘अपने धंधे’ में पक्के होते हैं। भारत में कोई घोटाला तब तक घोटाला नहीं बनता जब तक वह उजागर नहीं हो जाता। इसलिए दोमुंहे लोग व संगठन हमेशा खतरनाक होते हैं। निवेशकों को यह बात हमेशा ध्यान रखनी चाहिए क्योंकि बाजार में आखिरकार उन्हीं की गाढ़ी बचत दांव पर लगती है।
वित्त वर्ष 2011-12 में कंपनियों के लाभार्जन में 20 से 22 फीसदी वृद्धि की उम्मीद है। इस उम्मीद का आधार है, पहली दो तिमाहियों के नतीजे और तीसरी तिमाही में जमा एडवांस टैक्स। अगर ईपीएस (प्रति शेयर लाभ) में 22 फीसदी बढ़त होती है तो सेंसेक्स अगले वित्त वर्ष यानी 2011-12 में 23,000 से 26,000 अंक तक पहुंच जाएगा। इन वजहों से हम कंज्यूमर ड्यूरेबल, रीयल्टी, इंफ्रास्ट्रक्चर, छोटी आईटी कंपनियों, प्राकृतिक गैस, ग्लास, केमिकल्स, फर्टिलाइजर व वित्तीय सेवा क्षेत्र के चुनिंदा शेयरों को लेकर काफी सकारात्मक नजरिया रखते हैं। दूसरी तरफ हम ऑटो, बैंकिंग, बड़ी आईटी कंपनियों के बारे में नकारात्मक और माइनिंग व मेटल सेक्टर को लेकर उदासीन या न्यूट्रल रवैया रखते हैं।
हम एक बात और बता दें कि मिड कैप शेयरों में कुछ समय बाद करेक्शन का आना एक तरह का नियम बन गया है। अमूमन हर छह महीने पर ऐसा होता है। इसे हम चर्बी का घटना या पिघलना कहते हैं। अब इसमें चर्बी का घटना कुछ ज्यादा ही हो चुका है और यह सेक्टर काफी स्लिम व ट्रिम हो गया है। इसमें अगली तेजी के लिए तैयार रहिए। सावधानी बस इतनी बरतनी है कि आप दागी स्टॉक्स के चक्कर में न पड़े। केवल वही कंपनियां चुनें जिनका प्रबंधन साफ-सुधरा हो, जिनके स्टॉक मूल्यवान हों और जो उभरते हुए क्षेत्र के हों।
ऐसे स्टॉक व सेक्टरों से बचें जिन्हें मूल्याकंन ज्यादा होने के कारण डाउनग्रेड किए जाने का अंदेशा हो। जिन भी स्टॉक्स का पी/ई अनुपात 30 से ऊपर हो, उन्हें हाथ न लगाएं। हां, कुछ ऐसे स्टॉक्स इसके अपवाद हो सकते हैं जिनका पी/ई अनुपात भले ही 30 से ज्यादा हो, लेकिन उनकी सब्सिडियरी में निहित मूल्य न गिना गया हो या किसी परिसंपत्ति का मूल्य अभी जोड़ा जाना हो।
अपने देश में अभी तक कॉरपोरेट गवर्नेंस कायदे के स्तर का नहीं बन पाया है। कंपनियां बहुत कुछ अपने शेयरधारकों से छिपाकर रखती हैं। जैसे, हीरो होंडा प्रबंधन ने कह दिया कि होंडा की 26 फीसदी इक्विटी खरीदने का मामला कोई ओपन ऑफर नहीं है, इसलिए उन्हें शेयरधारकों को सौदे का ब्यौरा बताना जरूरी नहीं है। हमने निवेशकों के हित में तमाम कंपनियों से मिलने की कोशिश की है ताकि अपने स्तर पता लगाकर हकीकत पर आधारित रिपोर्ट बना सकें। लेकिन ज्यादातर कंपनियों ने रिसर्च से जुड़े लोगों व शेयरधारकों से मिलने से इनकार कर दिया। कारण यह है कि वे ऑपरेटरों के साथ मिलकर खेल करती हैं। इसीलिए आईबी की रिपोर्ट और सेबी की कार्रवाई सामने आती है। असल में, लिस्टिंग समझौते में ऐसा संशोधन किया जाना चाहिए ताकि कंपनी प्रबंधन के लिए शेयरधारकों से मिलना और मांगे जाने पर कंपनी के कामकाज का पूरा विवरण देना जरूरी हो जाए। ऐसा होने तक अच्छी कंपनियों को खुद आगे बढ़कर शेयरधारकों को भरोसे में लेने के लिए ऐसी पहल करनी चाहिए।
बाजार में बड़ी गिरावट का डर आमतौर पर विदेशी फंडों से उपजता है क्योंकि भुगतान के दबाव में उन्हें फटाफट बेचकर निकलना पड़ता है। लेकिन अभी उल्टी स्थिति है। अमेरिकी कॉरपोरेट क्षेत्र इस समय 1.3 लाख करोड़ डॉलर के कैश पर बैठा है और आगे बढ़ने के लिए विलय व अधिग्रहण की जुगत में लगा है, जबकि ओबामा सरकार और धन उड़ेलती जा रही है। बड़ा सवाल यह है कि जब अमेरिका में विकास की पूरी गुंजाइश न हो तो इस धन का कितना हिस्सा वहां लगाया जा सकता है? अतिरिक्त कैश या नकदी या लिक्विडिटी ज्यादा विकास वाले देशों की तरफ बहकर आएगी और उभरते बाजार खासकर भारत ही वो ठौर हैं जहां विदेशी निवेशक धन लगाना चाहेंगे। भारत में भले ही सेंसेक्स में शामिल 30 स्टॉक पूरी औकात के बराबर मूल्य पर हों, लेकिन बाकी बाजार का मूल्य-स्तर अभी ज्यादा नहीं है। सेंसेक्स और निफ्टी से बाहर भी बाजार है – हमें यह सच हमेशा ध्यान में रखना चाहिए।
दक्षिण-पूर्व एशिया, यूरोप व अमेरिका में फंड मैनेजरों का होना आम है। लेकिन वे भी निवेश का फैसला करते वक्त बाजार पर छाई मनोदशा से प्रभावित होते हैं। अगर अमेरिकी बाजार अच्छा है और बढ़ रहा है तो धन लौटाने का दबाव न होने के चलते वहां कैश से कम और उधार से ज्यादा निवेश करेंगे। बल्कि, ऐसी स्थिति में भारत जैसे देशों के लिए नियम फंड में कैश का प्रवाह बढ़ जाएगा और वे यहां मूल्य-स्तर ज्यादा होने के बावजूद खरीद करेंगे। इस तरह वहां की तरलता यहां खिंची चली आएगी। इसलिए वैल्यूएशन या मूल्य-स्तर वगैरह पर माथापच्ची करने के बजाय हमें अपनी पारी खेलने पर ध्यान लगाना चाहिए।
आप जानते हैं कि आप ऐसा कर सकते हैं। झारखंड ने भारतीय क्रिकेट टीम को धोनी के रूप में उसका कप्तान दिया है। इसी तरह महानगरों के बाहर के छोटे भारतीय निवेशक अगर चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं। अगर आप ठान लें तो नया साल 2011 आपकी विजय का साल होगा। पूरा दिमाग लगाइए, भरपूर रिसर्च कीजिए, अच्छा निवेश कीजिए और अच्छा-खासा कमाइए। जब निवेश की दूसरी आस्तियां या साधन भी उतने ही महंगे हैं, चाहें वह म्यूचुअल फंड यूनिटें हों, सोना हो, चांदी हो, रीयल एस्टेट या करेंसी हो, तब क्यों न शेयरों में ही पैसा लगाया जाए?
एनएसई का स्लोगन सही कहता है – सोच कर, समझ कर, इनवेस्ट कर।