भारतीय बाजार का कैरेक्टर ढीला है

भारत दुनिया की खबरों पर बार-बार उठ्ठक-बैठक कर रहा है, जबकि सबसे विकट हालत में फंसे देश अमेरिका का शेयर सूचकांक, डाउ जोंस 12,000 के स्तर को कसकर पकड़े बैठा है। जब भी कभी यह 12,000 के नीचे जाता है तो फौरन रॉकेट की तरह खटाक से वापस आ जाता है। इसी तरह एस एंड पी 500 सूचकांक ने भी एक ढर्रा बना रखा है और 1250 के आसपास खुद को जमा रहा है। यह उसका ब्रेक-आउट स्तर है। कम से कम पांच बार वह 1250 को पार कर चुका है और जब भी इससे नीचे जाता है, पलटकर वापस वहीं लौट आता है।

लब्बोलुआब यह कि भारत की तरह अमेरिकी बाजार का कैरेक्टर ढीला नहीं है। वहां के निवेशक खराब हालात में डटे रहते हैं। कारण, वहां के बाजार में रिटेल निवेशकों की भागीदारी आबादी की 22 से 26 फीसदी है। भारत के महज 1.6 फीसदी लोग ही पूंजी बाजार पर भरोसा करते हैं। ऊपर से जबरदस्त निराशा। आप कोई-सा अखबार या टीवी चैनल खोल लीजिए, आपको हर तरफ देश की हालत को लेकर निराशा से भरी खबरें ही मिलेंगी। जीड़ीपी, आईआईपी, सरकार, निर्यात के आंकड़ौं में गड़बड़ी, भ्रष्टाचार, राजनेताओं की मिलीभगत, सुधारों को सदमा, राजनीतिक पार्टियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप। इस सारे हो-हल्ले में भारत के लोगों और उनकी समस्याओं को एकदम भुला ही दिया जाता है।

हर तरफ स्थिति भयावह है, चाहे यह कमोडिटी ट्रेडिंग हो, शेयर ट्रेडिंग हो या करेंसी ट्रेडिंग हो। देश के कॉरपोरेट क्षेत्र ने महज एक तिमाही में रुपए के 22 फीसदी अवमूल्यन के कारण 20,000 करोड़ रुपए गंवा दिए। इससे बहुत सारे ट्रेडरों को भी नुकसान झेलना पड़ा। समस्या है कि डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट का पेंच। इसमें कोई शक नहीं कि दुबई जैसे देशों में बैठे असामाजिक तत्वों ने रुपए की चाल को वश में कर रखा है क्योंकि वहां उनकी गतिविधियों पर कोई अंकुश है नहीं। बहुतों ने डॉलर के 58 रुपए तक चले जाने पर दांव लगा रखा है। कुछ तो 65 रुपए की विनिमय दर पर सट्टा खेल रहे हैं। आखिर क्या है रुपए का असली मूल्य? यह हालत है एशिया की तीसरे सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की।

इसी तरह कमोडिटी में भी हालत खराब है। वहां फिजिकल सेटलमेंट के चलते ट्रेडर व जमाखोर सीमित सप्लाई और जबरन डिलीवरी मांगकर आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान पर चढ़ाए हुए हैं। केवल गेहूं जैसे उन जिंसों पर उनकी कोई पकड़ नहीं है जिनका उत्पादन काफी ज्यादा है और जिनमें फिजिकल सेटलमेंट भी नहीं है। इसकी सबसे ज्यादा मार गरीब लोगों पर महंगाई के रूप में पड़ती है। हमारे वित्त मंत्री कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय दामों के चलते महंगाई बढ़ी है, जबकि हकीकत यह है कि दुनिया मांग की कमी से उपजी मंदी के दौर से गुजर रही है और भारत के अलावा कहीं भी इतनी ज्यादा मुद्रास्फीति नहीं है। हमारा पड़ोसी मुल्क, चीन बड़े आराम से मुद्रास्फीति को पकड़कर 4 फीसदी पर ले आया है। हमें उससे सबक सीखना चाहिए।

मुद्रा और कमोडिटी के बाद शेयर बाजार में हालत यह है कि 1992 के बाद से निवेशकों ने यहां खाली गंवाया ही गंवाया है। हर्षद मेहता और केतन पारेख के दौर में कुछ चमक जरूर दिखी थी। लेकिन बाद में वो कहीं बड़ा घोटाला साबित हुआ। इस समय बाजार सचमुच जुएबाजी का अड्डा बन गया है। पूरे वोल्यूम में डिलीवरी आधारित सौदों की मात्रा महज 3 से 4 फीसदी है। बाकी सारा कुछ डेरिवेटिव सौदों के हवाले हैं जहां कोई फिजिकल डिलीवरी है नहीं। इस खेल में 99 फीसदी योगदान एफआईआई और डीआईआई का है। असली निवेशक गायब है।

निवेशक गायब हैं तो ब्रोकिंग समुदाय की हालत खस्ता है। वोल्यूम में एकबारगी भारी कमी आ गई है तो तमाम ब्रोकर फर्में स्टाफ में कटौती करने लगी हैं। संस्थागत निवेशकों के लिए बनी उनकी डेस्क बोझ बन गई है क्योंकि वे अब अलगोरिदम ट्रेडिंग का सहारा लेने लगे हैं। दूसरी डेस्कों की भी लागत निकालना मुश्किल हो रहा है। भारत का वोलैटिलिटी सूचकांक दुनिया में सबसे ज्यादा है। यूरोप की हालत से भारत पर बड़ा फर्क नहीं पड़ता। लेकिन भारतीय निवेशक हर दिन अमेरिका के साथ-साथ यूरोप की तरफ देखने को मजबूर है। कारण, एफआईआई को खुली छूट मिली हुई है और वे तूफान बचाए रहते हैं, जबकि उनके असर को घरेलू वित्तीय संस्थाएं व म्यूचुअल फंड बराबर करने की स्थिति में नहीं हैं।

आईपीओ और सेकेंडरी बाजार में रिटेल निवेशकों को बचाने के कोई ठोस उपाय नहीं किए गए हैं। इसलिए आम निवेशकों की दिलचस्पी के फिर से जगने की गुंजाइश बेहद कम है। जो ट्रेडर व निवेशक बचे हैं, वे भी यूरोप व अमेरिका के नाम पर बाजार में मचाई गई खलबली से परेशान हैं। सारी नकारात्मक खबरों के बावजूद अक्टूबर में निफ्टी को 5400 पर पहुंचा दिया गया। नवंबर में यह 4750 तक गिरा दिया गया और दिसंबर में 5133 तक जाने के बाद नीचे में 4850 तक बैठा दिया है। हो सकता है कि इसी महीने यह 5300 तक चला जाए। कुछ अंदर के लोग बताते हैं कि जनवरी में इसे तोड़कर 4720 से नीचे ले जाया जा सकता है।

जहां तक मूल्यांकन की बात हैं तो इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि निफ्टी 5000 पर है, 4700 पर या 5400 पर क्योंकि हर गिरावट पर तमाम अच्छे स्टॉक्स के भाव 52 हफ्ते का नया न्यूनतम स्तर बनाते जा रहे हैं। निवेशकों की दौलत उड़ी जा रही है। ऐसे में सरकार के 40,000 करोड़ रुपए के विनिवेश कार्यक्रम का क्या होगा? कोई सूरत नहीं दिखती इसके सफल होने की। सरकार के खजाने की हालत पहले से ही खराब है।

फिर भी यह तथ्य है कि शेयरों के भाव उनके वाजिब मूल्य से 70 फीसदी तक नीचे चल रहे हैं। ऐसे में हमें अतिशय निराशावादी होने की कोई वजह नहीं दिखती। बाजार जब भी वापसी करेगा तो निफ्टी 1000 अंक चढ़ सकता है। इसलिए इस वक्त शॉर्ट सेलिंग करना आत्मघाती साबित हो सकता है। सबसे अच्छा तरीका यह है कि छह महीने तक बस बाजार को पढ़ा और देखा जाए, लेकिन लगाया कुछ न जाए। अगर आप खुद को न रोक सकें तो 12 महीने के लिए निवेश करें और चुपचाप बैठ जाएं। हर गिरावट पर खरीदकर औसत मूल्य कम करते जाएं। अगर इस पर भी आपको संतोष नहीं है और सट्टेबाजी आपके खून में समा चुकी हो तो हमेशा स्टॉप लॉस लगाकर ट्रेड करें। लेकिन एक बात ध्यान रखें कि अब जो भी नुकसान या धमाचौकड़ी होनी है, वो सूचकांकों में शामिल स्टॉक्स में ही होगी। स्मॉल और मिड कैप स्टॉक्स को तो उस पाताल तक दबाया जा चुका है जिसके आगे कोई पाताल नहीं है।

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