हर चीज की अति हमेशा बुरी ही होती है, प्रतिक्रिया की भी। खासकर अति-प्रतिक्रिया निवेशक पर ज्यादा ही चोट करती है। मुद्रास्फीति, ब्याज दरों में वृद्धि और यहां से निकलकर विदेशी पूंजी के विकसित देशों में जाने को लेकर निफ्टी जिस तरह 200 दिनों के मूविंग एवरेज (डीएमए) से नीचे चला गया, वह निश्चित रूप से बाजार की अति-प्रतिक्रिया को दर्शाता है। ऐसा ही 2008 में लेहमान संकट के बाद हुआ था, जब तमाम ब्रोकर ढोल पीट रहे थे कि हमारे डीजीपी की विकास दर गिरकर 3 या 5 फीसदी पर आ जाएगी। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उनका डर हवाई साबित हुआ।
वास्तविकता यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ऊंची क्रयशक्ति और ज्यादा तरलता के दम पर 8.5 फीसदी से अधिक की बहुत मजबूत व स्वस्थ दर से विकास कर रही है। मुद्रास्फीति ज्यादा है तो इसकी वजह सप्लाई की कमी है। रिजर्व बैंक गवर्नर ने भी माना है कि अकेले मौद्रिक उपायों से मुद्रास्फीति पर काबू नहीं पाया जा सकता। सप्लाई बढ़ाई का काम सरकार का है। बायोमेट्रिक सिस्टम आ जाने के बाद पीडीएस के जरिए वितरण को सही किया जा सकता है। जमाखोरी को कड़े कदम उठाकर रोका जा सकता है। 1970 में हांगकांग में भ्रष्टाचार इतनी खतरनाक हद तक पहुंच गया था कि जनता सड़कों पर उतर आई। तब सरकार को मजबूरन भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना पड़ा और आज हांगकांग दुनिया के रहने की सबसे अच्छी जगहों में गिना जाता है।
निवेशक अमूमन गलती यह करते हैं कि भारतीय बाजारों के बारे में एफआईआई के कहने को सही मान बैठते हैं। निवेशक उन पर यकीन भी करते हैं क्योंकि उनके पास बाजार को उठाने-गिराने की ताकत है। अब हल्ला है कि एफआईआई अपना निवेश यहां से निकालकर विकसित देशों में ले जाएंगे। ध्यान दें कि यह हल्ला तब मचाया जा रहा है जब अमेरिकी बाजार की नब्ज डाउ जोन्स सूचकांक 12,000 पर पहुंच चुका है जो 2008 के निचले स्तर से लगभग 100 फीसदी ज्यादा है।
ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिकी बाजार एफआईआई को अब कायदे का रिटर्न दे पाएगा? दो दिन पहले ही आंकड़े आए हैं कि अमेरिका में डीजीपी की विकास दर 3.5 फीसदी के अनुमान के बजाय 3.2 फीसदी रही है। रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने बारह सालों में पहली बार जापान को डाउनग्रेड किया है, जबकि मूडीज आनेवाले हफ्तों में अमेरिका को डाउनग्रेड करनेवाली है। इसलिए एफआईआई का धन विकसित देशों में बहने की बात कुछ ज्यादा ही लमतड़ानी लगती है। अमेरिका में तो पहले से 1.3 लाख करोड़ डॉलर की पूंजी जहां-तहां भटक रही है। हो सकता है कि बहुत जल्दी ही हमें सुनने को मिले कि भारतीय बाजार अब निवेश के लिए सुरक्षित हैं क्योंकि यहां वैल्यूएशन या मूल्य-स्तर घटकर नीचे आ चुका है।
जो भी हो, हमारा बाजार अति-प्रतिक्रिया का शिकार हो गया। सेंसेक्स 18,000 अंक के स्तर पर वित्त वर्ष 2011-12 के अनुमानित ईपीएस से 14 गुना या पी/ई अनुपात पर चल रहा है जो पिछले पंद्रह सालों के औसत से नीचे है। हालांकि सेंसेक्स में शामिल बहुतेरी कंपनियां 30 से ज्यादा के पी/ई अनुपात पर ट्रेड हो रही हैं। इसलिए सेंसेक्स में खेल की पर्याप्त संभावनाएं हैं। बीएसई के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार वहां कुल लिस्टेड कंपनियों की संख्या 7700 है और सेंसेक्स की 30 कंपनियां मात्र इनका 0.39 फीसदी प्रतिनिधित्व करती हैं जिससे सैंपलिंग के न्यूनतम मानक की शर्त भी नहीं पूरी होती। फुटसी-100 और निफ्टी-50 की तर्ज पर सही प्रतिनिधित्व के लिए सेंसेक्स में कम से कम 100 कंपनियां होनी चाहिए। ऐसा होने पर मौजूदा असंतुलन तत्काल दुरुस्त हो जाएगा और हम सेंसेक्स को 10 के पी/ई अनुपात पर ट्रेड होता देखकर चौंक जाएंगे।
हमारे बाजार के सिस्टम में बहुत सारे खोट है। नहीं तो कैसे संभव है कि जब सारा बाजार ताश के पत्तों की तरह ढह रहा है, तब वीडियोकॉन डेरिवेटिव सौदों में हर दिन 95 फीसदी का प्राइस-बैंड हिट कर रहा है? अगर किसी भी वजह से इस स्टॉक की भारी मांग है तो प्राइस-बैंड या लिमिट बदलकर खरीदने व बेचनेवालों के लिए सही बाजार क्यों नहीं बना दिया जाता? अब तो डेरिवेटिव सौदों में फिजिकल सेटलमेंट का फैसला लगता है कि सेबी के नए चेयरमैन यू के सिन्हा को ही लागू करवाना पड़ेगा। वैसे भी यह मसला 2001 से लटका चला आ रहा है।
फिजिकल सेटलमेंट आने से निवेशक कम से कम 14 से 18 फीसदी रिटर्न कमा सकते हैं। इससे कैश बाजार के समानांतर एक नया सिस्टम खड़ा हो सकता है। एफआईआई की दिलचस्पी इस सिस्टम को लाने में नहीं है क्योंकि वे ब्रिटिश राज की तरह भारतीय बाजार पर प्रभुत्व बनाए रखना चाहते हैं। ऑपरेटर भी इसे नहीं चाहते क्योंकि इससे उनका धंधा-पानी चलता है। लेकिन समझ में नहीं आता कि सेबी की हरी झंडी के बावजूद स्टॉक एक्सचेंज इसे लागू क्यों नहीं कर रहे क्योंकि इसमें उनका प्रत्यक्ष फायदा है?
बाजार की मौजूदा स्थिति की बात करें तो मुझे लगता है कि वह बद से बदतर कारकों को संज्ञान में ले चुका है, डिस्काउंट कर चुका है। चाहे वह मुद्रास्फीति हो, ब्याज दरें हों, राजनीतिक अनिश्चितता हो या मध्यावधि चुनावों की आशंका हो। इससे आगे जो कुछ भी होगा, बेहतर ही होगा। मुद्रास्फीति मार्च अंत तक 7 फीसदी पर आनेवाली है। 2जी स्पेक्ट्रम की जांच जेपीसी से कराने की मांग मान लिए जाने के बाद संसद का गतिरोध खत्म हो जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप और व्यापक जन-प्रतिक्रिया को देखते हुए सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ न कुछ करने को मजबूर है। अंततः आमजन या अवाम की प्रतिक्रिया ही लोकतंत्र में किसी भी सत्तारूढ़ दल के लिए सबसे ज्यादा मायने रखती है। गुजरात और बिहार ने दिखा दिया है कि जनता उसी को वोट देती है जो उसके लिए काम करता है।
समझदार निवेशकों की रणनीति इस समय खरीद की होनी चाहिए। बाजार जितना गिरे, खरीद का स्तर उतना ही बढ़ा देना चाहिए। हमें अपनी ताकत पर भरोसा करना चाहिए। फिरंगियों (एफआईआई) के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। आखिर जिस देश में 5 लाख करोड़ रुपए का टैक्स जमा होता हो, उस देश के बारे में यह कैसे माना जा सकता है कि वह पूरे देश के उत्थान के लिए इतनी बड़ी रकम का निवेश नहीं कर सकता? मेरा मानना है कि हम अब भी तेजी के बाजार के दौर में हैं। अभी जो चल रहा है, वह बस एक गहरा करेक्शन भर है।