भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की अधिकतर आबादी अभी या तो लॉकडाउन में है या काफी रोकटोक के साथ काम पर जा रही है। कोरोना वायरस का प्रकोप समाप्त करने की रणनीति यह नहीं है, यह बात सभी जानते हैं। इसका मकसद बीमारी के विस्फोट का दायरा घटाने और बचाव का ढांचा खड़ा करने के लिए समय हासिल करने तक सीमित है। फ्लू के वायरस की तरह यह गर्मी आने के साथ नरम पड़ जाएगा, यह समझ पहले ही खारिज हो चुकी है। वैक्सीन या पक्का इलाज कोई है नहीं। ऐसे में बचकर चलना ही बाकी बचता है, जिसमें सारा संसार जुटा है। लेकिन इसके समानान्तर यह चिंता भी हर जगह सिर उठाने लगी है कि ऐसा ही हाल रहा तो जून-जुलाई तक क्या लोगों की नौकरियां, काम-धंधे और आमदनी के बाकी जरिये बचे रहेंगे?
अपने यहां रबी की कटाई हफ्ते-दस दिन में हो जाएगी। गांव में इस सीजन में सबके हाथ में कुछ न कुछ पैसे पहुंच जाते हैं। लेकिन इस साल ऐसा हो पाएगा, इसमें संदेह है। मंडियां ठीक से चल नहीं पा रहीं। सूचना आ रही है कि लोगों ने थोड़ी कम कीमत पर निजी खरीदारों को अपनी उपज बेचना ज्यादा बेहतर समझा है। सबसे बुरी बात यह कि खेत मजदूरों के हाथ में पैसा बिल्कुल नहीं गया है। खराब मौसम और बीमारी के डर से लोगों ने ज्यादा रेट पर कम्बाइंड हार्वेस्टर से कटाई-मंड़ाई-ओसाई सब एक साथ करा लेना बेहतर समझा है। हालांकि छोटे व सीमांत किसानों (ढाई एकड़ तक की जोत) के लिए यह रास्ता बंद सा ही है। खाने के लिए अनाज उगाने वाला परिवार हिम्मत करके अपने खेत में हार्वेस्टर लगा भी ले तो उसे अपने कई जरूरी खर्चों में कटौती करनी होगी।
राष्ट्रीय पैमाने पर देखें तो खेती से जुड़ा सबसे बड़ा सवाल यह बनता है कि क्या अभी की खेतिहर गतिविधियां देश के विशाल ग्रामीण-कस्बाई बाजार को कामकाजी हालत में बनाए रखेंगी? गांवों का माहौल पूरी तरह हिला हुआ है। खेती अब कैश मांगती है लेकिन इस साल शहरों से गांवों में इतना भी पैसा नहीं पहुंचने वाला कि खरीफ के लिए शुरुआती सिंचाई और खाद का इंतजाम हो सके। उलटे, फैक्ट्रियों में खटने वाले या रेहड़ी-ठेली चलाने वाले बहुतेरे लोग या तो शहरों में खैरात पर जिंदा हैं या गांवों के रास्ते में अटके हुए हैं। एक अरसे से बदहाली की शिकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को इस साल उनका परिवार भी पालना है। ऐसे में हर साल मध्य-मई से मध्य-जुलाई तक यहीं के दम पर ‘मैरिज इकॉनमी’ जो उछाल मारती है, उसकी इस बार कोई गुंजाइश नहीं है।
बहरहाल, भारत की तकरीबन तीन-चौथाई ग्रामीण आबादी का जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) में दखल कुछ खास नहीं है। पिछले दस वर्षों में दो या तीन साल ऐसे गए हैं जब कम बारिश के चलते खेती की हालत बहुत खराब हो गई थी। फिर भी देश के जीडीपी की विकास दर 6 प्रतिशत से ऊपर रही। लेकिन इस बार मामला ऊपर की तरफ बहुत ज्यादा गड़बड़ है, लिहाजा प्राइमरी सेक्टर यानी खेती, बागवानी, खनन व मछली पकड़ने का काम देश के लिए उम्मीद बंधाने वाला है। दूसरे चरण के लॉकडाउन में सरकार ने अपनी तरफ से इन सभी क्षेत्रों में यथासंभव सक्रियता बनाए रखने के उपाय किए हैं। ये कितने कारगर साबित होते हैं, इसका आकलन होना अभी बाकी है।
भारतीय अर्थव्यवस्था अभी काम-धंधे के लिहाज से सेकंड्री सेक्टर यानी तमाम तरह की मैन्युफैक्चरिंग, कन्स्ट्रक्शन और दुकानदारी की तरफ, जबकि आमदनी के लिहाज से टर्शरी सेक्टर यानी बैंकिंग, बीमा, कंप्यूटर से जुड़ी और अन्य ढेरों सेवाओं की तरफ बुरी तरह झुकी हुई है। गजब यह कि सेकंड्री और टर्शरी, दोनों ही दायरों की हालत अभी बहुत-बहुत खराब है। बैंकिंग व फाइनेंस को इनकी धुरी समझा जाता है क्योंकि ये सारे क्षेत्र वित्तीय पूंजी (फाइनेंस कैपिटल) के ही बल पर फलते-फूलते हैं। लेकिन भारत में बैंकिंग का बेड़ा पहले से ही गर्क हुआ पड़ा है।
ऐसे कई सारे क्षेत्र, जो ऊपर से काफी खुशहाल दिखाई देते हैं, जिनके दिए विज्ञापनों के बल पर मीडिया उद्योग की गाड़ी कुलांचें मारती है, न सिर्फ बाजार की मामूली हरकतों से दिवालिया हो जाते हैं, बल्कि अपने पीछे-पीछे किसी वित्तीय संस्था को भी डुबो मारते हैं। अभी के माहौल में किस-किस का यह हाल है, पता करना मुश्किल है। हाउसिंग व रीयल एस्टेट को उबारना पहले ही टेढ़ी खीर साबित हो रहा था, अब तो यह किस्सा ही दूर का हो गया है। एयरलाइंस और हॉस्पिटैलिटी कंपनियों के डूबने की खबरें अभी से आने लगी हैं। और तो और, टेलिकॉम और तेल व गैस जैसे अजेय समझे जाने वाले क्षेत्रों में भी डगमगाहट के चर्चे सुनाई पड़ने लगे हैं।
पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए बड़े-बड़े पैकेज घोषित किए जा रहे हैं। भारत में भी उद्योग संघों ने इसकी मांग की है और सरकार की तरफ से जीडीपी का 5 प्रतिशत, करीब 9.5 लाख करोड़ रुपए का पैकेज तैयार बताया जा रहा है। अर्थव्यवस्था इसकी भरपाई कैसे करेगी, बाद में देखा जाएगा। लेकिन यह पैकेज सचमुच किसी काम आ सके, इसके लिए बाजार में स्वस्थ मांग के अलावा काफी लोगों का काम में जुटना भी जरूरी है।
आने वाले दिनों में पूंजी तथा श्रम का इंतजाम करते हुए हमें हर पल यह याद रखना होगा कि समय बहुत कम बचा है। बाजार का संतुलन, मांग और आपूर्ति का हिसाब एक बार बिगड़ जाए तो सरकारी मदद का पैसा लूट के ही काम आता है। ऐसे में अभी के लिए सरकार की चिंता यह होनी चाहिए कि बुजुर्ग, कमजोर और बीमार लोगों को छोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों को जल्दी से जल्दी काम में कैसे उतारा जाए। भारत में बीमारी अभी चढ़ाव पर है, लिहाजा खतरा बहुत बड़ा है। फिर भी कदम-कदम पर सैनिटाइजेशन, टेस्टिंग और कामकाज के एहतियाती उपायों के जरिये मध्य-मई तक हमें असंभव को संभव बनाने के रास्ते पर आगे बढ़ना होगा।
– चंद्रभूषण (लेखक नवभारत टाइम्स में संपादकीय पेज के प्रभारी और वरिष्ठ सहायक संपादक हैं। यह लेख उनकी एक फेसबुक पोस्ट से साभार लिया गया है)