वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2010 में थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर 9.59 फीसदी दर्ज की गई है, जबकि ठीक इसके पहले मार्च 2010 में यह 9.90 फीसदी थी। साल भर पहले अप्रैल 2009 में मुद्रास्फीति की दर केवल 1.31 फीसदी थी। अप्रैल में मुद्रास्फीति की दर में आई कमी की खास वजह फलों, प्याज, गेहूं और अन्य अनाजों के थोक भावों का घटना है। जैसे, आलू के भावऔरऔर भी

मुद्रास्फीति की दर में गिरावट का सिलसिला शुरू हो गया है। खाद्य पदार्थों की मुद्रास्फीति 24 अप्रैल को खत्म हफ्ते में 16.04 फीसदी रही है, जो इसके ठीक पहले 16 अप्रैल के हफ्ते में 16.61 फीसदी थी। इस बीच केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने अनुमान जताया है कि थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर अगले तीन महीनों में घटकर 6-7 फीसदी पर आ सकती है और फिलहाल विदेश से आनेवाली पूंजीऔरऔर भी

किसी भी पैमाने से देखें तो देश में अभी चल रही मुद्रास्फीति की दर काफी ज्यादा है। यह चिंता की बात है क्योंकि इससे एक नहीं, कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। खासकर आबादी के बड़े हिस्से के लिए जिसके पास इसके असर को काटने के लिए कोई उपाय नहीं है। पहली बात कि मुद्रास्फीति आपके पास जो धन है, उसकी क्रय क्षमता को कम कर देती है। इससे बंधी-बंधाई आय और पेंशनभोगी लोगों का जीवनऔरऔर भी

महंगाई हकीकत है। मुद्रास्फीति आंकड़ा है। औसत है। और, औसत अक्सर कुनबा डुबा दिया करता है। खैर वो किस्सा है। हम जानते हैं कि कोई चीज महंगी तब होती है जब उसकी मांग सप्लाई से ज्यादा हो जाती है। कई साल पहले जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने कहा था कि दुनिया में अनाज की कीमतें इसलिए बढ़ी हैं क्योंकि चीन और भारत में अब भूखे-नंगे लोगों के पास खरीदने की ताकत आ गई है। ऐसी ही बात हालऔरऔर भी

इला पटनायक मुद्रास्फीति का बढ़कर दहाई अंक में पहुंच जाना चिंता का मसला है। थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) पर आधारित यह दर अगले कुछ हफ्तों तक और बढ़ेगी। लेकिन उसके बाद यह घटेगी। हमारे नीति-नियामकों को ब्याज दर बढ़ाने से पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। वैसे रिजर्व बैंक के नीतिगत उपाय अभी तक कमोबेश दुरुस्त ही रहे हैं। मुद्रास्फीति इसलिए भी चिंता का मसला है क्योंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) बढ़ रहा है। महीने सेऔरऔर भी

एस पी सिंह सरकारी भंडारों में निर्धारित मानक से तीन गुना ज्यादा अनाज, पिछले साल से बेहतर चीनी सत्र और सस्ते खाद्य तेलों की पर्याप्त उपलब्धता!… इसके बाद भी महंगाई मार रही है। दरअसल सरकार खाद्य अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में बुरी तरह चूक गई है। संसद में बहस के दौरान चीनी की कीमतों में व़ृद्धि के बहाने प्रधानमंत्री ने इस असफलता को स्वीकार भी कर चुके हैं। उचित समय पर सही निर्णय लेने में खाद्य मंत्रालय सेऔरऔर भी

अनिल रघुराज हमारे यहां बैंगन को भांटा कहते हैं। इस भांटे की स्थिति यह है कि बचपन में किसी को चिढ़ाने के लिए हम लोग कहते थे – आलू भांटा की तरकारी, नाचैं रमेशवा की महतारी। रमेशवा की जगह इसमें, नाम किसी का भी – जयराम, मनमोहन, पवार, सिब्ब्ल या सोनिया रखा जा सकता था। मेरे बाबूजी मुंबई (तब की बंबई) में एक कपड़े की दुकान पर काम करने आए। उन्हें अक्सर हर दिन भांटे की तरकारीऔरऔर भी

खाद्य पदार्थों की बढ़ती महंगाई पर हायतौबा मची हुई है। कई विद्वान कहते फिर रहे हैं कि सरकार को आयात के जरिए इस महंगाई पर काबू पाना चाहिए। लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक से टो-टूक शब्दों में कह दिया है कि ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि दूसरे देशों में खाद्य पदार्थों की कीमतें हम से ज्यादा बढ़ी हैं। आज पेश की गई मौदिक्र नीति की तीसरी तिमाही की समीक्षा में रिजर्व बैंक के गवर्नर डॉ. डी सुब्बारावऔरऔर भी