जिस तरह ड्रग-एडिक्ट नशे के बिना पसीना-पसीना हो जाता है, उसी तरह हम भी धन और घर की चक्की के ऐसे आदी हो जाते हैं कि उसके बिना सब सूना लगने लगता है। फुरसत हमें काटने दौड़ती है और हम उसी चक्की की ओर दौड़े चले जाते हैं।और भीऔर भी

सारी दुनिया दौलत के पीछे भाग रही है। काम, काम, काम। भागमभाग। लगे रहो ताकि धन बराबर आता रहे। लेकिन इससे कहीं ज्यादा अहम है इसकी चिंता करना कि हम अपने घर-परिवार के साथ ज्यादा भावपूर्ण रागात्मक ज़िंदगी कैसे जी सकते हैं।और भीऔर भी

टेक्नोलॉजी रिश्तों को घर-परिवार की सीमा से निकालकर अनंत वर्चुअल विस्तार दे देती है। लेकिन उसका हल्का-सा ग्लिच भी इन रिश्तों को खटाक से तोड़ देता है। फिर बच जाती है एक कचोट और यह अहसास कि हम कितने असहाय हो गए हैं।और भीऔर भी

शिक्षा व ट्रेनिंग से किसी को अच्छा मैनेजर बनाया जा सकता है, अच्छा विश्लेषक व अच्छा वक्ता तक बनाया जा सकता है, पर अच्छा इंसान नहीं। अच्छा इंसान तो घर-परिवार के संस्कारों और निरंतर अपनी कतरब्योंत से ही बनता है।और भीऔर भी

शरीर है, तभी सब है। घर-परिवार। सुख-समृद्धि। ज्ञान-ध्यान। सबकी शुरुआत इसी से होती है और इसी के साथ इससे जुड़े हर भाव का अंत हो जाता है। बर्तन ही नहीं तो अमृत रखेंगे कहां? इसलिए सबसे पहले शरीर की शुद्धता व पात्रता जरूरी है।और भीऔर भी

इस दुनिया में हम अकेले ही आए हैं और अकेले ही जाएंगे। हमें जो भी करना है, अकेले ही करना है। इसमें घर-परिवार, दोस्त या समाज का कोई अन्य सदस्य योगदान करता है तो यह उसकी मेहरबानी है। हमें इसके लिए उसका कृतज्ञ होना चाहिए।और भीऔर भी

न जाने कितने जिरहबख्तर बांधे फिरते हैं हम। कभी भगवान, कभी परिवार, कभी परंपरा तो कभी नौकरी का कवच कुंडल हमारी हिफाजत करता रहता है। बहादुर वो है जो इस सारी सुरक्षा को तोड़कर सीधे सच का सामना करता है।और भीऔर भी