चाहने भर से मंज़िलें नहीं मिला करतीं। दुनिया में किसी भी चाह को पूरा करने के लिए सामाजिक तंतुओं को जोड़ना पड़ता है। अगर हम यह जोड़ नहीं हासिल कर पाते तो चाहतें ताजिंदगी कचोट बनकर रह जाती हैं।और भीऔर भी

इंसान अपनी मंज़िल से उतना ही दूर है, जितना दूर वो अपने कुतूहल से है। जानने की इच्छा न हो, नए से नया देखने का कौतूहल न हो तो इंसान चलता ही नहीं; और, चले बिना मंजिल भला किसे मिलती है!और भीऔर भी

पत्थर में न तो इच्छा होती है और न द्वेष। उसे न सुख होता है, न दुख। न ही पत्थर अपना रूप बनाए रखना चाहता है, जबकि ये अनुभूतियां ही प्राणियों की पहचान और उनके जीवन का मूल तत्व हैं।और भीऔर भी