ऑप्शन एक तरह के डेरिवेटिव हैं जो अपने से जुड़ी आस्ति की छाया हैं। साफ है कि काया बदलेगी या दिन का समय बदलेगा तो छाया का आकार-प्रकार अपने-आप ही बदल जाएगा। इसलिए आस्ति में जो भी तब्दीली होगी, उसके भाव में जो अंतर आएगा, वोलैटिलिटी में जो परिवर्तन आएगा, उससे ऑप्शन का भाव निश्चित रूप से प्रभावित होगा। कौन-से कैसे बदलाव का क्या कैसा प्रभाव ऑप्शन के भावों पर पड़ता है, इसका पता ग्रीक प्रतीकों सेऔरऔर भी

ऑप्शन ट्रेडिंग करते वक्त आपको चार बातों का फैसला करना होता है। पहला यह कि आपके लिए निफ्टी या बैंक निफ्टी के ऑप्शंस में ही ट्रेड करना ज्यादा मुनासिब व आसान होगा। दूसरा यह कि आपको किस स्ट्राइक मूल्य का ऑप्शन लेना है। तीसरा यह कि आपको क़ॉल ऑप्शन खरीदना है या पुट ऑप्शन। और, चौथा यह कि आपको कब ऑप्शन खरीदना है, नए सेटलमेंट की शुरुआत में, बीच में या एक्सपायरी के पहले वाले हफ्ते में।औरऔर भी

बाहरी कृपा से कभी किसी का कल्याण नहीं होता। हमें अपना कल्याण खुद अपनी मेहनत, काम और दूसरों के सहयोग से करना होता है। दूसरा केवल राह दिखा सकता है। चलने का अभ्यास हमें खुद करना पड़ता है। यह बात आम जीवन के साथ ही ऑप्शन ट्रेडिंग के गुर सीखने पर भी लागू होती है। इसके अलावा यह गुर सीखने की एक और बुनियादी शर्त है कि जोड़-घटाने, हिसाब-किताब में आपकी रुचि होनी चाहिए। अगर सामान्य गणितऔरऔर भी

अगर हमने ऑप्शन के भाव निकालने का तरीका नहीं समझा तो हम 100 में से 88 बार हारते ही रहेंगे और अपना प्रीमियम गंवाते ही रहेंगे। दिक्कत यह है कि अगली बार जीत जाएंगे, इस भ्रम और भरोसे में रिटेल ट्रेडर हमेशा इंडेक्स ऑप्शन खरीदने में जुटे रहते हैं। अगर लगा कि बाज़ार बढ़ सकता है तो निफ्टी या बैंक निफ्टी का कॉल ऑप्शन खरीद लिया और गिरने की धारणा हो तो इनका पुट ऑप्शन खरीद लिया।औरऔर भी

ऑप्शन कॉन्ट्रैक्ट का भाव तो बाजार निर्धारित करता है। लेकिन व्यवहार में देखें तो भाव बेचनेवाले तय करते हैं, खरीदनेवाले नहीं। फिर भी रिटेल ट्रेडर के पास यह सुविधा होती है कि वह अपने अध्ययन व समझ से यह परख सकें कि बाज़ार में चल रहा ऑप्शन का भाव सही है या नहीं। अगर उसके भाव बढ़ाकर रखे गए हैं तो वह बिना लालच में फंसे उससे दूर रह सकता है और किसी वजह से वाजिब याऔरऔर भी

ऑप्शन के भाव निकालने के अलग-अलग मॉडल हैं। हमने बायनॉमिअल मॉडल पर नज़र डाल ली। अब ब्लैक-शोल्स मॉडल को गहराई से समझने की बारी है। साथ ही एडिसन ह्वेल (Adison Whaley) मॉडल भी है। कोई इस मॉडल को परिष्कृत बताता है तो कोई उसे। पर हमें उसी मॉडल को लेना चाहिए जिसकी गणना आसानी से की जा सके। बायनॉमिअल मॉडल में प्रायिकता से लेकर बांड के रिटर्न के साथ मिलान जैसी ऐसी उलझनें हैं कि माथा घूमऔरऔर भी

हमने बायनॉमिअल प्राइसिंग मॉडल में बैंकवर्ड इंडक्शन करते हुए ऑप्शन का भाव पोर्टफोलियो के मिलान या रेप्लिकेशन से निकाला। हमने यह भी देखा कि गिनने में यह तरीका ज्यादा ही जटिल है। मात्र दो ही चरणों में बहुत सारी गणनाएं करनी पड़ीं। इसकी तुलना में रिस्क न्यूट्रल वैल्यूएशन इस मॉडल का काफी आसान तरीका है। इसमें गणना कई चरणों में नहीं करनी पड़ती। सब कुछ आसान व सहज है। वैसे, यह कैसे काम करता है और इसमेंऔरऔर भी

ऑप्शन प्राइसिंग के ब्लैक-शोल्स मॉडल की तह में जाने से पहले हम एक दूसरे प्राइसिंग मॉडल को जानने की कोशिश करते हैं जो बाद में ब्लैक-शोल्स मॉडल को ठीक से जानने में काम आ सकता है। यह है बायनोमिअल मॉडल। हम इसे यूरोपियन कॉल ऑप्शन पर लागू करके उसका भाव निकालेंगे। बाद में पुट ऑप्शन का भाव कॉल-पुट समता के आधार पर निकाल सकते हैं। याद रखें कि यूरोपियन ऑप्शन सौदे एक्सपायरी के वक्त ही काटे जाऔरऔर भी