जब गांठें पड़ती हैं तो उसे हम खोलकर सुलझाते हैं, काटकर नहीं। काट देने से गांठ नहीं जाती, बल्कि रिश्तों की डोर छोटी होती चली जाती है। रिश्तों की डोर को बढ़ाना है तो हर गांठ खोलकर सुलझानी पड़ेगी।और भीऔर भी

शब्दों के बिना विचारों की कनात नहीं तनती। रिश्तों की डोर न हों तो भावनाएं नहीं निखरतीं। औरों की नज़र न हो तो अपनी गलती का एहसास नहीं होता। विराट न हो तो शून्य सालता है, सजता नहीं।और भीऔर भी