मरना हमारी मजबूरी है। लेकिन जीना भी तो एक तरह की मजबूरी है। मरने की मजबूरी को हम बदल नहीं सकते। लेकिन जीने की मजबूरी को हम चाहें तो अपनी सक्रियता से जश्न में बदल सकते हैं।और भीऔर भी

औरों की भलाई में ही अपना भला है या अपने हित में ही सबका हित है? दोनों ही सोच अपने विलोम में बदल जाती हैं। इसका सबूत पहले समाजवाद के पतन और अब अमेरिका व यूरोप के संकट ने पेश कर दिया है।और भीऔर भी