भगवान से ज्यादा काम का है बीमा

पहले कहां कौन बीमा कराता था? ऐसा नहीं कि तब अनिश्चितता का भय नहीं था, अनहोनी की आशंका नहीं थी। लेकिन लोग भगवान के आगे माथा नवाकर निश्चिंत हो जाते थे। भगवान तू ही सबका रखवाला है, रक्षा करना- इतना भर कह देने से लगता था कि आपको किसी भी आकस्मिक आफत से निपटने का सहारा मिल गया। फिर, अपने यहां एक-दो नहीं, 33 कोटि देवता हैं। गांव से बाहर निकलिए तो ग्राम देवता को प्रणाम कर लीजिए। शहर से बाहर निकलिए तो कोई न कोई मंदिर मिल जाएगा। किसी पीर की मजार दिख जाए तो वहां भी सुरक्षा की गुहार लगा सकते हैं। यह भी नहीं तो किसी पीपल या बरगद के पेड़ के आगे आंखें मूंदकर माथा झुकाकर कह सकते हैं- रक्षा करना, तेरे सिवा मेरा कोई नहीं है।

भगवान की जगह अब भी बदस्तूर कायम है। लेकिन उसके शाश्वत सुरक्षा कवच के साथ ही लोग अब बीमा भी करवाने लगे हैं। यह अलग बात है कि देश की बमुश्किल 15 फीसदी आबादी तक ही बीमा कवच पहुंच पाया है। बाकी 85 फीसदी लोगों के पास न जीवन बीमा है, न स्वास्थ्य बीमा और न ही साधारण बीमा। लोग यह नहीं सोचते कि उनके मरने के बाद उनके आश्रितों का क्या होगा। कमानेवाला नहीं रहा तो कैसे चलेगा परिवार? ज्यादातर लोग बीमा को भी पैसे बचाने और कमाने का जरिया समझते हैं।

उन्हें अपने जीवन का बीमा कराने के बजाय इसकी चिंता रहती है कि उनका पैसा दस-पंद्रह साल में कितना बढ़ेगा। इसीलिए अपने यहां निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियां आईं तो उन्हें यूलिप जैसा माध्यम पेश करना पड़ा क्योंकि इसमें जीवन बीमा कवर के साथ निवेश भी बढ़ता रहता है। वैसे अच्छा है किसी न किसी बहाने बीमा का दायरा तो बढ़ रहा है। अभी तो लोग आकस्मिकता और अनिश्चितता को नाथने के लिए भगवान के सामने अक्षत-फूल चढ़ा देना ही पर्याप्त समझते हैं। शायद जैसे-जैसे बीमा का दायरा बढ़ता जाएगा, भगवान का दायरा सिकुड़ता जाएगा। हो सकता है कि देश में किसी दिन 33 कोटि देवताओं की जगह 33 देवता ही रह जाएं।

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