200 को-ऑपरेटिव बैंक बगैर लाइसेंस के

देश में 9 राज्य को-ऑपरेटिव बैंक और 191 केंद्रीय को-ऑपरेटिव बैंक अभी भी बिना लाइसेंस के चल रहे हैं। चौंकानेवाली बात यह है कि दशकों से भारी संख्या में ऐसी सहकारिता संस्थान बगैर किसी बैंकिंग लाइसेंस के चलते रहे हैं। लेकिन वित्तीय क्षेत्र आकलन समिति ने सिफारिश की थी कि 2012 के बाद किसी भी को-ऑपरेटिव बैंक को बगैर लाइसेंस लिए काम न करने दिया जाए। इसी के बाद रिजर्व बैंक ने तय किया कि वह उन को-ऑपरेटिव बैंकों को लाइसेंस जारी करेगा जिनका पूंजी व जोखिम भारित आस्ति अनुपात (सीएआरए) 4 फीसदी या इससे अधिक होगा। रिज्रर्व बैंक ने पिछले पांच महीनों में 8 राज्य को-ऑपरेटिव बैंकों और 105 केंद्रीय को-ऑपरेटिव बैंकों को लाइसेंस जारी किए हैं।

रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने नेशनल फेडरेशन ऑफ को-ऑपरेटिव बैंक्स द्वारा आयोजित एक समारोह में गुरुवार को यह जानकारी दी। उन्होंने कहा कि मार्च 2012 से पहले-पहले सभी को-ऑपरेटिव बैंकों को इतना सीएआरए हासिल कर लेना होगा ताकि उन्हें बैंकिंग लाइसेंस दिया जा सके। नहीं तो वे आगे काम नहीं कर पाएंगे। बता दें कि सीएआरए में किसी भी बैंक को दिए गए कर्ज की रेटिंग के आधार पर जोखिम का प्रावधान करना पड़ता है। को-ऑपरेटिव बैंकों के लिए अगर इसे रिजर्व बैंक ने 4 फीसदी तय किया है तो इसका मतलब हुआ है कि हर 100 रुपए के कर्ज जोखिम पर उन्हें कम से कम 4 रुपए की पूंजी रखनी पड़ेगी।

उन्होंने कहा कि हमारी को-ऑपरेटिव क्रेडिट संस्थाएं अब भी वित्तीय रूप से कमजोर और कामकाज के स्तर पर अक्षम हैं। इन्हें दुरुस्त करने के लिए केंद्र सरकार ने प्रोफेसर वैद्यनाथन की अध्यक्षता में बने टास्क फोर्स की सिफारिशों के आधार पर कुछ कदम उठाए हैं। इन पर अमल के लिए राज्य सरकारों को केंद्र के साथ सहमति पत्र (एमओयू) पर हस्ताक्षर करना है। अभी तक 25 राज्य ऐसा कर चुके हैं। हालांकि इसकी समयसीमा बीत चुकी है। फिर भी बाकी राज्य केंद्र सरकार के साथ अब भी एमओयू कर सकते हैं। केंद्र सरकार का पैकेज 2006 में शुरू किया गया था। लेकिन अब तक एमओयू पर हस्ताक्षर कर चुके 25 में से 14 राज्यों ने ही इसका लाभ उठाया है। इस पैकेज के तहत नाबार्ड (राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक) के जरिए कुल 13,596 करोड़ रुपए की वित्तीय सहायता दे जानी थी। लेकिन राज्यों की ढिलाई के चलते फरवरी 2010 तक केवल 7561 करोड़ रुपए ही जारी किए जा सके हैं। यह रकम देश के 12 राज्यों में कार्यरत 41,295 प्राइमरी एग्रीकल्चरल क्रेडिट सोसायटी (पीएसीएस) की पूंजी बढ़ाने के लिए है।

श्री चक्रवर्ती ने बताया कि देश में इस समय तकरीबन 95,000 पीएसीएस हैं, जबकि क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की शाखाओं की संख्या 15,400 ही है। इसलिए गांवों तक बैंकिंग सेवा पहुंचाने में पीएसीएस का भारी योगदान हो सकता है। वैसे भी अपने यहां सहकारिता आंदोलन को शुरू हुए सौ साल से ज्यादा बीत चुके हैं। देश में को-ऑपरेटिव संस्थाएं ग्रामीण ऋण देने का सबसे पुराना माध्यम हैं और इनकी पहुंच बहुत व्यापक है। बल्कि सच कहें तो 1969 में 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण से पहले ग्रामीण ऋण के लिए ये इकलौती संस्थाएं थीं। 1976 में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक बने। लेकिन अब उनकी पहुंच पीएसीएस के मुकाबले काफी कम है।

1 Comment

  1. मुझे लगा था कि आर बी आई द्वारा एन बी एफ सी एक्ट और अन्य बैंकिग प्रवधानों जैसे सीएआर और मिनिमम केपिटल रिक्वायरमेन्ट आदि के बाद कड़ी निगरानी तय हो चुकी थी तो यह सब गोरख धंधा समाप्त हो चुका होगा..आपने चौंकाने वाली जानकारी दी.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *