डॉलर-रुपए के उस्तादी खेल में बेकार पिटा जमूरा

विदेशी मुद्रा के असली सौदागर हैं हमारे बैंक और इनके प्रमुख ग्राहक हैं हमारे आयातक-निर्यातक। आयातकों व निर्यातकों को चिंता रहती है कि उनका विदेशी मुद्रा खर्च या आमदनी कहीं विनिमय दरों के उतार-चढ़ाव के चलते भारतीय मुद्रा में घट-बढ़ न जाए। इसलिए वे बैंकों के पास ऐसे डेरिवेटिव सौदों के लिए जाते हैं ताकि इससे बचा जा सके। ऐसे ज्यादातर सौदे ओटीसी (ओवर द काउंटर) बाजार यानी दो पार्टियों ग्राहक व विक्रेता के बीच आपस में होते हैं। अपने यहां अब विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव के सौदे स्टॉक एक्सचेंजों (एनएसई व एमसीएक्स एसएक्स) में भी होने लगे हैं। इन एक्सचेंजों में इस समय डॉलर, यूरो, ब्रिटिश पौंड व येन के फ्यूचर सौदे होते हैं। जल्दी ही इनमें ऑप्शंस की भी इजाजत दिए जाने का प्रस्ताव है। लेकिन पूंजी खाते में भारतीय मुद्रा के परिवर्तनीय न होने के कारण इनकी काफी सीमाएं हैं। यहां फिजिकल डिलीवरी का कोई प्रावधान नहीं। बस, विनिमय दरों का अंतर कैश ले-देकर सौदा पूरा कर लिया जाता है।

असल में विदेशी मुद्रा के 90 फीसदी से ज्यादा सौदे ओटीसी बाजार में होने के कारण इनमें काफी जोखिम रहता है। दूसरे, बैंक बेहतर स्थिति में होने के कारण इसका फायदा भी उठाते रहे हैं। वे विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव कांट्रैक्ट की मिल-सेलिंग करते रहे हैं। ऐसा वित्त वर्ष 2006-07 और 2007-08 के दौरान बड़े पैमाने पर हुआ था। असल में इस दौरान भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र ने एफसीसीबी (विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांड) और ईसीबी (विदेशी वाणिज्यिक उधार) के जरिए बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा ऋण जुटाए थे। कंपनियों ने अपनी विदेशी ऋण की देनदारियों को इस उम्मीद में बिना हेजिंग के रखा कि भारतीय रुपए के मजबूत होने का क्रम जारी रहेगा, जबकि एफसीसीबी तो एक दिन इक्विटी शेयरों में बदल दिए जाएंगे। हां, इसी दरमियान निर्यात की हेजिंग तमाम डेरिवेटिव सौदों के जरिए की गई थी।

अब भारतीय कंपनियों द्वारा पहले किए गए विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव सौदों ने अब उनके कामकाज पर असर दिखाना शुरू कर दिया क्योंकि डॉलर के सापेक्ष रुपए का मूल्य बराबर घटता रहा। बैंकों ने घटते रुपए को एक मौके के रूप में देखा और निर्यातको तक डेरिवेटिव उत्पाद लेकर पहुंच गए और दावा किया कि ये उत्पाद रुपए के मजबूत होने पर निर्यातकों को होनेवाले नुकसान से बचा सकते हैं। असल में रुपए कम मजबूत होने पर निर्यातकों को दोहरा नुकसान होता है। एक तो उनके उत्पादों का डॉलर मूल्य विदेशी बाजार में बढ़ जाता है यानी उनके उत्पाद महंगे हो जाते हैं। दूसरे, समान डॉलर आय पर उन्हें कम रुपए मिलते हैं। जैसे, पहले एक डॉलर के 50 रुपए मिलते थे, तो अब रुपए में महंगा होने जाने से उन्हें 45 डॉलर ही मिल सकते हैं। बैंकों ने निर्यातकों को समझाया कि वे विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव उत्पादों के जरिए इस संभावित नुकसान से बच सकते हैं।

हाल के एक अध्ययन के मुताबिक बीएसई-100 सूचकांक में शामिल कंपनियों की विदेशी मुद्रा देनदारियों का बड़ा हिस्सा अब भी बकाया है और उसकी हेजिंग नहीं की गई है। इन कंपनियो की बैलेंस शीट में दर्ज जानकारी से पता चलता है कि जहां बिना हेजिंग वाले कुल बकाया विदेशी ऋण 1.3 लाख करोड़ रुपए के हैं, वहीं विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव सौदों की रकम 1.9 लाख करोड़ रुपए की है।

वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान भारतीय कॉरपोरेट क्षेत्र को अचानक तगड़ा झटका लगा जब रुपए का मूल्य डॉलर के सापेक्ष 28 फीसदी गिर गया। इससे बिना हेजिंग वाले विदेशी मुद्रा ऋण और डेरिवेटिव सौदों दोनों में भारी एमटूएम (मार्क टू मार्केट) नुकसान हुआ। एमटूएम नुकसान सचमुच हुआ नुकसान नहीं होता, लेकिन कंपनियों को उसे अपने खाते में दिखाना पड़ता है। जैसे रुपया कमजोर हुआ और उसकी विनिमय दर 45 रुपए/डॉलर से 50 रुपए/डॉलर पर आ गई तो कंपनी का 10 करोड़ डॉलर का ऋण 450 करोड़ रुपए से बढ़कर 500 करोड़ डॉलर का हो जाएगा और इस तरह पर उसी ऋण का बोझ 50 करोड़ डॉलर बढ़ जाएगा। इसी तरह अगर उन्होंने 1000 डॉलर का विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव सौदा अगर 45 रुपए/डॉलर पर किया था और अब विनिमय दर 50 रुपए/डॉलर हो गई तो उन्हें 5000 रुपए का एमटूएम नुकसान दिखाना पड़ेगा।

रुपए के कमजोर हो जाने से बीएसई-100 कंपनियों को कुल 34,320 करोड़ रुपए का विदेशी मुद्रा नुकसान हुआ जिसमें से विदेशी ऋण का एमटूएम नुकसान 24,390 करोड़ रुपए और बकाया डेरिवेटिव सौदों का एमटूएम नुकसान 9930 करोड़ रुपए का था जो उनके कर-पूर्व लाभ का 21.4 फीसदी था। लेकिन संशोधित एकाउंटिंग मानकों ने इन कंपनियों को राहत दे दी और वे एमटूएम नुकसान को आगे ले जाने में कामयाब रहीं।

निर्यातकों ने जिन बैंकों के साथ भारी-भरकम डेरिवेटिव सौदे किए थे, उनमें एसबीआई, आईसीआईसीआई बैंक, एक्सिस बैंक व एबीएन एमरो जैसे बड़े नाम शामिल थे। इन बैंकों ने रिजर्व बैंक के तत्कालीन दिशानिर्देशों को ताक पर रखकर ये सौदे किए। इन्होंने रिसर्च का पूरा डाटा निर्यातकों के सामने पेश किया कि कैसे रुपया डॉलर के सापेक्ष मजबूत होता जाएगा और हो सकता है इसकी प्रति डॉलर विनिमय दर 32 रुपए या इससे भी नीचे चली जाए।

लेकिन हुआ इसका उल्टा। डॉलर कमजोर होकर 39 रुपए तक तो गया था। लेकिन साल भर से भी कम समय में करीब 33 फीसदी मजबूती के साथ 52 रुपए तक चला गया। जून 2002 से अक्टूबर 2009 के दौरान अमेरिकी डॉलर जहां दुनिया की दूसरी मुद्राओं के सापेक्ष 42 फीसदी कमजोर हुआ है, वहीं रुपए के सापेक्ष इसका करीब 5 फीसदी ही अवमूल्यन हुआ है। हाल के अध्ययन के मुताबिक डॉलर व रुपए की विनिमय दर में उतार-चढ़ाव के कारण वोकहार्ट, रैनबैक्सी लैब्स, सुजलॉन एनर्जी, एचसीएल टेक्नोलॉजीज जैसी कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है।

राजश्री शुगर्स, नाहर इंडस्ट्रियल एंटरप्राइसेज और सुंदरम ब्रेक जैसी कुछ कंपनियां तो विदेशी मुद्रा डेरिवेटिव सौदों में इतनी तगडी चपत खाकर इतनी बेचैन हो गईं कि बैंकों को कोर्ट में घसीट ले गईं। उनका दावा है कि ये सौदे उन्होंने हेजिंग के लिए नहीं किए थे और बैंकों ने विदेशी मुद्रा की ट्रेडिंग से उन्हे फायदा दिलाने का झांसा दिया था। कंपनियां उनके झांसे में इसलिए आ गईं क्योंकि बीते साल सालों के दौरान रुपया/डॉलर में खास उतार-चढ़ाव नहीं हुआ था। लेकिन अचानक डॉलर 39 रुपए से बढ़कर 52 रुपए का हो गया। नतीजतन निर्यातक लपेटे में आ गए और बैंकों ने उनकी नादानी से अच्छी-खासी कमाई कर डाली।

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