आर्थिक मोर्चे से आ रहीं बुरी खबरें, इस रात की सुबह नहीं!

आर्थिक मोर्चे से बुरी खबरों का आना रुक नहीं रहा। औद्योगिक गतिविधियों की रीढ़ माना गया इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र भी अब अपना दुखड़ा रोने लगा है। देश के 262 ताप विद्युत संयंत्रों में 133 संयंत्रों को मांग न होने के कारण बंद करना पड़ा है। इससे पहले परिवहन में इस्तेमाल होनेवाले डीजल और सड़क निर्माण में इस्तेमाल होनेवाले बिटूमेन की मांग घटने की खबर आ चुकी है। इस बीच देश के सबसे बडे बैंक एसबीआई ने अपनी रिसर्च रिपोर्ट मॆं अंदेशा जताया है कि सितंबर 2019 की तिमाही में हमारी अर्थव्यवस्था की विकास दर घटकर 4.2 प्रतिशत पर आ सकती है।

खुद वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण मान चुकी हैं कि अर्थव्यवस्था की हालत काफी खराब चल रही है। लेकिन बजट के बाद बजट के बाहर की गई उनकी तमाम घोषणाओं का कोई असर होता नहीं दिख रहा। उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी भारत को पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का सपना दिखाए जा रहे हैं। हालांकि हवा के रुख को भांपते हुए उन्होंने इसे थोड़ा बदल दिया है। पिछले हफ्ते हिमाचल प्रदेश में वैश्विक निवेशकों के सम्मेलन में उन्होंने भाषण दिया कि विभिन्न राज्यों के सहयोग के बिना यह लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।

खैर, यह लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी पांच साल बाकी हैं। फिलहाल ज़मीन पर अर्थव्यवस्था की हालत बडी संगीन दिख रही है। कुछ महीनों पहले जो संकट गैर-बैंकिंग फाइनेंस कंपनियों (एनबीएफसी) से शुरू हुआ था, वह धीरे-धीरे रिटेल बिजनेस से लेकर ऑटो उद्योग, घरों की बिक्री और डीजल जैसे ईंधन की घटती मांग तक फैल चुका है। आपको जानकर अचंभा होगा कि देश में उद्योग से लेकर कृषि व परिवहन तक में बहुतायत से इस्तेमाल होनेवाले ईंधन डीजल की मांग मई के बाद लगातार चार महीनों से घटती गई है। मई में यह 78 लाख टन हुआ करती थी, जबकि सितंबर में 58 लाख टन ही रही है।

सरकार जिस सड़क निर्माण में शानदार तेज़ी का दावा करते हुए कहती रही है कि यूपीए के शासनकाल में 2013-14 में प्रतिदिन 12 किलोमीटर हाईवे बनाया गया था, जबकि एनडीए शासन में 2017-18 में प्रतिदिन 27 किलोमीटर हाईवे बनाए गए, उस सड़क निर्माण में लगनेवाले पेट्रोलियम पदार्थ बिटूमेन की मांग पिछले सितंबर से इस सितंबर तक 7.29 प्रतिशत घट चुकी है। यह आंकड़े किसी निजी संस्था के नहीं, बल्कि सरकारी संस्था पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस सेल (पीपीएसी) के हैं। अपुष्ट खबरों के मुताबिक हालत यह है कि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचआईए) काम कर चुके ठेकेदारों तक का पेमेंट लटकाए पड़ा है।

बुनियादी उद्योगों की तो बात करते ही डर लगता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में 40 प्रतिशत का योगदान करनेवाले आठ बुनियादी उद्योगों – कोयला, बिजली, सीमेंट, उर्वरक, स्टील, कच्चे तेल, रिफाइनरी व प्राकृतिक गैस का उत्पादन इस सितंबर में 14 सालों के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़े भी महीने-दर-महीने भयावह तस्वीर पेश करते जा रहे हैं। जिस मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र का योगदान देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बढ़ाकर 25 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया था, वह अब भी 17 प्रतिशत से नीचे अटका पड़ा है।

चालू वित्त वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही में जीडीपी की विकास दर छह साल के न्यूनतम स्तर 5 प्रतिशत पर जा पहुंची। दूसरी तिमाही के जीडीपी का आंकड़ा इसी महीने 29 नवंबर को जारी होनेवाला है। जानकारों का अनुमान तब विकास दर के घटकर 4.2 प्रतिशत पर आ जाने का है। दीपावली के आसपास के जिस त्योहारी सीजन को उद्योग-व्यापार क्षेत्र के लिए बड़ा शुभ माना जाता है, उस दौरान भी बाज़ारों में मंदी छाई रही। बहुराष्ट्रीय निवेश फर्म बैंक ऑफ अमेरिका मेरिल लिंच ने मुंबई में 120 प्रमुख रिटेल दुकानों को शामिल करके एक अध्ययन रिपोर्ट बनाई है जिसके मुताबिक इस त्योहारी सीज़न में ग्राहकी साल भर पहले से लगभग 90 प्रतिशत घट गई।

ऐसे में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज़ ने अगर भारत की रेटिंग स्थिर से घटाकर नकारात्मक कर दी है तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन हमारा वित्त मंत्रालय इस पर चिढ़ गया। मूडीज़ की रेटिंग आने के फौरन बाद उसने कहा कि इससे भारत की सापेक्ष स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। भारत अब भी दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है और सरकार ने अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिए जो कदम उठाए हैं, उससे देश में पूंजी आएगी और निवेश को गति मिलेगी। लेकिन हकीकत यह है कि मूडीज़ द्वारा रेटिंग घटाने से विदेशी निवेशकों पर बुरा असर पड़ सकता है। साथ ही कंपनियों के लिए विदेश से धन जुटाना पहले से मुश्किल और महंगा हो जाएगा।

वैसे भी ‘दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने’ का गुमान अच्छी और सच्ची बात नहीं है। हम से पांच गुना से ज्यादा बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद की चीन की विकास दर इस साल की जून तिमाही में 6.2 प्रतिशत और सितंबर तिमाही में 6 प्रतिशत रही है जो पिछले 27 सालों का उसका न्यूनम स्तर है। वहीं, मार्च तिमाही में भारत की विकास दर 5.8 प्रतिशत और जून तिमाही में 5 प्रतिशत रही है। यह भी गौरतलब है कि अगर उक्त गुमान से ‘प्रमुख’ शब्द हटा दें कि हमारा पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश अच्छे निर्यात की बदौलत 8 प्रतिशत की आर्थिक विकास दर हासिल कर चुका है।

वहीं, हमारा निर्यात पिछले छह सालों से कमोबेश ठहरा हुआ है। एशिया के जिन 16 देशों के संगठन आरसेप (रीजनल कम्प्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप) से मोदी सरकार को किसानों व कांग्रेस के विरोध के कारण अलग होना पड़ा, उसमें से बाकी 15 में से 11 के साथ हम व्यापार घाटे में हैं। बीते वित्त वर्ष 2018-19 में भारत ने 34 प्रतिशत आयात इन देशों से किया, जबकि केवल 21 प्रतिशत निर्यात इन देशों को किया। विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा 1.7 प्रतिशत के आसपास अटका पड़ा है। सरकार ने इसे बढ़ाकर 5 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा है। लेकिन इसके लिए देश के मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र को दुरुस्त करना पड़ेगा। तभी रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे। अन्यथा देश में बेरोज़गारी की दर 45 सालों के शिखर पर तो पहुंच ही चुकी है।

वैसे, ऐसा नहीं है कि सरकार अर्थव्यवस्था को सुस्ती के दुष्चक्र से निकालने के लिए कुछ नहीं कर रही। बीते दो महीनों में उसने विदेशी निवेशकों व निर्यातकों को प्रोत्साहन, हाउसिंग क्षेत्र को गति और व्यापार मेलों की पेशकश के बाद कॉरपोरेट टैक्स घटाने का ऐतिहासिक संरचनात्मक सुधार कर डाला। पिछले ही हफ्ते वित्त मंत्री ने अटके पड़े हाउसिंग प्रकल्पों को चालू करवाने के लिए 25,000 करोड़ रुपए का वैकल्पिक निवेश फंड (एआईएफ) बनाने का ऐलान किया है। मालूम हो कि इस फंड की घोषणा सितंबर में की गई थी। लेकिन तब इससे उन्हीं प्रकल्पो को धन दिया जाना था जो 60 प्रतिशत पूरे हो चुके हों, जिनके बैंक ऋण एनपीए न बने हों और जिनका मामला राष्ट्रीय कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल में न पहुंचा हो। इन शर्तों के रहते गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाई तो अब सरकार ने अब केवल एक शर्त रखी है कि हाउसिंग प्रकल्प की नेटवर्थ शून्य या ऋणात्मक नहीं होनी चाहिए। वैसे, इस शर्त को पूरा कर पाना भी टेढ़ी खीर है।

असल में सरकार के इस ताज़ा कदम में वह रहस्य छिपा है जिसकी वजह से उसके अब तक के उपाय बेअसर साबित हुए हैं। आप यह देखें कि अधिकांश अटके पड़े हाउसिंग प्रकल्पों में घर खरीदनेवाले फ्लैट की निर्धारित कीमत का 90 प्रतिशत हिस्सा बिल्डरों को दे चुके हैं। ऐसे में बिल्डरों को धन की तंगी होनी ही नहीं चाहिए। सवाल उठता है कि ग्राहकों का धन बिल्डर कहां गटक गए? सरकार को इन प्रकल्पों के फोरेंसिंक ऑडिट से बिल्डरों की करतूतों का पता लगाना चाहिए। लेकिन वह उनकी सेवा में 25,000 करोड़ रुपए का नया फंड पेश कर दे रही है। आखिर क्यों? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आर्थिक मसलों का समाधान राजनीतिक स्वार्थ को केंद्र में रखकर निकालना चाहती है?

अगर ऐसा है तो यह देश की अर्थव्यवस्था के बेहद घातक है। हमें सोचने की ज़रूरत है कि रिजर्व बैंक इस साल ब्याज दरों में पांच बार कमी कर चुका है। रेपो दर इस समय 5.15 प्रतिशत है। इसमें से सितंबर की रिटेल मुद्रस्फीति की दर 3.99 प्रतिशत को घटा दें कि वास्तविक ब्याज दर 1.16 प्रतिशत निकलती है। यह एशिया में थाईलैड की 1.1 प्रतिशत के बाद दूसरी सबसे कम ब्याज दर है। अब तो हमारी वास्तविक ब्याज दर और भी कम हो गई है क्योंकि अक्टूबर में रिटेल मुद्रास्फीति की दर 4.62 प्रतिशत रही है। ब्याज दर या पूंजी की लागत इतनी कम होने के बावजूद भारत में निवेश क्यों नहीं बढ़ रहा? इस सवाल के जबाव में आर्थिक सुस्ती के दुष्चक्र को तोड़ने से लेकर रोज़गार सृजन तक का उपाय छिपा हुआ है। बशर्ते कोई उसे ईमानदारी से तलाशना चाहे।

(इस लेख का संपादित अंश 15 नवंबर 2019 को नवजीवन में छप चुका है)

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