मतदाताओं की उदासीनता टूटी तो चमक उठीं ममता और जयललिता

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने 34 सालों से चले आ रहे लेफ्ट के किले को ढहा दिया। जयललिता ने एम करुणानिधि को सत्ता से बाहर कर दिया। ममता ने 294 में से 226 सीटें जीत लीं तो जयललिता ने 234 सदस्यों की विधानसभा में 204 सीटों पर कब्जा कर लिया। एक जगह तीन-चौथाई से ज्यादा तो एक जगह से चार बटे पांच से भी ज्यादा का बहुमत।

विश्लेषक बता रहे हैं कि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट की सरकार ने राज्य का औद्योगिक विकास इतने सालों से रोक रखा था। ममता बनर्जी को अवाम ने परिवर्तन के लिए वोट दिया है ताकि राज्य में औद्योगिकीकरण की रफ्तार तेज हो सके। कोई देखने को तैयार नहीं है कि जिस नंदीग्राम और सिंगूर ने ममता को व्यापक राजनीतिक जमीन दिलाई, वहां लेफ्ट फ्रंट सरकार औद्योगिकरण कर रही थी और ममता उसका विरोध कर रही थीं। सिंगूर से अपनी विदाई से रतन टाटा इतने आहत हुए थे कि उन्होंने ममता बनर्जी पर अपने कॉरपोरेट विरोधियों से मिले होने तक का आरोप लगा दिया।

ममता अब प्रमुख उद्योग संगठन फिक्की के महासचिव अमित मित्रा को राज्य में वित्त मंत्री बनाकर अपनी उद्योग-विरोधी छवि को मिटाने की कोशिश करेंगी। लेकिन जिस मां, माटी, मानुष के नारे पर व्यापक अवाम ने उन्हें जिताया है, क्या उनकी यह भंगिमा उसकी भावनाओं को आहत नहीं करेगी। क्या गांवों के किसान अपनी जमीन से बेदखल होने पर सिंगूर और नंदीग्राम जैसा हल्ला नहीं मचाएंगे?

असल में ममता को पश्चिम बंगाल के औद्योगिक विकास के लिए नहीं, बल्कि लेफ्ट से निजात पाने के लिए वोट मिला है। लेफ्ट, खासकर सीपीएम राज्य में यथास्थिति से ऐसी चिपक गई थी कि उसे कभी सच दिखाई नहीं दिया। दिखा भी तो वह सत्ता छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकी। अगर सिंगूर व नंदीग्राम में किसानों के हित में खड़े होकर बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अपनी सरकार को दांव पर लगा दिया होता तो थोड़ी अशांति जरूर होती, लेकिन आज वे दोबारा सत्ता में होते। सीपीएम खुद अपने कार्यकर्ताओं के भ्रष्टाचार से इतनी परेशान हो गई थी कि उसे पार्टी में शुद्धिकरण अभियान तक चलाना पड़ा।

वह तो अपना शुद्धिकरण नहीं कर पाई, जनता से उसे जरूर शुद्ध कर दिया है। गरीब किसानों से लेकर मुसलमानों तक ने इस बार लेफ्ट के खिलाफ ममता को वोट दिया है। शहरी मतदाता भी लेफ्ट की जड़ता से तंग आ गया था तो वह भी खुलकर पोलिंग स्टेशनों तक पहुंचा। यही वजह है कि इस बार पश्चिम बंगाल में 84.46 फीसदी मतदान हुआ है जो अब का रिकॉर्ड है। ममता को नकारात्मक वोट मिला है। उन्होंने लेफ्ट को हटाने का दमखम दिखाया तो जनता ने उन्हें वोट दे डाला।

तमिलनाडु में कहा जा रहा है कि करुणानिधि व डीएमके के भ्रष्टाचार के लिए जनता ने उन्हें सबक सिखाया है। 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में राजा और करुणानिधि की बेटी कनिमोई की लिप्तता ने डीएमके की छवि मटियामेट कर दी। इसका खामियाजा डीएमके गठबंधन को उठाना पड़ा। और, डीएमके के भ्रष्टाचार से निजात पाने के लिए जनता ने जयललिता को चुन लिया।

सोचिए, इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? कौन नहीं जानता कि जयललिता और उनकी एआईएडीएमके के चंगू-मंगू कितने बड़े भ्रष्ट हैं। असल में वहां भी जयललिता नकारात्मक वोटों से जीती हैं। लोग करुणानिधि की हरकतों से इतने आजिज आ गए थे कि मुफ्त टीवी सेट भी उनका फैसला नहीं बदल सके। तमिलनाडु में नोट करने की बात यह है कि इस बार वहां भी रिकॉर्ड मतदान हुआ है – 78.80 फीसदी। 2006 के विधानसभा चुनावों में वहां 70.82 फीसदी मत पड़े थे।

साफ-सी बात है कि न तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी विकास व औद्योगिकीकरण की प्रतिमूर्ति बनकर जीती हैं और न ही तमिलनाडु में जयललिता भ्रष्टाचार के खिलाफ खड़ी मसीहा के रूप में। लोग सत्तारूढ़ दलों से मुक्ति पाना चाहते थे तो उन्होंने उन्हें हरा सकनेवालों को जिता दिया। लेकिन जिस तरह मतदान के प्रति अवाम की उदासीनता टूट रही है, वह बेहद सुखद संकेत है। इससे पता चलता है कि अण्णा हजारे के आंदोलन में दिखी चिनगारी नीचे तक फैल रही है। यह है तृण मूल या देश की ग्रास रूट हकीकत। हमें इसका स्वागत करना चाहिए और तृण मूल कांग्रेस व उनकी मुखिया ममता बनर्जी को लेकर कोई खुशफहमी नहीं पालनी चाहिए।

वैसे, ममता को हमारी नेक सलाह यह है कि वे अगर मुख्यमंत्री बनने को लोभ-संवरण कर सकें तो उनके लिए अच्छा होगा। किसी और वो पश्चिम बंगाल की कुर्सी सौंप दें और खुद दिल्ली की राजनीति करती हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगी। नतीजतन, अपनी प्रशासनिक क्षमता की कलई राज्य में भी उतारेंगी। पार्टी के कद्दावर नेताओं से बनाकर नहीं रख पाएंगी। चिल्लाएंगी जरूर। लेकिन जमीन के असली अंतर्विरोध नहीं हल कर पाएंगी। हमे ऐसा लगता है। फिर भी वे करिश्मा दिखा दें तो वाह, क्या बात है!

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