चांदी में करेक्शन और ग्लास दमकेगा

कंपनियों के नतीजों का मौसम खत्म होने को है। अब तक तस्वीर यह बनी है कि जहां इनफोसिस और रिलायंस इंडस्ट्रीज जैसी तमाम बड़े स्तर की कंपनियां बाजार की अपेक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही हैं, वहीं पोलारिस, एचसीएल टेक्नो व हिंदुस्तान जिंक जैसे मध्यम स्तर की कंपनियों ने उम्मीद के बेहतर नतीजे हासिल किए हैं। कुल मिलाकर कॉरपोरेट क्षेत्र का लाभार्जन बीते वित्त वर्ष 2010-11 में पहले से 20 फीसदी ज्यादा रहेगा। लेकिन चालू वित्त वर्ष में लागत के बढ़ने, महंगे तेल व मुद्रास्फीति के बावजूद 22 फीसदी वृद्धि की आशा है। भारत में उच्च विकास दर का बने रहना एक अच्छा संकेत है, खासकर तब जब अमेरिका को प्रमुख रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने डाउनग्रेड कर दिया हो।

अक्टूबर 2010 के बाद से भारतीय शेयर बाजार का बैरोमीटर, सेंसेक्स 21,000 से गिरते-गिरते 17,000 तक जा चुका है। इसके पीछे आर्थिक सुस्ती, मुद्रास्फीति, ब्याज दरों में वृद्धि, कच्चे तेल के दाम, राजनीतिक उथलपुथल, नेताओं की गिरफ्तारी, भ्रष्टाचार और उसमें कॉरपोरेट क्षेत्र व सरकारी अधिकारियों के लिप्त होने और संसद में गतिरोध जैसे कारक रहे हैं। लेकिन सटोरिया हरकतों की तो कोई हद होती नहीं। इसलिए इन सारे मसलों के बावजूद भी बाजार उठता रहा। अब सेंसेक्स 20,000 अंक से ज्यादा दूर नहीं है और शायद अगले 30 से 60 दिनों में हम यह स्तर हासिल कर लेंगे।

भारत ने कच्चे तेल व मुद्रास्फीति को छोड़कर बाकी सभी मसलों को संभाल लिया है। इन दो बातों को लेकर एफआईआई जब चाहते हैं, स्थानीय ऑपरेटरों की मिलीभगत से बाजार को पीट डालते हैं। हम दावे के साथ कह सकते हैं कि एफआईआई अकेले दम पर भारतीय बाजार को नहीं नचा सकते। उन्हें हर हाल में बाजार को गिराने या उठाने के लिए स्थानीय मदद चाहिए होती है। ब्लूमबर्ग का चैटरूम उनके लिए कारगर हथियार बन गया है। यहां से उठनेवाली ‘चर्चाओं’ पर न तो सेबी का कोई नियंत्रण है और न ही वित्त मंत्रालय का। ब्लूमबर्ग के इस चैटरूम तक केवल ऊपर के लोगों की पहुंच होती है। रिटेल निवेशकों व ट्रेडरों की औकात ही नहीं कि वे इन खबरों तक पहुंच सकें। वे तो दिन भर बिजनेस चैनलों की प्रायोजित व नियोजित खबरों के चक्कर में फंसे रहते हैं।

गुरुत्वाकर्षण का नियम इक्विटी शेयरों पर भी लागू होता है। लगातार तीन दिनों तक मंदड़ियों के साथ मिलकर 1000-1500 करोड़ रुपए की बिकवाली के बावजूद बाजार के बढ़ जाने का मतलब है कि गिरावट का दौर अब बीच चुका है और वह अब नए चरण में प्रवेश कर रहा है। जब तक बाजार गिरता रहता है, डाउनग्रेड का क्रम चलता है। गिरना रुकते ही डाउनग्रेड भी रुक जाते हैं। यहां इस डाउनग्रेड-अपग्रेड का कोई नियम ही नहीं है। हर ब्रोकर को आजादी है कि रिपोर्ट जारी कर अपनी टिप्पणी दे दे और जब खरीद या बिक्री की बात आए तो खुद अपनी घोषित सिफारिश से उल्टा बर्ताव करे। यह हमारे यहां का दस्तूर बन गया है। इसीलिए हम निवेशकों को शिक्षित करने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं ताकि इनके झांसे में न आकर अपनी विवेक-बुद्धि से फैसले कर सके।

वापस कच्चे तेल व मुद्रास्फीति पर लौटें तो ये दरअसल अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बने हुए हैं और हर देश इनकी जद में है। हालांकि हमारी खपत विकसित देशों के मुकाबले काफी कम है। फिर भी हमारी अर्थव्यवस्था पर महंगे तेल व चढ़ती मुद्रास्फीति का असर निस्संदेह रूप से पड़ता है। लेकिन इतिहास गवाह है कि तेल के दाम बढ़ने का रिश्ता खपत बढ़ने के दम पर हो रहे आर्थिक विकास से भी होता है। अगर विकास घटता है तो यकीनन तेल भी गिरता है जिसका असर अन्य सभी जिंसों पर पड़ता है। असल में यह एक ऐसा दुष्चक्र है जिसे तोड़ना आसान नहीं है। अंतरराष्ट्रीय सटोरिए इतने धाकड़ हैं कि लेहमान ब्रदर्स जैसा संकट न आए तो वे बीच में कभी अपना शिकंजा कभी ढीला नहीं करते।

अभी सोने और चांदी में यही हो रहा है। हम गुजरे हफ्ते चांदी के मार्जिन में भारी वृद्धि की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन दाम 70,000 रुपए के करीब पहुंच जाने के बावजूद ऐसा नहीं हुआ। मुश्किल यह है कि रिटेल निवेशक तो 70,000 रुपए पर भी चांदी खरीद रहे हैं और चांदी शनिवार को 72,000 रुपए/किलो पर जा पहुंची। संभवतः चांदी के तेजड़ियों ने लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) को इस बात के लिए ‘मैनेज’ कर लिया है कि वो मार्जिन बढ़ाने का फैसला टाल दे। यह चांदी में हर दिन हो रही 3 फीसदी की बढ़त से झलकता है जबकि ऐसा अमूमन तेजी के आखिरी दौर में होता है। चांदी में अंतिम लक्ष्य तो 100 डॉलर प्रति (ट्रॉय) औंस का है। इस समय चांदी का भाव 47.25 डॉलर प्रति औंस (एक किलोग्राम = 32.15 औंस) चल रहा है। लेकिन किसी भी वक्त चांदी मं 25 फीसदी करेक्शन से इनकार नहीं किया जा सकता। हमें बस इतना देखना है कि करेक्शन के पहले सटोरिये चांदी को कहां तक चढ़ाकर ले जाते हैं – 75,000 रुपए, 80,000 रुपए या 85,000 रुपए तक। इस बीच समझदार ट्रेडरों ने मंदड़ियों की शॉर्ट कवरिंग के बरक्स शॉर्ट पोजिशन बनानी शुरू कर दी है।

जो भी हो, कच्चे तेल व मुद्रास्फीति के बारे में हम कह सकते हैं कि ये मसले लंबे समय तक भारत को परेशान नहीं कर सकते। वित्त वर्ष 2010-11 बीच चुका है और हमें अब चालू वित्त वर्ष 2011-12 की बात करनी चाहिए। अनुमान है कि इस दौरान सेंसेक्स का ईपीएस 1550 रुपए रहेगा। अगर हम बीते 15 सालों के औसत पी/ई अनुपात 15 को आधार बनाएं तो ईपीएस को पी/ई (1550 X 15) से गुणा करने पर सेंसेक्स का लक्ष्य आता है 23,250 जो हमारे 24,000 के लक्ष्य के काफी करीब है। रिटेल निवेशकों की कम शिरकत, आर्थिक सुधारों की तेज रफ्तार, भ्रष्टाचार पर काबू पाने के उपाय और सेंसेक्स के 21,000 तक पहुंचने के बाद रिटेल निवेशकों की वापसी ऐसे पहलू हैं जो बाजार में तरलता बढ़ा सकते हैं और सेंसेक्स को कैलेंडर वर्ष 2011 के भीतर ही 26,000 अंक तक पहुंचा सकते हैं।

दुखद पक्ष यही है कि पिछले तीन सालों में शेयर बाजार में रिटेल निवेशकों की होल्डिंग और भी ज्यादा घट गई है। वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब तमाम ब्रोकरेज हाउस अपना शटर गिरा देंगे और एफआईआई का दबदबा और ज्यादा बढ़ जाएगा। हमें लगता है कि यह माकूल वक्त है कि सरकार उन 98 फीसदी भारतीयों को पूंजी बाजार में लाने के ठोस उपाय करे जो पारदर्शिता, उचित प्रणाली, पूंजी की सुरक्षा और निवेश पर पर्याप्त रिटर्न के मौके के अभाव के चलते दूर छिटके पड़े हैं।

अभी तो 98 फीसदी भारतीय मानते हैं कि बैंकों के एफडी से मिलनेवाला कर-पूर्व 8-9 फीसदी रिटर्न ही उनके लिए सबसे सुरक्षित निवेश माध्यम है। उनकी बचत को इक्विटी बाजार में खींचने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। यही वजह है कि भारत जीडीपी में बचत दर के 35 फीसदी योगदान के साथ दुनिया में सबसे ज्यादा बचत करनेवाले देशों में शुमार है। लेकिन कोई भी देश लोगों के खर्च किए बगैर विकास नहीं करता। अमेरिका में व्यावहारिक रूप से कोई बचत नहीं है, फिर भी वह दुनिया का सबसे विकसित देश है।

हालांकि पिछले दशक में हमने कुछ हद तक देखा है कि भारतीयों की खपत का स्वरूप बदल रहा है। विदेशी यात्रा, विदेशी कारों, महंगे मोबाइल सेटों और इलेक्ट्रॉनिक सामानों वगैरह पर खर्च करने के मामले में भारत सबसे आगे हैं। लेकिन ऐसा केवल ऊंची नौकरियां करनेवाले वर्ग और औद्योगिक वर्ग में हो रहा है, व्यापक अवाम के स्तर पर नहीं। पर, बचत तो अवाम के पास है जिसे खींचकर चलाने की जरूरत है। यहां तक कि उपभोग पर जमकर खर्च करनेवाला उच्चवर्ग भी इक्विटी बाजार में निवेश करने से कतराता है।

सरकार को आज नहीं तो अगले दो-तीन सालों में इस समस्या पर गंभीरतापूर्वक सोचना होगा। वैसे, उसे थोड़ा-थोड़ा समझ में भी आ रहा है। यह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के आईपीओ के काफी डिस्काउंट पर जारी होने से दिखता है। हालांकि इसके बावजूद आम लोगों से इन्हें ठंडा रिस्पांस मिल रहा है। लोगों को नहीं समझ में आ रहा है कि मर्चेंट बैंकर निजी क्षेत्र की जोखिम भरी कंपनियों के आईपीओ भी 23 के पी/ई अनुपात पर ला रहे हैं, जबकि सरकारी कंपनियों के आईपीओ को 15-16 के पी/ई पर संघर्ष करना पड़ता है।

देश के विस्तृत बाजार में खपत पर आधारित उद्योगों की कहानी परवान चढ़ने लगी है। हमारी सलाह है कि निवेशकों को इन उद्योगों में कार्यरत कंपनियों में निवेश करना चाहिए जो उनकी दौलत को बढ़ाने का जरिया बन सकता है। घरेलू खपत के अलावा मेटल, माइनिंग, ऑटो व ऑटो कंपोनेंट सेक्टर में निवेश के आकर्षक अवसर हैं। रसायनों और ग्लास का सेक्टर भी आश्चर्यजनक रूप से उभर रहा है। खासतौर पर इधर ग्लास कंपनियों में एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) निवेशकों की भारी खरीद देखी जा रही है। पिरामल ग्लास, असाही व बोरोसिल सबकी नजरों में चढ़ चुके हैं, जबकि सेंट गोबैन में भी आकर्षण दिख रहा है। इस उद्योग की तमाम कंपनियों ने क्षमता विस्तार की घोषणाएं की हैं। हमारा मानना है कि अगले दो-तीन सालों में यह सेक्टर चौंकानेवाला रिटर्न दे सकता है।

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