दम तोड़ चुका है जनसंख्या विस्फोट का सिद्धांत

स्वतंत्रता दिवस, 15 अगस्त 2020 को शनिवार का दिन था। शनि का दिन यानी मानें तो दुर्बुद्धि का दिन। पिछली बार 15 अगस्त को गुरुवार का दिन था। गुरु का दिन, बुद्धिमत्ता का दिन। लेकिन तब 15 अगस्त 2019 के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से बड़ी दुर्बुद्धि वाली बात कही थी। उन्होंने ‘बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट’ का जिक्र करते हुए कहा था, “जनसंख्‍या विस्‍फोट हमारे लिए, हमारी आनेवाली पीढ़ी के लिए अनेक नए संकट पैदा करता है। देश में एक छोटा वर्ग परिवार को सीमित करके अपने परिवार का भी भला करता है और देश का भला करने में बहुत बड़ा योगदान देता है। ये सभी सम्‍मान के अधिकारी हैं। छोटा परिवार रखकर वे देशभक्ति को अभिव्‍यक्‍त करते हैं।” आज़ादी के 72 साल बाद भारत का कोई प्रधानमंत्री 221 साल पुराने सिद्धांत के आधार पर राष्ट्र को जनसंख्या विस्फोट के नाम पर इस तरह डराए और इसमें देशभक्ति का तड़का भी लगा दे तो समझ लेना चाहिए कि तथ्यों से सत्य को खोजने और नए तथ्यों से सत्य को परिष्कृत करते जाने की सुदीर्घ परम्परा वाला देश ‘सत्यमेव जयते’ की राह से कहीं न कहीं ज़रूर भटक गया है।

बता दें कि साल 1798 में एक अंग्रेज़ पादरी थॉमस रॉबर्ट माल्थस ने अपनी किताब ‘An Essay on the Principle of Population Growth’ में समूचे इंग्लैंड को इसी तरह डराते हुए लिखा था कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि संसाधनों को खत्म कर देगी और हर तरफ भयंकर अकाल छा जाएगा। उनका नेक सुझाव था कि जन्म दर घटाने के लिए देर से शादियां की जाएं। साथ ही अगर गरीबों को गंदी बस्तियों में रहने को मजबूर कर दिया जाए, वहां प्लेग जैसी बीमारियां फैलने दी जाएं और इन बीमारियों के विशेष इलाज़ को ही बैन कर दिया जाए तो ऐसा करना नैतिक रूप से सही व स्वीकार्य होगा।

यह किताब छपने के 36 साल बाद 1834 में माल्थस दुनिया में नहीं रहे। लेकिन दुनिया में इस दौरान औद्योगिक क्रांति का आगाज़ हो गया और उसने ऐसा कमाल दिखाया कि कहीं कोई अकाल नहीं आया। हर तरफ ऐसी समृद्धि छाई कि इफरात बचे धन से अभूतभूर्व स्तर पर सुरक्षित जल की आपूर्ति और सीवेज प्रणाली की व्यवस्था कर दी गई। आम लोगों का जीवनस्तर चमकने लगा और उनकी औसत उम्र भी बढ़ गई। धीरे-धीरे कृषि में मशीनों का उपयोग बढ़ा। तब आबादी बढ़ने से कहीं ज्यादा रफ्तार से अन्न के भंडार बढ़ते गए। माल्थस का सारा सिद्धांत औंधे मुंह गिर गया। फिर भी कमाल कि उसकी सोच मरी नहीं और अब तक भी नहीं मरी है।

साल 1968 में स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के जीव-वैज्ञानिक पॉल एरलिट ने अपनी किताब में ‘The Population Bomb’ की शुरुआत ही यहां से की कि 1970 के दशक में तमाम क्रैश प्रोग्रामों के बावजूद करोड़ों लोग भूख से दम तोड़ देंगे। 1972 में क्लब ऑफ रोम ने ‘The Limit to Growth’ नाम की रिपोर्ट जारी की। इसमें कंप्यूटर सिमुलेशन से दिखाया गया कि आबादी के विस्फोट और संसाधनों के कमी से कैसे बहुत जल्दी ही सारा मानव समाज नष्ट हो जाएगा। इसके बाद मेक्सिको, बोलिविया, पेरू, इंडोनेशिया, बांग्लादेश व भारत जैसे देशों में जबरन नसबंदियां की जाने लगीं। अपने यहां इमरजेंसी के दौरान 1975 से 1977 तक सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 81 लाख लोगों को बधिया बना दिया गया।

फिलहाल डर है कि इमरजेसी का विरोध करने के बाजवूद प्रधानमंत्री मोदी ‘जनसंख्या विस्फोट’ से निपटने के नाम पर देर-सबेर कहीं उसी तरह का अत्याचार न शुरू कर दें। हालांकि मोदी देश के 91 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं में से करीब 25 प्रतिशत का ही प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन हमारे यहां जनसंख्या को देश की सारी समस्याओं की जड़ माननेवालों की कोई कमी नहीं है। इनमें हमारे-आप के घरों के आम लोग ही नहीं, आईआईटी और बड़े-बड़े विश्वविद्यालयों से निकले बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान भी शामिल हैं।

वास्तविकता यह है कि आज मोदी और उनकी सोच में घुसे चूहे, माल्थस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी हैं। फिर भी उसका प्लेग क्यों रह-रहकर उभर आता है, हमें यह समझना ज़रूरी है। साथ ही हमें यह भी देखना होगा कि भारत में ‘जनसंख्या विस्फोट’ का सच क्या है। संयुक्त राष्ट्र की एक अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल प्रजनन दर (टीएफआर) 1950 से 2020 तक के 70 सालों में 5.9 बच्चे प्रति स्त्री से घटकर 2.2 बच्चे प्रति स्त्री पर आ चुकी है। यह जनसंख्या को स्थिर रखने की प्रजनन दर 2.1 बच्चे प्रति स्त्री के बहुत करीब है। इसे प्रतिस्थापन दर कहा जाता है। अगर देश में बाहर से लोग न आएं और भीतर से कोई पलायन न हो तो जितने लोग हर साल मरते हैं, उतने इस कुल प्रजनन दर से बराबर हो जाते हैं। इस तरह देश की आबादी बढ़ने के बजाय स्थिर हो जाती है। भारत में साल 2050 आते-आते कुल प्रजनन दर घटकर 1.7 बच्चे प्रति स्त्री हो जाने का अनुमान है। तब हमारी आबादी बढ़ने के बजाय घट रही होगी।

वैसे, भारत में अगर छह राज्यों – बिहार (3.2), उत्तर प्रदेश (2.9), मध्य प्रदेश (2.7), राजस्थान (2.5), झारखंड (2.5) व छत्तीसगढ़ (2.4) को छोड़ दें तो बाकी राज्यों में प्रजनन दर पहले ही प्रतिस्थापन दर पर आ चुकी है। पिछले कुछ दशकों से देश में जनसंख्या की वृद्धि दर घटती जा रही है। 1975 से 2085 के दौरान यह 2.3 प्रतिशत थी, जबकि 2010 से 2015 के दौरान घटकर 1.2 प्रतिशत पर आ चुकी है। 2040 के दशक का अंत आते-आते इसके 0.5 प्रतिशत से कम हो जाने का आकलन है, जबकि 2060 के बाद यह वृद्धि दर ऋणात्मक हो जाएगी।

गौरतलब कि देश में 1995 से लेकर 2000, 2007 और 2017 में हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षणों से भी यह बात सामने आई है कि हिंदू, मुसलमान और समाज के उच्च वर्ग में प्रजनन दर तेज़ी से घट रही है। जहां-जहां महिलाएं ज्यादा शिक्षित व सम्पन्न हैं, उनकी कुल प्रजनन दर आमतौर पर प्रतिस्थापन दर से भी कम होती है। साथ ही यह भी तथ्य है कि जहां शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और आर्थिक विकास की स्थिति बेहतर है, वहां खुद-ब-खुद प्रजनन दर और जनसंख्या की वृद्धि दर घट जाती है। देश में केरल इसका सबसे बड़ा उदाहरण है जहां कुल प्रजनन दर 1.7 बच्चे प्रति स्त्री पर आ चुकी है और जनसंख्या बढ़ने के बजाय घटने लगी है।

साफ-सी बात है कि जहां भी प्रजनन दर 2.1 बच्चे प्रति स्त्री से कम हो जाएगी, वहां जनसंख्या घटने लगेगी। लम्बे समय में ऐसा होना देश की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा नहीं होता। ऐसा होने पर भारत अभी जिस डेमोग्राफिक डिविडेंड का दम भरता है, वह खत्म हो जाएगा और देश में नौजवानों या काम करने लायक लोगों के बजाय बूढ़ों की संख्या बढ़ जाएगी। इसलिए जबरन जनसंख्या घटाने का कार्यक्रम निरर्थक ही नहीं, नुकसानदेह भी है। चीन जैसा देश भी अब एक बच्चे की नीति का नुकसान समझ चुका है। जापान इस समय बूढ़ों से पट चुका है। यूरोप के तमाम देश जनसंख्या बढ़ाने के लिए सालों से प्रोत्साहन दिए जा रहे हैं। लेकिन वहां काम करनेवालों हाथों की कमी बढ़ती जा रही है।

अगर हम मान भी लें कि ज्यादा आबादी या जनसंख्या विस्फोट कोई समस्या है तो इसकी भी एक्सपायरी डेट है। दुनिया भर में जन्म दर घट रही है। अनुमान है कि विश्व जनसंख्या 2070 के आसपास शिखर पर पहुंचने के बाद घटने लग सकती है। यह भी शोध व अनुसंधान से निकला अकाट्य सच है कि जैसे-जैसे कोई देश संपन्न बनता है, लोग गरीबी से बाहर निकलते हैं तो वे छोटा परिवार रखने लगते हैं। किसी देश में प्रति व्य़क्ति आय जैसे ही 5000 डॉलर (चार लाख रुपए) सालाना तक पहुंचती है, वहां प्रजनन घटने लगती है।

इसलिए जनसंख्या विस्फोट का डर पैदा करना आज के ज़माने में शुद्ध बकवास है। ऐसी बातें वही राजनेता कर सकता है जो शिक्षित होने के बावजूद पूरी तरह अज्ञानी है या फिर जिसकी नीयत जनधन का उपयोग राष्ट्र व जनहित में नहीं, बल्कि दलगत व मुठ्ठी भर मित्र कॉरपोरेट समूहों का स्वार्थ साधने की है। आज भारत को बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और रोजगार के भरपूर मौकों के सृजन पर ध्यान देना चाहिए और 18वीं सदी की सोच को कहीं गहरे दफ्न कर देना चाहिए। तभी हम एक मजबूत व समृद्ध राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।

 

1 Comment

  1. अभी माल्थस का सिद्धांत मरा नहीं। चीन ने वन चाइल्ड पॉलिसी से प्रगति की । भारत की कितनी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे है? सभी प्रगति को जनसंख्या हड़प लेती है।

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