राजनीति कभी संजीवनी थी कंपनियों के लिए, अब बनते-बनते बनी है जहर

पिछले कुछ सालों में ही कंपनियों के प्रति निवेशकों का नजरिया बदल गया है। तीन-चार साल पहले 2007-08 तक अगर कंपनियों का बड़े नेताओं से ताल्लुक होता था तो उन्हें अच्छा माना जाता था। 2005 से 2007 तक चले तेजी के दौर में राजनीतिक संपर्कों वाली कंपनियों के शेयर जमकर चढ़े। लेकिन 2008 आते-आते यह दौर खत्म हो गया। अब हालत यह है कि राजनीतिक जुड़ाव होना एक तरह का जोखिम माना जाने लगा है और बड़े  निवेशक खासकर, एफआईआई उनसे दूर ही रहना चाहते हैं। आम निवेशक भी रीयल्टी, खनन व टेलिकॉम क्षेत्र की कुछ कंपनियों का हश्र देखने के बाद ऐसी राजनीतिक पहुंच से भय खाने लगे हैं।

कोटक सिक्यूरिटीज के कार्यकारी निदेशक संजीव प्रसाद कहते हैं, “एक समय निवेशक मानकर चलते थे कि इस तरह के संपर्कों वाली कंपनियां उन उद्योग क्षेत्रों के लिए बेहतर स्थिति में हैं जहां सरकारी प्रभाव या भूमिका चलती है। 2005-2007 के दौरान ऐसा ही था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब निवेशक पूछने लगे हैं कि क्या राजनीतिक जुड़ाव के अलावा कंपनियों के पास कोई दूसरा पहलू भी है जो होड़ में उन्हें आगे ले जाएगा।”

असल में जनवरी 2009 में सत्यम कंप्यूटर के घोटाले के सामने आने के बाद देशी-विदेशी निवेशकों के लिए कॉरपोरेट गवर्नेंस बड़ा मुद्दा बन गया है। कॉरपोरेट गवर्नेंस में देखा जाने लगा है कि कंपनी का प्रबंधन कितना प्रोफेशनल है और कितना हवा-हवाई। इसमें राजनीतिक जुड़ाव नकारात्मक रोल अदा कर रहा है। 2जी घोटाले में दयानिधि मारन का नाम आने पर उनके भाई कलानिधि मारन की दो कंपनियों – सन टीवी और स्पाइसजेट का हश्र सबके सामने है। डीबी रीयल्टी कितनी भी सफाई दे रही है, रिलायंस कम्युनिकेशंस कितना भी जोर आजमा रही है, लेकिन उनके शेयर गिरते ही जा रहे हैं। हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शन कंपनी (एचसीसी) के लिए शरद पवार का करीबी होना भारी पड़ रहा है।

विदेशी संस्थागत निवेशक, एफआईएम इंडिया की हेलसिंकी (फिनलैंड) में रहनेवाली पोर्टफोलियो मैनेजर टायना इराजुरी कहती हैं कि वे अनिल अंबानी तक की कंपनियों के शेयरों से दूर रहती हैं। उनका कहना है कि इनके बारे में जैसी सूचनाएं भारत से मिलती हैं, उससे उन्हें तसल्ली के बजाय बेचैनी होती है। बता दें कि अनिल अंबानी जून 2004 से मार्च 2006 तक राज्यसभा के सांसद रह चुके हैं। राजनेताओं की शोहबत उन्हें इतनी सुहाती है कि वे हर हफ्ते राजधानी दिल्ली का एक चक्कर जरूर काट लेते हैं।

बताते हैं कि उनके बड़े भाई मुकेश अंबानी राजनीतिक संपर्कों के मामले में बड़े शर्मीले हैं। कभी दस जनपथ के बड़े करीबी थे। लेकिन राजनातिक लटके-झटके नहीं संभाल सके तो रिश्ते तल्ख हो गए। दबी जुबान से कहा जाता है कि रिलांयस इंडस्ट्रीज की जैसी फजीहत केजी बेसिन के डी-6 ब्लॉक और शेयर बाजार में हो रही है, उसमें कांग्रेस के डिग्गी खेमे का बड़ा हाथ है। लेकिन कही गई बातों की पुष्टि हो पाना बेहद मुश्किल है। टायना इराजुरी की निवेश फर्म एफआईएम इंडिया ने भारतीय शेयर बाजार में इनफोसिस, टीसीएस, एचडीएफसी बैंक, महिंद्रा एंड महिंद्रा और भारती एयरटेल के साथ-साथ रिलायंस इंडस्ट्रीज में भी ठीकठाक निवेश कर रखा है।

ब्रोकरेज फर्म एम्बिट कैपिटल ने शेयर बजार में कंपनियों की स्थिति और उनके राजनीतिक संबंधों पर रिसर्च कर रखी है। फर्म के इक्विटी विभाग के प्रमुख सौरभ मुखर्जी कहते हैं, “अगर किसी बिजनेस का प्रतिस्पर्धात्मक फायदा राजनीतिक पहुंच पर टिका है तो समझ लीजिए कि उनमें खतरे का लाल निशान लग गया है। हम इस मसले पर शोध इसलिए करते हैं क्योंकि निवेशक अब अपने पोर्टफोलियो को राजनीतिक जोखिम से मुक्त रखने की सक्रिय कोशिश करने लगे हैं।”

गौरतलब है कि एम्बिट कैपिटल ने 360 कंपनियों का अध्ययन किया है जिसमें से 25 के मजबूत राजनीतिक संबंध हैं और 50 के राजनीतिक संबंध मध्यम स्तर के हैं। उसने कंपनियों का नाम नहीं बताया। लेकिन उसका कहना है कि मजबूत राजनीतिक संबंधों वाली कंपनियों के शेयरों ने 2008 तक चले तेजी के दौर में बाजार को मात दी थी। लेकिन पिछले साल इनके शेयर प्रमुख सूचकांकों की तुलना में 14 फीसदी नीचे रहे हैं। इस समय राजनीतिक अहमियत व जुड़ाव वाले प्रमुख सेक्टर हैं – पूंजीगत माल, इंफ्रास्ट्रक्चर, कंस्ट्रक्शन, रीयल एस्टेट और बिजली। इन सभी सेक्टरों के शेयर इस समय पस्त हाल में पड़े हैं। (स्रोत: रायटर्स)

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