पैसिव सरकार और एक्टिव ऑपरेटर

कच्चे तेल का हल्ला हमारे लिए बेमतलब है। मध्य-पूर्व में राजनीतिक संकट उभरने के बाद अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम बढ़ते ही जा रहे हैं। लेकिन इसी दौरान निफ्टी 5400 से 5900 और सेंसेक्स 18,000 से 19,750 तक बढ़ चुका है। मतलब यह कि फिलहाल भारतीय बाजार को गिराने या उठाने के कारकों में तेल का उतना हाथ नहीं है। एक सोच कहती है कि तेल की हालत अर्थव्यवस्था में पलीता लगा देगी और इसलिए बाजार धराशाई हो जाएगा। दूसरी सोच कहती है कि तेल के दाम का बढ़ना आर्थिक विकास का प्रतिफल है और इसलिए अर्थव्यवस्थाएं तेल के दर्द को सोख जाएंगी, बढ़त जारी रहेगी और बाजार तेल से असंपृक्त बना रहेगा।

इसी तरह हम धीर-धीरे ऊंची मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में वृद्धि के आदी होते जाएंगे। वित्त मंत्री ने हाल ही में ऐसा ही बयान दिया है। उन्होंने कहा कि मुद्रास्फीति को थामने के लिए आर्थिक विकास की बलि नहीं दी जा सकती। असल में ये सारे मुद्दे एक तरफ और बाजार की हकीकत दूसरी तरफ है। बाजार को उठने-गिरने का मौका पैदा करने और लोगों का ध्यान हकीकत से हटाने के लिए मनचाहे मुद्दे उछालने की आदत पड़ गई है। कारण यह है कि कमाई के स्रोत सूख रहे हैं और बड़े खिलाड़ी केवल उथल-पुछल पैदा करके ही नोट बना सकते हैं। जब तक स्टॉक एक्सचेंज, बाजार नियामक सेबी और वित्त मंत्रालय इस सच को नहीं समझते, तब तक हम रिटेल निवेशकों व ट्रेडरों को डूबने से नहीं बचा सकते।

हमने हाल में 102 ब्रोकरों के बीच एक रायशुमारी की और पाया कि बाजार में गहराई, वोल्यूम व जॉबिंग के अभाव और रिटेल निवेशकों के ठंडे पड़ने रहने के चलते 95 फीसदी ब्रोकरों का धंधा ठीक नहीं चल रहा है। कुछ साल पहले तक बीएसई में वोल्यूम 15,000 करोड़ से 18,000 करोड़ रुपए का रहा करता था। अब घटकर 3000 करोड़ रुपए पर आ गया है। अगर यही हाल अगले 6 से 12 महीनों तक जारी रहता है और कुछ बड़े कदम नहीं उठाए जाते तो बीएसई का वोल्यूम घटकर 1000 करोड़ रुपए पर आ जाएगा और यहां के 90 फीसदी ब्रोकर अपने शटर गिरा देंगे क्योंकि उनके कामकाज का खर्च उनके पूरे तंत्र से हो रही कमाई से कहीं ज्यादा पड़ रहा है।

छोटी अवधि का दांव खेलनेवाले ट्रेडर तो जादू की तरह चुटकियों में रिटर्न चाहते हैं। हमने ट्रेडरों और निवेशकों को उद्योग के अग्रणी स्टॉक्स, जैसे हीरो होंडा, एसबीआई व इनफोसिस में बढ़ने की सोच के साथ खरीदने या लांग होने से सही वक्त पर रोक लिया। हमारे चेतावनी के बाद इन सभी में गिरावट आई है। लेकिन निवेशकों को इसमें मजा नहीं आया। वे चाहते थे कि इनफोसिस में 3300 रुपए पर शॉर्ट सौदे करते और शाम को 3000 रुपए पर उसे काट देते। इस तरह सीधे-सीधे 9 फीसदी से ज्यादा कमा लेते। लेकिन हमारे लिए यह कोई मायने नहीं रखता।

इनफोसिस का शेयर 10 फीसदी इसलिए गिर गया क्योंकि बाजार को 2000 करोड़ रुपए के शुद्ध लाभ की उम्मीद थी जो पूरी नहीं हुई। फिर कंपनी के दो प्रमुख निदेशकों ने बोर्ड से इस्तीफा दे दिया। यूं तो ऊपर से देखें तो यह सब कुछ सामान्य नजर आता है और इसमें अनहोनी जैसा कुछ नहीं दिखता। लेकिन अंदर पैठें तो दरअसल यह इनफोसिस पर आठ सालों से चले आ रहे मुंबई के एक इनवेस्टमेंट बैंकर के प्रभाव का अंत का संकेत है। शुक्रवार को इस निवेश हाउस ने लांग पोजिशन बना रखी थी। फिर भी स्टॉक का 10 फीसदी गिर जाना दिखाता है कि उनकी सोच और मंसूबा बेअसर रहा। माहौल बिगड़ा तो बिगड़ता ही चला गया। लेकिन इतनी बात जान लें कि इनफोसिस भारतीय शेयर बाजार का सचिन तेंडुलकर है। एक दिन का खराब फॉर्म उसे निरर्थक नहीं बना सकता। इनफोसिस एक स्तरीय स्टॉक है और वह हमेशा ऐसा ही रहेगा क्योंकि कंपनी सचेत प्रबंधन के दम हर नई बाधा व अवसर को पकड़ रही है।

बराक ओबामा अगले साल के राष्ट्रपति चुनावों में फिर से खड़े हो रहे हैं और इसलिए वे इस समय अमेरिकी बाजार को गिरने नहीं देंगे। असल में, अमेरिका अर्थव्यवस्था के बैरोमीटर के रूप में शेयर बाजार का महत्व समझता है, जबकि भारत के साथ ऐसा नहीं है। भारत सरकार अब भी पूंजी बाजार को लेकर पैसिव या उदासीन बनी हुई है जिसके चलते एक्टिव विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) और हमारे चालबाज ऑपरेटरों की मौज हुई पड़ी है। केवल एलआईसी ही एकमात्र सरकारी संस्थान है जो समय-समय पर बाजार को  सहारा देता रहता है।

सरकार आम भारतीयों को पूंजी बाजार में लाने में स्पष्ट रूप से नाकाम रही है। लेकिन ऐसा हो सकता है बशर्ते उन्हें उचित प्रोत्साहन दिया जाए, एफआईआई का रसूख घटाया जाए, रिटेल निवेशकों की पूंजी की हिफाजत के लिए ज्यादा चौकस वित्तीय सुधार किए जाएं और बाजार को व्यापक आधार दिया जाए। हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि अभी हमारे यहां जिस तरह की शेयरधारिता का स्वरूप है, उसमें बाजार को ऊंचा ही ऊंचा उठते जाना है।

दिसंबर 2007 में भारतीय शेयर बाजार के पूंजीकरण में रिटेल व एचएनआई (हाई नेटवर्थ इंडीविजुअल) निवेशकों का हिस्सा करीब 12 फीसदी था जो अब घटकर 7 फीसदी से नीचे आ चुका है। इसमें 1-2 फीसदी और गिरावट आ गई तो समझिए कि बाजार से रिटेल निवेशक साफ हो जाएंगे। इस दरम्यान एफआईआई का हिस्सा भी 22 फीसदी से गिरकर 16 फीसदी पर आ गया है, जबकि एलआईसी व बैंकों का हिस्सा 3 फीसदी से बढ़कर 7 फीसदी हो गया है। शेयरधारकों की बाकी बची श्रेणी है प्रवर्तकों व ऑपरेटरों की। इनके हिस्से में महत्तम वृद्धि हुई है जो दर्शाती है कि वे सेंसेक्स को 50,000 के ऊपर ले जाने की हरचंद कोशिश करेंगे क्योंकि तभी उन्हें कायदे का मुनाफा कमाकर निकलने का मौका मिलेगा।

बाजार के ताजा हाल की बात करें तो इनफोसिस के नतीजों की पृष्ठभूमि में रोलओवर की तकलीफ का दौर शुरू हो चुका है। बाजार (निफ्टी) बिना किसी ठोस आर्थिक वजह के 450 अंक चढ़ गया तो ऐसा शॉर्ट कवरिंग के चलते हुआ। फिर इनफोसिस व मुद्रास्फीति के बहाने 350 अंक गिर गया। शॉर्ट भी कटे, लांग भी कटे और इनफोसिस के नतीजों के साथ बाजार ओवरसोल्ड स्थिति में पहुंच गया। बाजार की दिशा अगले तीन दिनों में होनेवाले कॉल और पुट ऑप्शन से तय होगी। लेकिन बाजार की तेज वापसी की गुंजाइश काफी ज्यादा है।

इस सेटलमेंट में निफ्टी के 5600 या 5650 पर चले जाने के लिए तैयार रहें ताकि ऐसा हो तो आपको कोई पीड़ा न हो। ऊपर की दिशा की बात करें तो यह 6000 के पार जाकर सबको चौंका सकता है। इस बीच तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद निफ्टी में शामिल 50 स्टॉक्स ने अच्छी तरह टिके रहने की प्रवृत्ति दिखाई है। इससे पता चलता है कि बाजार में चुनिंदा खरीदार सक्रिय हैं और कोई भी गलत फैसला आपको धक्का लगा सकता है।

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