विस्थापितों को 26% शेयर देने का प्रस्ताव हवा में

खानों के विकास और खनन अधिकारों से जुड़े नए विधेयक के प्रारूप पर मंत्रियों का समूह 22 जुलाई को चर्चा करेगा। यह जानकारी खान सचिव संता शीला नायर ने राजधानी दिल्ली में शुक्रवार को संवाददाताओं को दी। लेकिन सूत्रों के मुताबिक खान मंत्रालय के आला अधिकारियों ने कंपनियों की जबरदस्त लॉबीइंग के चलते विधेयक के मूल प्रारूप में ऐसा बदलाव कर दिया है जिससे खनन परियोजना से विस्थापित होनेवाले परिवारों को शाश्वत रूप से आर्थिक सुरक्षा देने का क्रांतिकारी प्रस्ताव बेजान हो गया है।

माइंस एंड मिनरल्स डेवलपमेंट एंड रेगुलेशंस बिल 2009 नाम के विधेयक में पुराना प्रस्ताव यह था कि परियोजना में जिन भी परिवारों की जमीन जाएगी, उन्हें कंपनी प्रवर्तक कोटे से अपने 26 फीसदी इक्विटी शेयर मुफ्त में देगी। अगर परियोजना का मालिक कोई व्यक्ति है तो वह प्रभावित परिवारों को हर साल अपने शुद्ध लाभ का 26 फीसदी हिस्सा एन्युनिटी (वार्षिकी) के रूप में देगा। इस प्रस्ताव से विस्थापित परिवारों का ताजिंदगी समृद्धि और आर्थिक सुरक्षा मिल सकती है। लेकिन अब कंपनियों को सहूलियत देने के लिए इक्विटी और एन्युनिटी के प्रस्ताव का घालमेल कर दिया गया है।

सूत्रों के मुताबिक कंपनियों का तर्क यह है कि व्यापक कामकाज व कॉरपोरेट संरचना को देखते हुए स्थानीय लोगों को 26 फीसदी इक्विटी देना और उसे बरकरार रखना उनके लिए बहुत दुरूह काम होगा। इसकी जगह नकद रकम देना उनके लिए आसान है। मंत्रालय के अधिकारियों ने इसके बाद विधेयक के मूल प्रारूप में ऐसा संशोधन कर दिया है जिसके तहत कंपनियां नकद रकम या इक्विटी देने में से कोई भी विकल्प चुन सकती हैं और चाहें तो दोनों का कोई मिलाजुला फॉर्मूला निकाल सकती हैं।

जानकारों का कहना है कि यह संशोधन ऊपर से बहुत दंतहीन किस्म का सुविधाजनक प्रस्ताव लगता है। लेकिन इससे स्थानीय लोगों को परियोजना में ताजिंदगी मालिकाना हिस्सा देने के क्रांतिकारी कदम की जान निकाल दी गई है। मूल प्रस्ताव को लागू करने में भले ही कुछ कानूनी पेंचीदगियां हों, लेकिन यह जंगली इलाकों के आदिवासियों को देश की मुख्यधारा में लाने का काम कर सकता है। इससे माओवादी आंदोलन को भी कमजोर किया जा सकता है। साथ ही तात्कालिक तौर पर वेदांता समूह की बॉक्साइट खनन परियोजना या कोरियाई कंपनी पोस्को की स्टील परियोजना के खिलाफ उभरे आंदोलन का आधार खत्म किया जा सकता है।

गौरतलब है कि खनन परियोजना में इक्विटी भागीदारी या एन्युनिटी देने का प्रस्ताव विस्थापित को मिलने वाले सामान्य मुआवजे व सहूलियत से अलग है। विधेयक में यह भी प्रस्ताव है कि खनन कंपनी अगर किसी वजह से अपना कामकाज कुछ समय के लिए स्थगित या हमेशा के लिए बंद कर देती है तो उसे प्रभावित परिवारों को अतिरिक्त मुआवजा देना होगा। अगर कंपनी तीन महीने के अंदर ऐसा नहीं करती तो संबंधित राज्य सरकार उसकी जमानत राशि जब्त कर उससे लोगों को मुआवजा दे सकती है।

बता दें कि खनन विधेयक पर विवादों को सुलझाने के लिए पिछले महीने बनाए गए मंत्रियों के समूह में कुल दस सदस्य हैं। इसके अध्यक्ष वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी हैं। समूह के बाकी सदस्य हैं – गृह मंत्री पी चिदंबरम, खान मंत्री बिजॉय कृष्ण हांदीक, कानून मंत्री वीरप्पा मोइली, इस्पात मंत्री वीरभद्र सिंह, वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा, आदिवासी मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश और योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया।

सरकार इस विधेयक में चाहे तो स्थानीय लोगों को जमीन के अधिकार से वंचित भी कर सकती है क्योंकि 7 मई 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने अंबानी भाइयों के मामले में फैसला दे रखा है कि देश की सारी खनिज संपदा की मालिक केवल और केवल सरकार है। इसलिए अगर बेदखल लोगों पर सरकार ‘कृपा’ नहीं करती तो वे उससे कानूनी लड़ाई भी नहीं लड़ सकते।

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