वित्त वर्ष 2009-10 में देश में कुल 123.52 लाख जीवन बीमा पॉलिसियां लैप्स हो गई हैं। यह संख्या साल भर पहले 2008-09 में लैप्स हुई 91.08 लाख पॉलिसियों से 35.61 फीसदी अधिक है। सबसे ज्यादा चौंकाने की बात यह है कि पारदर्शिता की बात करनेवाली बीमा नियामक संस्था, आईआरडीए (इरडा) ने हाल ही में जारी अपनी 2009-10 की सालाना रिपोर्ट में इस बाबत स्पष्ट जानकारी देने से परहेज किया है। उसने सभी 22 जीवन बीमा कंपनियों के अलग-अलग आंकड़े तो दिए हैं। लेकिन उनका जोड़ करने की जहमत नहीं उठाई है। साफ-सा कारण यह लगता है कि पॉलिसियां बंद होने का क्रम इतना बढ़ जाने पर कोई भी सवाल उठा सकता है। शायद इसी से बचने के लिए इरडा ने छोटी-सी लाइन न देकर बड़ा-सा सच छिपा लिया।
इसमें भी गौर करने की बात यह है कि लैप्स पॉलिसियों के ये आंकड़े नॉन-लिंक्ड या गैर-यूलिप पॉलिसियों के हैं, जबकि असली मिस-सेलिंग तो यूलिप पॉलिसियों में हुई जिसमें बहुत-से पॉलिसीधारक साल भर के बाद कमीशन वगैरह का सच सामने आने के बाद प्रीमियम देना बंद कर देते हैं और पॉलिसी लैप्स हो जाती है। अक्टूबर 2010 से इरडा ने यूलिप का मामला दुरुस्त किया है। नहीं तो इससे पहले तक पहले साल के प्रीमियम का 40 फीसदी और दूसरे साल का 30 फीसदी तक हिस्सा कमीशन के रूप में काट लिया जाता था। बता दें कि किसी पॉलिसी में अगर तय तारीख के 15 से 60 दिन के भीतर प्रीमियम नहीं दिया जाता तो उसे लैप्स मान लिया जाता है। यह भी मजेदार तथ्य है कि यूलिप में इरडा ने लैप्स होने की कोई परिभाषा ही नहीं रखी है। यूलिप में अगर तय समयसीमा के भीतर प्रीमियम नहीं दिया जाता तो उसे लैप्स नहीं, ‘प्रीमियम-अवेटेड’ बता दिया जाता है।
यह बात भी नोट करने की है कि बीमाधारकों ने परेशान होकर अपना प्रीमियम देना बंद किया है। इसका सबूत इस तथ्य से मिलता है कि 2009-10 में बीमा कंपनियों को कुल 2449 शिकायतें मिलीं जिसमें से केवल 65 (2.7 फीसदी) ही लैप्स पॉलिसियों के बारे में थी, जबकि मिस-सेलिंग की शिकायतें 186 (7.6 फीसदी), यूलिप के शुल्क की 298 (12.2 फीसदी) और गलत प्लान या टर्म देने की 394 शिकायतें (16.1 फीसदी) थीं।
यूं तो लैप्स पॉलिसियों की संख्या के बारे में 97.44 लाख के आंकड़े के साथ एलआईसी सबसे ऊपर है। लेकिन कुल पॉलिसियों के सापेक्ष यह अनुपात केवल 4 फीसदी है, जिसे ठीकठाक माना जा सकता है। उसका यह अनुपात 2007-08 में 6 फीसदी और 2008-09 में 4 फीसदी रहा है। लैप्स पॉलिसियों के अनुपात के मामले में आईसीआईसीआई प्रूडेंशियल सबसे ऊपर है। इसकी 81 फीसदी पॉलिसियां किसी न किसी वजह से लैप्स हुई हैं। 2007-08 में उसका यह आंकड़ा 40 फीसदी और 2008-09 में बढक़र 53 फीसदी था। इसी तरह टाटा एआईजी की 2007-08 में कुल लैप्स पॉलिसियों की संख्या 35 फीसदी और 2008-09 में 26 फीसदी थी। 2009-10 में यह अनुपात बढक़र 42 फीसदी हो गया।
श्रीराम का यह आंकड़ा वित्तीय वर्ष 2007-08 में 55 फीसदी, 2008-09 में 41 और 2009-10 में 41 फीसदी रहा है। बिड़ला सनलाइफ की लैप्स पॉलिसियों का अनुपात 2007-08 में 6 फीसदी, 2008-09 में 9 फीसदी और 2009-10 में अचानक बढक़र यह 39 फीसदी हो गया है। अवीवा का अनुपात घटा है और 2007-08 में 80 फीसदी, 2008-09 में 59 फीसदी और 2009-10 में यह आंकड़ा 24 फीसदी हो गया। भारती अक्सा का 2007-08 में 45 फीसदी, 2008-09 में 46 और 2009-10 में भी 38 फीसदी अनुपात रहा है। हालांकि फ्यूचर जनराली का 2008-09 में 18 फीसदी था जो 2009-10 में बढक़र 37 फीसदी हो गया। जबकि रिलायंस का 2007-08 में 21 फीसदी था लेकिन 2008-09 में यह बढक़र 40 फीसदी और 2009-10 में यह घटकर 31 फीसदी पर आ गया।
इस तरह लैप्स पॉलिसियों की संख्या बढ़ने के बारे में एक निजी बीमा कंपनी के अधिकारी ने अपनी पहचान न जाहिर करते हुए बताया कि इस तरह की स्थिति तब आती है जब ग्राहकों को मिस सेलिंग करके पॉलिसी बेची जाए या फिर उनकी शिकायतों का निपटारा नहीं हो रहा हो। लेकिन इतने बड़े पैमाने पर पॉलिसियों का रद्द होना या जब्त होना, वाकई बीमा उद्योग के लिए खतरनाक है। असल में जानकारों के मुताबिक 10 फीसदी पॉलिसियों का लैप्स होना तो चलता है। लेकिन अगर अनुपात इससे ऊपर चला जाए तो समझना चाहिए कि कहीं न कहीं कुछ मूलभूत गड़बड़ी है। वैसे, जीवन बीमा कंपनियों के साझा मंच लाइफ इंश्योरेंस काउंसिल के महासचिव एस बी माथुर कहते हैं कि इरडा कोशिश कर रहा है। इस समस्या को सुलझाने में लंबा समय लगेगा। इसलिए इसमें चिंता की बात नहीं है। उनके मुताबिक अभी भी इस पर नियंत्रण की जरूरत है और कुछ समय बाद ही इस पर नियंत्रण लग पाएगा।
एक अनुमान के मुताबिक 2009-10 में लैप्स पॉलिसियों का सम-एश्योर्ड करीब 2.15 लाख करोड़ रुपए रहा है, जबकि जबकि 2008-09 में यह आंकड़ा एक लाख करोड़ रुपए था। इस हालांकि इरडा ने इन लैप्स पॉलिसियों का प्रीमियम का कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है, पर इसमें से अगर 20 फीसदी प्रीमियम का भुगतान मान लिया जाए तो यह आंकड़ा 43,000 करोड़ रुपए के आसपास हो जाता है। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि बीमा कंपनियां हर साल करोड़ों रुपए इसी तरह के रास्ते से कमा रही हैं।