बहुत सारे आईपीओ ‘फंडेड’ होते हैं

यह सच है कि हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और होते हैं। लेकिन यह बात मुझे अभी-अभी पता चली है कि हमारे पूंजी बाजार में भी ऊपर-ऊपर जो दिखाया जाता है, हकीकत उससे काफी जुदा होती है। जैसे, यह कि बहुत सारी कंपनियों के आईपीओ फंडेड होते हैं। इस अर्थ में ही नहीं कि उनमें क्वालिफाइड इंस्टीट्यूशन खरीदार (क्यूआईबी), एंकर इनवेस्टर और एचएनआई पहले से ही इश्यू के मर्चेंट बैंकर से बातचीत के बाद निवेश की हामी भर चुके हैं। बल्कि इस अर्थ में भी कि रिटेल निवेशकों का हिस्सा भी आपसी ‘करार’ से भर लिया जाता है।

बाजार के एक सूत्र ने बताया कि होता यह है कि ऐसे बहुत सारे ऑपरेटर बाजार में सक्रिय हैं जो आईपीओ लानेवाली कंपनी के प्रवर्तक से डील कर लेते हैं। मान लीजिए कि किसी आईपीओ में इश्यू मूल्य प्रति शेयर 80 रुपए का है। ऑपरेटरों की डील यह होती है कि प्रवर्तक उन्हें कंपनी के शेयर 40 रुपए की दर से देंगे। कंपनी के खाते में प्रति शेयर 80 रुपए ही दिखाए जाते हैं। लेकिन कंपनी को असल में मिलते हैं, एक शेयर के 40 रुपए। इस तरह मोटे तौर पर कहें तो अगर आईपीओ से कंपनी को 500 करोड़ मिलने हैं तो हकीकत में उसे केवल 250 करोड़ मिलते हैं। कंपनी इश्यू से मिली राशि के खर्च में गड्डमड्ड करके 250 करोड़ रुपए की कमी एडजस्ट कर लेती है।

हमने इस उदाहरण में 50 फीसदी ‘कट’ माना है, लेकिनयह  अलग-अलग डील में 20-30 फीसदी भी हो सकता है। जानकारों के मुताबिक बाजार में चल रहे माहौल के हिसाब से कट का फैसला होता है। आईपीओ के लिस्ट होने के बाद ये ऑपरेटर उसमें सक्रिय हो जाते हैं और शेयर को जैक लगाकर ऊपर ले जाते हैं। लेकिन 80 का शेयर अगर 60 पर भी लिस्ट हुआ तो उन्हें प्रति शेयर 40 रुपए पर 20 रुपए यानी 50 फीसदी का फायदा मिल जाता है। उनका कहना है कि पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी को भी पता है कि आईपीओ में इस तरह की फंडिंग होती है। आईपीओ में क्यूआईबी या एचएनआई हिस्से के रिटेल से पहले और काफी ज्यादा सब्सक्राइब होने की एक वजह यह भी हो सकती है।

सीएनआई रिसर्च के सीएमडी किशोर ओस्तवाल कहते हैं कि हाल-फिलहाल बहुत सारे आईपीओ इश्यू मूल्य से कम पर लिस्ट हो रहे हैं। इसकी एक वजह यह है कि मर्चेंट बैंकर शेयर का मूल्य ज्यादा तय करते हैं। अगर उन पर एक साल के लिए उस शेयर में अनिवार्य मार्केट मेकिंग की जिम्मेदारी डाल दी जाए तो यह समस्या काफी हद तक सुलझ सकती है।

इधर यह भी हुआ है कि चार कंपनियों ने आईपीओ के लिए सेबी से मिली मंजूरी की मीयाद बीत जाने दी है और वे अब पूंजी बाजार में नहीं उतर रही हैं। पहले आईपीओ के लिए सेबी की मंजूरी की वैधता केवल तीन महीने होती थी। लेकिन दिसंबर 2008 में इसे बढ़ाकर एक साल कर दिया गया। जिन चार कंपनियों के आईपीओ अब नहीं आ पाएंगे, उन्हें सेबी की मंजूरी मिले एक साल से ज्यादा हो गए हैं। ये कंपनियां हैं – रैडिएंट इंफो सिस्टम्स (मंजूरी की तिथि – 11 जून 2009), गिन्नी एंड जॉनी (मंजूरी की तिथि – 15 जून 2009), वैली एंटरटेनमेंट (मंजूरी की तिथि – 5 मई 2009) और यूशर इको पावर (मंजूरी की तिथि – 24 जून 2009)। ब्रोकर फर्म एसएमसी कैपिटल्स के इक्विटी प्रमुख जगन्नाधम तुनगुंटला का कहना है कि प्राइमरी बाजार में चल रहा ठंडापन इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *